मार्कण्डेयजीनेपूछा- राजेन्द्र ! तदनन्तर भार्गवेशतीर्थकी यात्रा करनी चाहिये। वहाँ एक बार | भगवान् जनार्दन महायुद्धमें महाबली असुरोंके साथ युद्ध करते-करते थक गये, फिर उन प्रभुके हुंकारसे ही दानवगण नष्ट हो गये थे। वहाँ स्नान करनेसे मानव सभी पापोंसे मुक्त हो जाता है। पाण्डुनन्दन! अब आप शुक्लतीर्थको उत्पत्ति सुनिये। किसी समय विविध धातुओंसे रंग-बिरंगे हिमवान् पर्वतके मनोरम शिखरपर, जो मध्याहकालिक सूर्यके समान देदीप्यमान, तपाये हुए सोनेकी प्रभासे युक्त, हीरक और स्फटिककी सीढ़ियों से सुशोभित था, एक दिव्य सुवर्णमय तथा अनेक पुष्पोंसे विभूषित शिलातलपर सर्वज्ञ, सामर्थ्यशाली, अविनाशी, लोकोंपर अनुग्रह करनेवाले महादेव स्कन्द नन्दी, महाकाल, वीरभद्र आदि गणों तथा अन्यान्य गणसमूहोंसे घिरे हुए उमाके साथ बैठे हुए थे। उसी समय मार्कण्डेयजीने उनसे पूछा—'ब्रह्मा, विष्णु और इन्द्रसे वन्दित, देवाधिदेव महादेव! मैं संसार भवसे भीत हूँ, मुझे सुखका साधन बतलाइये ऐश्वर्यशाली महेश्वर आप भूत और भविष्यके स्वामी हैं, अतः जो सभी पापों का विनाशक एवं तीर्थोंमें श्रेष्ठ हो, वह तीर्थ मुझे बतलाइये ॥ 1-8 ॥
भगवान् शंकरने कहा- महाबुद्धिमान् विप्र तुम तो सकलशास्त्रविशारद और सौभाग्यशाली हो, तुम मेरी बात सुनो और ऋषियोंके साथ स्नान करनेके लिये शुक्लतीर्थमें जाओ। मनु, अत्रि, कश्यप, याज्ञवल्क्य, उशना, अङ्गिरा, यम, आपस्तम्ब, संवर्त, कात्यायन, बृहस्पति, नारद और गौतम ऋषिगण धर्मकी अभिलापासे युक हो उसी तीर्थका सेवन करते हैं। गङ्गा कनखलमें पुण्यको देनेवाली है, सूर्यग्रहण के समय प्रयाग, पुष्कर, गया और कुरुक्षेत्र विशिष्ट पुण्यदायक हो जाते हैं, किंतु शुक्लतीर्थ दिन या रात- सभी समय महान् पुण्यफल देनेवाला है।यह शुक्लतीर्थ दर्शन, स्पर्श, स्नान, दान, तप, जप, हवन और उपवास करनेसे महान फलदायक होता है। यह महान् पुण्यदायक शुक्लतीर्थ नर्मदामें अवस्थित है। चाणक्य नामक राजर्षिने यहीं सिद्धि प्राप्त की थी। यह विशाल क्षेत्र एक योजन परिमाणका गोलाकार है। यह शुक्लतीर्थ महापुण्यको प्रदान करनेवाला और सम्पूर्ण पापों का नाशक है। यह यहाँ स्थित वृक्षके अग्रभागको देखनेसे ब्रह्महत्या और यहाँकी भूमिका दर्शन करनेसे भ्रूणहत्या के पापको नष्ट कर देता है। ऋषिश्रेष्ठ मैं वहाँ उमाके साथ निवास करता हूँ। चैत्र तथा वैशाख मासके कृष्णपक्षको चतुर्दशी तिथिको में कैलाससे भी आकर यहाँ उपस्थित रहता हूँ ॥ 9-17 ॥
