शौनकजी कहते हैं—शतानीक देवयानीकी बात सुनकर भृगुश्रेष्ठ शुक्राचार्य बड़े क्रोधमें भरकर वृषपर्वाके समीप गये। वह राजसिहासनपर बैठा हुआ था। शुक्राचार्यजीने बिना कुछ सोचे-विचारे उससे इस प्रकार कहना आरम्भ किया- 'राजन्! जो (लोकमें) अधर्म किया जाता है, उसका फल तुरंत नहीं मिलता। जैसे गायकी सेवा करनेपर धीरे धीरे कुछ कालके बाद वह व्याती और दूध देती है अथवा धरतीको जोत- बोकर बीज डालनेसे कुछ कालके बाद पौधा उगता और यथासमय फल देता है, उसी प्रकार किया जानेवाला अधर्म धीरे-धीरे जड़ काट देता है। यदि वह (पापसे उपार्जित द्रव्यका) दुष्परिणाम न अपने ऊपर दिखायी देता है, न पुत्रों अथवा नाती-पोतोंपर ही तो वह इस त्रिवर्गका अतिक्रमण करके आगेकी पीढ़ियोर अवस्य प्रकट होता है।जैसे खाया हुआ गरिष्ठ अन तुरंत नहीं तो कुछ देर बाद अवश्य ही पेटमें उपद्रव करता है, उसी प्रकार किया हुआ पाप भी निश्चय ही अपना फल देता है। राजन्! अङ्गिराका पौत्र कच विशुद्ध ब्राह्मण है। वह स्वभावसे हो निष्पाप और धर्मज्ञ है तथा उन दिनों मेरे घरमें रहकर निरन्तर मेरी सेवामें संलग्र था, परंतु तुमने उसका बार बार वध करवाया था। वृषपर्वन्! ध्यान देकर मेरी यह बात सुन लो, तुम्हारे द्वारा पहले वधके अयोग्य ब्राह्मणका वध किया गया है और अब मेरी पुत्री देवयानीका भी वध करनेके लिये उसे कुऍमें ढकेला गया है। इन दोनों हत्याओंके कारण मैं तुमको और तुम्हारे भाई-बन्धुओंको त्याग दूंगा। राजन्! तुम्हारे राज्यमें और तुम्हारे साथ मैं एक क्षण भी नहीं ठहर सकूँगा। दैत्यराज! आज मैं तुम जैसे मिथ्याप्रलापी दैत्यको भलीभाँति समझ सका हूँ। तुम अपनी पुत्रीके उद्धत स्वभावकी उपेक्षा क्यों कर रहे हो ?' ॥ 1-7॥
वृषपर्वा बोले भगुनन्दन। आपने मेरे जानते कभी अनुचित या मिथ्या भाषण नहीं किया। आपमें धर्म और सत्य सदा प्रतिष्ठित हैं। अतः आप हमलोगोंपर कृपा करके प्रसन्न होइये! भार्गव ! यदि आप हमें छोड़कर चले जाते हैं तो मैं (तुरन्त) समुद्रमें प्रवेश कर जाऊँगा; क्योंकि हमारे लिये फिर दूसरी कोई गति नहीं है ॥ 8-9 ॥ शुक्राचार्यने कहा- असुरो ! तुम लोग समुद्रमें घुस जाओ अथवा चारों दिशाओंमें भाग जाओ, मैं अपनी पुत्रीके प्रति किया गया अप्रिय बर्ताव नहीं सह सकता; क्योंकि वह मुझे अत्यन्त प्रिय है। तुम देवयानीको प्रसन्न करो; क्योंकि उसीमें मेरे प्राण बसते हैं। उसके प्रसन्न हो जानेपर इन्द्रके पुरोहित बृहस्पतिकी भाँति में तुम्हारे योगक्षेमका वहन करता रहूँगा ll 10-11 ॥
वृषपर्वा बोले- भृगुनन्दन ! असुरेश्वरोंके पास इस भूतलपर जो कुछ भी सम्पत्ति तथा हाथी घोड़े आदि पशुधन है, उसके और मेरे भी आप ही स्वामी हैं ॥ 12 ॥
शुक्राचार्यने कहा- महान् असुर ! दैत्यराजोंका जो कुछ भी धन-वैभव है, यदि उसका स्वामी मैं ही हूँ तो उसके द्वारा इस देवयानीको प्रसन्न करो ll 13 ॥शौनकजी कहते हैं— शतानीक! तदनन्तर शुक्राचार्य तुरंत ही राजा वृषपर्वाके साथ अपनी पुत्री देवयानीके पास पहुँचे और उससे बोले- 'सुभगे! तुम्हारी बात पूरी हो गयी ' ॥ 14 ॥
तब देवयानीने कहा-तात भार्गव! 'आप राजाके धनके स्वामी हैं मैं इस बातको आपके कहनेसे नहीं मानूंगी। राजा स्वयं कहें तो हमें विश्वास होगा ॥ 15 ॥ वृषपर्वा बोले - पवित्र मुसकानवाली देवयानी!
