ऋषियोंने पूछा- सूतजी श्राद्धकर्ताको दिनके किस भाग में श्राद्ध करना चाहिये? किस कालमें किया गया वह श्राद्ध अनन्त फलदायक होता है? तथा किन किन तीर्थोंमें किया गया श्राद्ध अधिक-से-अधिक फल प्रदान करता है ? ॥ 1 ॥ सूतजी कहते हैं-ऋषियों! अपराह्न काल (दिनके तीसरे पहरमें प्राप्त होनेवाले) अभिजित मुहूर्तमें तथा | रोहिणी के उदयकालमें (पितरोंके निमित्त) जो कुछ दिया जाता है, वह अक्षय बतलाया गया है। द्विजवरो! अब जो-जो तीर्थ पितरोंको परम प्रिय हैं, उन सबका नाम-निर्देशपूर्वक संक्षेपसे वर्णन कर रहा हूँ। गया नामक पितृतीर्थ सभी तीर्थोंमें श्रेष्ठ एवं मङ्गलदायक है, वहाँ | देवदेवेश्वर भगवान् पितामह स्वयं ही विराजमान हैं। वहाँ श्राद्धमें भाग पानेकी कामनावाले पितरोंद्वारा यह गाथा गायी गयी है—'मनुष्योंको अनेक पुत्रोंकी अभिलाषा करनी चाहिये क्योंकि उनमेंसे यदि एक भी पुत्र गयाको यात्रा करेगा अथवा अश्वमेध यज्ञका अनुष्ठान कर देगा या नील वृष (साँड़) - का उत्सर्ग कर देगा (तो हमारा उद्धार हो जायगा ।' उसी प्रकार पुण्यप्रदा वाराणसी नगरी सदा पितरोंको प्रिय है, जहाँ अविमुक्तके निकट किया गया श्राद्ध भुक्ति (भोग) एवं मुक्ति (मोक्ष) रूप फल प्रदान करता है। उसी प्रकार पुण्यप्रद विमलेश्वर तीर्थ भी पितरोंके लिये परम प्रिय है। पितृतीर्थ प्रयाग सम्पूर्ण मनोवाञ्छित फलोंका प्रदाता है। वहाँ माधवसमेत भगवान् वटेश्वर तथा उसी प्रकार योगनिद्रामें शयन करते हुए भगवान् केशव सदा निवास करते हैं ॥ 29 ॥
पुण्यमय दशाश्वमेधिक तीर्थ, गङ्गाद्वार (हरिद्वार), नन्दा, ललिता तथा मङ्गलमयी मायापुरी (ऋषिकेश) ये सभी तीर्थ भी उसी प्रकार पितरोंको प्रिय हैं। मित्रपद (तीर्थ) भी श्रेष्ठ हैं। उत्तम केदारतीर्थ और सर्वतीर्थमय एवं मङ्गलप्रद गङ्गास्वगरतीर्थको भी विप्रिय कहा गया है उसी तरह शतद्रु (सतलज) नदीके जलके अन्तर्गत कुण्डमें स्थित ब्रह्मसर तीर्थ भी श्रेष्ठ हैं। नैमिषारण्य सम्पूर्ण तीर्थोंका एकत्र फल प्रदान करनेवाला है। यहपितरोंको (बहुत) प्रिय है। यहीं गोमती नदीमें गङ्गाका सनातन स्रोत प्रकट हुआ है। यहाँ त्रिशूलधारी महादेव और सनातन यज्ञवराह विराजते हैं। यहाँ अष्टादश भुजाधारी शंकरकी प्रतिमा है। यहाँका काञ्चनद्वार प्रसिद्ध है। यहाँ पूर्वकालमें भगवान् विष्णुद्वारा दिये गये धर्मचक्रकी नेमि शीर्ण होकर गिरी थी। यह सम्पूर्ण तीर्थोद्वारा निषेवित नैमिषारण्य नामक तीर्थ है। यहाँ देवाधिदेव भगवान् वाराहका भी दर्शन होता है। जो वहाँकी यात्रा करता है, वह पवित्रात्मा होकर नारायणपदको प्राप्त