राजेन्द्र दैत्य, दानव, गन्धर्व, सिद्ध, विद्याधर, गण, अप्सराएँ और नाग—ये सभी देवगण आकर सभी कामनाओंको पूर्ण करनेवाले विमानोंपर आरूढ़ हो गगनमें स्थित रहते हैं। धर्मकी अभिलाषा रखनेवाले ये सभी शुक्लतीर्थमें आते हैं; क्योंकि जैसे धोबी मलिन वस्त्रको जलसे धोकर उज्ज्वल कर देता है, उसी तरह शुक्लतीर्थ जन्मसे लेकर तबतक किये गये पापोंको नष्ट कर देता है। ऋषिश्रेष्ठ मार्कण्डेय ! यहाँका स्नान और दान महान् पुण्यफलको देनेवाले होते हैं। शुक्लतीर्थसे श्रेष्ठ तीर्थ न हुआ है और न होगा। मानव बचपन में किये गये पाप कर्मोंको शुक्लतीर्थमें एक दिन-रात उपवास करके नष्ट कर देता है। यहाँ तपस्या, ब्रह्मचर्य, यज्ञ, दान और देवार्चनसे जो पुष्टि प्राप्त होती है, वह (अन्यत्र किये गये) सैकड़ों यज्ञोंसे भी नहीं मिलती। यहाँ कार्तिकमासके कृष्णपक्षको चतुर्दशी तिथिको उपवास कर परमेश्वर महादेवको घृतसे स्नान कराना चाहिये। ऐसा करनेसे वह अपने इक्कीस पीढ़ियोंतकके पूर्वजों के साथ महादेवके स्थानसे च्युत नहीं होता। राजन्! ऋषियों और सिद्धोंद्वारा सेवित यह शुक्लतीर्थ महान् पुण्यदायक है। वहाँ स्नान करनेसे मानव पुनर्जन्मका भागी नहीं होता। शुक्लतीर्थमें स्नानकर वृषभध्वजकी पूजा करे और कपालको भर . ऐसा करनेसे महेश्वर प्रसन्न होते हैं ॥18-20॥वस्त्रके ऊपर भक्तिके साथ अर्धनारीश्वर महादेवका चित्र लिखवाये और शङ्ख-तुरहीके शब्दों एवं उत्तम ब्राह्मणोंके द्वारा वैदिक मन्त्रोंके उच्चारणके साथ-साथ नृत्य, गीत आदि मङ्गल-कार्य करते हुए वहाँ रातमें जागरण कराये। प्रातः काल शुक्लतीर्थमें स्नान करके देवताकी पूजा करे। तत्पश्चात् शिवव्रत परायण पवित्र आचार्योंको भोजन कराये और कृपणता छोड़कर उन्हें यथाशक्ति दक्षिणा दे। इसके बाद उनकी प्रदक्षिणा कर धीरेसे देवताके समीप जाय। जो ऐसा करता है, उसे प्राप्त होनेवाला पुण्यफल सुनिये। वह शिवके समान बलशाली हो अप्सराओंद्वारा गाया जाता हुआ दिव्य विमानपर बैठकर प्रलयपर्यन्त स्थित रहता है। जो स्त्री शुक्लतीर्थमें शुभकारक सुवर्णका दान करती है और महादेवको घृतसे स्नान कराकर कुमार (स्कन्द ) -की भी पूजा करती है, भक्तिपूर्वक ऐसा करनेवाली स्त्रीको जो पुण्यफल प्राप्त होता है, उसे सुनिये। वह रुद्रलोकमें स्थित रहकर चौदह इन्द्रोंके कार्यकालतक आनन्दका उपभोग करती है। जो पूर्णिमा एवं चतुर्दशी तिथि, संक्रान्तिके दिन और विषुवयोगमें वहाँ स्नान करके मनको वशमें कर समाहित चित्तसे उपवासके साथ 'विष्णु और शंकर दोनों प्रसन्न हों' इस भावनासे यथाशक्ति दान देता है, उसका वह सब तीर्थके प्रभावसे अक्षय हो जाता है। जो मानव उस तीर्थमें अनाथ, दुर्गतिग्रस्त अथवा सनाथ विप्रका भी विवाह कराता है उसे प्राप्त होनेवाला पुण्यफल सुनिये। वह उस ब्राह्मणके तथा उसकी वंशपरम्परामें उत्पन्न हुए लोगोंके शरीरमें जितने रोएँकी संख्या है, उतने हजार वर्षोंतक शिवलोकमें पूजित होता है ॥ 28-38 ॥