तुम जिस वस्तुको पाना चाहती हो, वह यदि अत्यन्त दुर्लभ हो तो भी मैं उसे तुम्हें अवश्य दूँगा (यह तुम
विश्वास करो) । ll 16 ॥
देवयानीने कहा- मैं चाहती हूँ, शर्मिष्ठा एक हजार कन्याओंके साथ मेरी दासी बनकर रहे और पिताजी जहाँ मेरा विवाह करें, वहाँ भी वह मेरे साथ जाय ॥ 17 ॥ यह सुनकर वृषपर्वाने धायसे कहा - धात्रि! तुम उठो, जाओ और शर्मिष्ठाको (यहाँ) शीघ्र बुला लाओ एवं देवयानीकी जिस वस्तुकी कामना हो, उसे वह पूर्ण करे ॥ 18 ॥
शौनकजी कहते हैं-तब धायने शर्मिष्ठाके पास जाकर कहा- 'भद्रे शर्मिष्ठे! उठो और अपने जाति भाइयोंको सुख पहुँचाओ। पापरहित राजकुमारी! आज शुक्राचार्य देवयानीके कहनेसे अपने शिष्यों-यजमानोंको त्याग रहे हैं। अतः देवयानीकी जो कामना हो, वह तुम्हें पूर्ण करनी चाहिये। सुशोभने! तुम देवयानीकी दासी बनायी गयी हो' ll 19-203॥
शर्मिष्ठा बोली - यदि इस प्रकार देवयानीके लिये ही शुक्राचार्यजी मुझे बुला रहे हैं तो देवयानी जो कुछ चाहती हैं, वह सब आजसे मैं करूंगी। मेरे अपराधसे न शुक्राचार्यजी कहीं जायें और न देवयानी ही मेरे कारण ये अन्यत्र जानेका विचार न करें ॥ 21 ॥
शौनकजी कहते हैं—शतानीक! तदनन्तर पिताकी आज्ञासे राजकुमारी शर्मिष्ठा शिविकापर आरूढ़ हो तुरन्त राजधानीसे बाहर निकली। उस समय वह एक सहस्र कन्याओंसे घिरी हुई थी ॥ 22 ॥
शर्मिष्ठा बोली - देवयानी! मैं एक सहस्र दासियोंके साथ तुम्हारी दासी बनकर सेवा करूँगी और तुम्हारे पिता जहाँ भी तुम्हारा ब्याह करेंगे, निश्चय ही वहाँ | तुम्हारे साथ चलूँगी ॥ 23 ॥देवयानीने कहा- अरी! मैं तो स्तुति करनेवाले और दान लेनेवाले भिक्षुककी पुत्री हूँ और तुम उस बड़े बापकी बेटी हो, जिसकी मेरे पिता स्तुति करते हैं, फिर मेरी दासी बनकर कैसे रहोगी ? ॥ 24 ॥
शर्मिष्ठा बोली - जिस किसी उपायसे भी सम्भव हो, अपने विपद्ग्रस्त जाति - भाइयोंको सुख पहुँचाना चाहिये। (इसलिये) तुम्हारे पिता जहाँ तुम्हें देंगे, वहाँ भी मैं तुम्हारे | साथ चलूँगी ll 25 ॥
शौनकजी कहते हैं-नृपश्रेष्ठ ! जब वृषपर्वाकी पुत्रीने दासी होनेकी प्रतिज्ञा कर ली, तब देवयानीने अपने पितासे कहा ॥ 26 ॥ देवयानी बोली- पिताजी! अब मैं नगरमें प्रवेश
करूँगी। द्विजश्रेष्ठ अब मुझे विश्वास हो गया कि आपका विज्ञान और आपकी विद्याका बल अमोघ है ॥ 27 ॥
शौनकजी कहते हैं— शतानीक! अपनी पुत्री | देवयानीके ऐसा कहनेपर महायशस्वी द्विजश्रेष्ठ शुक्राचार्यने समस्त दानवोंसे पूजित एवं प्रसन्न होकर नगरमें प्रवेश किया ॥ 28 ॥