कर लेता है। इसी प्रकार सम्पूर्ण पापोंका विनाशक एवं महान् पुण्यशाली कृतशीच नामक तीर्थ है, जहाँ भगवान् जनार्दन सिंहरूपसे विराजमान रहते हैं। तीर्थभूता इक्षुमती (काली नदी) पितरोंको सदा प्रिय है। ( कन्नौजके पास इस इक्षुमतीके साथ) गङ्गाजीके संगमपर पितरलोग सदा निवास करते हैं। सम्पूर्ण तीर्थोंसे युक्त कुरुक्षेत्र नामक महान् पुण्यप्रद तीर्थ है। इसी प्रकार समस्त देवताओंद्वारा नमस्कृत पुष्पलता सरयू पितृ तीर्थोक अधिनिरूप झरावती नदी, यमुना, देविका (देग), काली (कालीसिंध), चन्द्रभागा (चनाब), दृषद्वती (गग्गर), पुण्यतोया वेणुमती (वेण्वा) नदी तथा सर्वश्रेष्ठा वेत्रवती (बेतवा ) - ये नदियाँ पितरोंको परम प्रिय हैं। इसलिये श्राद्धके विषयमें करोड़ों गुना फलदायिनी मानी गयी हैं। द्विजवरी जम्बूमार्ग (भाँच) नामक तीर्थ महान् पुण्यदायक एवं सम्पूर्ण मनोऽभिलषित फलोंका प्रदाता है, यह पितरोंका प्रिय तीर्थ है। वहाँसे पितृलोक जानेका मार्ग अभी भी दिखायी पड़ता है। नीलकुण्ड तीर्थ भी पितृतीर्थरूपसे विख्यात है ॥ 10-22 ।। इसी प्रकार पुण्यप्रद रुद्रसर, मानससर, मन्दाकिनी, अच्छोदा (अच्छावत), विपाशा (व्यास नदी), सरस्वती, पूर्वमित्रपद, महान् फलदायक वैद्यनाथ, शिप्रा नदी, महाकाल, मङ्गलमय कालञ्जर, वंशोद्भेद, हरोद्भेद, महान फलद गोदभदेश्वर, विष्णुपद और नर्मदाद्वार ये सभी पितृप्रिय तीर्थ हैं। इन तीर्थोंमें श्राद्ध करनेसे गया तीर्थमें पिण्ड-प्रदानके तुल्य ही फल प्राप्त होता है-ऐसा महर्षियोंने कहा है। ये सभी पितृतीर्थ जब स्मरणमात्र कर लेनेसे लोगोंके सम्पूर्ण पापको नष्ट करते हैं, तब वहाँ -जाकर) श्राद्ध करनेवाले मनुष्योंके पापनाशकी तो बात ही क्या है। इसी तरह ओंकार पितृतीर्थ है। कावेरी, कपिलोदका,चण्डवेगा और नर्मदाका संगम तथा अमरकण्टक इन पितृतीय स्थान आदि करनेसे कुरुक्षेत्र से सौगुने अधिक फलकी प्राप्ति होती है। शुक्रतीर्थ भी पितृतीर्थरूपसे विख्यात है तथा सर्वोत्तम सोमेश्वरतीर्थ खान श्रद्ध, दार | हवन तथा स्वाध्याय करनेपर समस्त व्याधियोंका विनाशक, पुण्यप्रदाता और सौ करोड़ गुना फलसे भी अधिक फलदायी है। कायावरोहण (गुजरातका कारावन) नामक तीर्थ, चर्मण्वती (चम्बल) नदी, गोमती, वरुणा (वरणा), उसी प्रकार औशनस नामक उत्तम तीर्थ, भैरव, | (केदारनाथ के पास) भगत, सर्वश्रेष्ठ गौरीतीर्थ, वैनायक नामक तीर्थ, उसके बाद भद्रेश्वरतीर्थ तथा पापहर नामक तीर्थ, पुण्यसलिला तपती नदी, मूलतापी, पयोष्णी तथा पयोष्णी-संगम, महाबोधि, पाटला, नागतीर्थ, अवन्तिका (उज्जैनी) तथा पुण्यतोया वेणानदी, महाशाल, महारुद्र, महालिङ्ग और मङ्गलमयी दशार्णा (धसान नदी तो अत्यन्त ही शुभ हैं । ll 23-34 ॥
