शुक्राचार्यने कहा-बेटी देवयानी तुम इसे निश्चय जानो, जो मनुष्य सदा दूसरोंके कठोर वचन (दूसरोंद्वारा की हुई अपनी निन्दा) को सह लेता है, उसने मानो इस सम्पूर्ण जगत्पर विजय प्राप्त कर ली। जो उभरे हुए क्रोधको घोड़ेके समान वशमें कर लेता है, वही सत्पुरुषोंद्वारा सच्चा सारथि कहा गया है; जो केवल बागडोर या लगाम पकड़कर लटकता रहता है, वह नहीं। देवयानी! जो उत्पन्न हुए क्रोधको अक्रोध (क्षमाभाव) द्वारा मनसे निकाल देता है, समझ लो, उसने सम्पूर्ण जगत्को जीत लिया। जैसे साँप पुरानी केंचुल छोड़ता है, उसी प्रकार जो मनुष्य उभड़नेवाले क्रोधको वहीं क्षमाद्वारा त्याग देता है, वही श्रेष्ठ पुरुष कहा गया है। जो श्रद्धापूर्वक धर्माचरण करता है, कड़ी से कड़ी निन्दा सह लेता है और दूसरेके सतानेपर भी दुःखी नहीं होता, वही सब पुरुषार्थीका सुदृढ़ पात्र है। एक व्यक्ति, जो सौ वर्षोंतक प्रत्येक मासमें अश्वमेधवज्ञ करता जाता है और दूसरा जो किसीपर भी क्रोध नहीं करता, उन दोनोंमें क्रोध न करनेवाला ही श्रेष्ठ है। अबोध बालक और बालिकाएँ अज्ञानवश आपसमें जो वैर-विरोध करते हैं, उसका अनुकरण समझदार मनुष्योंको नहीं करना चाहिये क्योंकि वे नादान बालक दूसरोंके बलाबलको नहीं जानते ॥ 1-7 ॥देवयानी बोली- पिताजी! यद्यपि मैं अभी (नादान) बालिका हूँ, फिर भी धर्म-अधर्मका अन्तर समझती हूँ। क्षमा और निन्दाकी सबलता और निर्बलताका भी मुझे ज्ञान है; परंतु जो शिष्य होकर भी शिष्योचित बर्ताव नहीं करता, अपना हित चाहनेवाले गुरुको उसकी धृष्टता क्षमा नहीं करनी चाहिये। इसलिये इन संकीर्ण आचार-विचारवाले | दानवोंके बीच निवास करना अब मुझे अच्छा नहीं लगता। जो पुरुष दूसरोंके सदाचार और कुलकी निन्दा करते हैं, उन पापपूर्ण विचारवाले मनुष्योंमें कल्याणकी इच्छावाले विद्वान् पुरुषको नहीं रहना चाहिये। जो लोग आचार, व्यवहार अथवा कुलीनताकी प्रशंसा करते हों, उन साधु पुरुषोंमें ही निवास करना चाहिये और वही निवास श्रेष्ठ कहा जाता है। तात! वृषपर्वाकी पुत्री शर्मिष्ठाने जो अत्यन्त भयंकर दुर्वचन कहा है, वह मेरे हृदयको ठीक उसी तरह मथ रहा है, जैसे अग्नि प्रकट करनेकी इच्छावाला पुरुष अरणीकाष्ठका मन्थन करता है। इससे बढ़कर महान् दुःखकी बात मैं तीनों लोकोंमें और कुछ नहीं मानती, जो स्वयं श्रीहीन होकर शत्रुओंकी चमकती हुई (सातिशय) लक्ष्मीकी उपासना करता है (उस दुःखी मनुष्यका तो मर जाना ही अच्छा है।) ।। 8- 13 ॥