शतरुदा, शता तथा श्रेष्ठ विश्वपद, अङ्गारवाहिका उसी प्रकार शोण और घर्घर (घाघरा) नामक दो नद, पुण्यजला कालिका नदी तथा वितस्ता (झेलम) नदी ये पितृतीर्थ स्नान और दानके लिये प्रशस्त माने गये हैं। इनमें जो श्राद्ध आदि कर्म किया जाता है, वह अनन्त फलदायक कहा गया है। द्रोणी, वाटनदी, धारानदी, क्षीरनदी, गोकर्ण, गजकर्ण, पुरुषोत्तम क्षेत्र, द्वारका, कृष्णतीर्थ तथा अर्बुदगिरि (आबू), सरस्वती, मणिमती नदी गिरिकर्णिका, धूतपापतीर्थ तथा दक्षिण समुद्र-इन पितृतीर्थों में किया गया श्राद्ध अनन्त फलदायक होता है। | इसके पश्चात् मेघंकर नामक तीर्थ (गुजरातमें) है, जिसको मेखलायें शार्ङ्गधनुष धारण करनेवाले स्वयं जनार्दन भगवान् विष्णु स्थित हैं। इसी प्रकार मन्दोदरीतीर्थ तथा मङ्गलमयी चम्पा नदी, सामलनाथ, महाशाल नदी, चक्रवाक, चर्मकोट, महान् तीर्थ जन्मेश्वर, अर्जुन, त्रिपुर इसके बाद सिद्धेश्वर, श्रीशैल (मल्लिकार्जुन), शाङ्करतीर्थ, इसके पश्चात् नारसिंहीं महेन्द्र तथा पुण्यप्रद श्रीरङ्ग नामक तीर्थ हैं। इनमें भी किया गया श्राद्ध सदा अनन्त फलदाता माना गया है तथा ये दर्शनमात्रसे ही तुरंत पापोंको हर लेते | पुण्यङ्गिभद्रा नदी तथा भीमरथी नदी,भीमेश्वर, कृष्णवेणा, कावेरी, कुड्मला नदी, गोदावरी नदी, त्रिसंध्या नामक उत्तम तीर्थ तथा समस्त तीर्थोद्वारा नमस्कृत त्रैयम्बक नामक तीर्थ, जहाँ त्रिनेत्रधारी भगवान् शंकर स्वयं ही निवास करते हैं इन सभी तीर्थोंमें किया गया श्राद्ध करोड़ों करोड़ों गुना फलदायक होता है। ब्राह्मणो! इन तीर्थोंका स्मरणमात्र करनेसे पापसमूह सैकड़ों टुकड़ोंमें चूर-चूर होकर नष्ट हो जाते हैं । ll 35–48 ।।
इसी प्रकार श्रीपर्णी, ताम्रपर्णी, सर्वश्रेष्ठ जयातीर्थ, पुण्यतोया मत्स्य नदी, शिवधार, सुप्रसिद्ध भद्रतीर्थ, सनातन पम्पातीर्थ, पुण्यमय रामेश्वर, एलापुर, अलम्पुर, अङ्गारक, प्रख्यात आमर्दक, अलम्बुष, (अलम्बुषा देवीका स्थान) आम्रातकेश्वर एवं एकाम्रक (भुवनेश्वर) हैं। इसके बाद गोवर्धन, हरिश्चन्द्र, कृपुचन्द्र, पृथूदक, सहस्राक्ष, हिरण्याक्ष, कदली नदी, रामाधिवास, उसमें भी सौमित्रिसंगम, इन्द्रकील, महानाद तथा प्रियमेलक ये सभी श्राद्धमें सदा सर्वाधिक प्रशस्त माने गये हैं। चूँकि इन तीर्थोंमें सम्पूर्ण | देवताओंका सांनिध्य देखा जाता है, इसलिये इन सभी में दिया गया दान सैकड़ों कोटि गुनासे भी अधिक फलदायी होता है। पुण्यजला बाहुदा (धवला) नदी, मङ्गलमय सिद्धवन, पाशुपत नामक तीर्थ तथा शुभदायिनी पार्वतिका नदी- इन सभी तीर्थोंमें किया गया श्राद्ध सौ करोड़ गुनासे भी अधिक फलदाता होता है। उसी प्रकार यह भी एक पितृतीर्थ है, जहाँ सहस्रों शिवलिङ्गोंसे युक्त एवं अन्तरमें सभी नदियोंका जल प्रवाहित करनेवाली गोदावरी नदी बहती है। वहींपर जामदग्न्यका वह उत्तम तीर्थ क्रमशः आकर सम्मिलित हुआ है, जो प्रतीकके भयसे पृथक् हो गया था। गोदावरी नदीमें स्थित हव्यकव्य भोजी पिता वह परम प्रियतीर्थ अपारोयुग नामसे प्रसिद्ध है। यह भी श्राद्ध, हवन और दान आदि कार्योंमें सैकड़ों कोटि गुने से अधिक फल देनेवाला है तथा सहस्रलिङ्ग उत्तम राघवेश्वर और पुण्यतोया इन्द्रफेना नदी नामक तीर्थ है, जहाँ पूर्वकालमें इन्द्रका पतन हो गया था तथा पुनः उन्होंने अपने तपोबलसे नमुचिका वध करके स्वर्गलोकको प्राप्त किया था। वहाँ मनुष्योंद्वारा किया गया श्राद्ध अनन्त फलदायक होता है। पुष्कर नामक तीर्थ, शालग्राम और | जहाँ वैश्वानरका निवासस्थान है, वह सुप्रसिद्ध सोमवनतीर्थ,सारस्वततीर्थ स्वामितीर्थ मलन्दरा नदी, कौशिकी और चन्द्रिकाये पुण्यजला नदियाँ हैं। वैदर्भा, वैणा, पूर्वमुख बहनेवाली श्रेष्ठा पयोष्णी, उत्तरमुख बहनेवाली पुण्यसलिला कावेरी तथा जालंधर गिरि इन श्रद्धसम्बन्धी तीर्थोंमें किया गया श्राद्ध अनन्त फलदायक होता है । 49 - 6436 ॥ उसी प्रकार लोहदण्डतीर्थ, चित्रकूट, विन्ध्ययोग, गङ्गा नदीका मङ्गलमय तट, कुब्जाम्र (ऋषिकेश) तीर्थ, उर्वशीपुलिन् संसारमोचनतीर्थ तथा ऋणमोचन इन पितृतीयोंमें श्राद्धका फल अनन्त हो जाता है। अट्टहासतीर्थ, गौतमेश्वर, वसिष्ठतीर्थ, उसके बाद हारीततीर्थ, ब्रह्मावर्त, कुशावर्त, हयतीर्थ, (द्वारकाके पास) प्रख्यात पिण्डारक, शङ्खोद्धार, घण्टेश्वर, बिल्वक, नीलपर्यंत धरणीतीर्थ, रामतीर्थ तथा अश्वतीर्थ (कन्नौज) – ये सब भी श्राद्ध एवं दानके लिये | अनन्त फलदायक - रूपसे विख्यात हैं । ll 65-703 ॥
वेदशिर नामक तीर्थ, उसी तरह ओघवती नदी, वसुप्रद नामक तीर्थ एवं छागलाण्डतीर्थ-इन तीर्थोंमें श्राद्ध प्रदान करनेवाले लोग परमपदको प्राप्त हो जाते हैं बदरीतीर्थ, गणतीर्थ जयन्त, विजय, शक्रतीर्थ, 1 श्रीपतितीर्थ, रैवतकतीर्थ, शारदातीर्थ, भद्रकालेश्वर, वैकुण्ठतीर्थ, श्रेष्ठ भीमेश्वरतीर्थ- इन तीर्थोंमें श्राद्ध करनेवाले लोग परमगतिको प्राप्त हो जाते हैं। मातृगृह नामक तीर्थ, करवीरपुर, कुशेशय, सुप्रसिद्ध गौरी-शिखर, नकुलेशतीर्थ, कर्दमाल, दिण्डिपुण्यकर, उसी तरह पुण्डरीकपुर तथा समस्त तीर्थेश्वरोंका भी अधीश्वर | सप्तगोदावरीतीर्थ इन तीर्थोंमें अनन्त फलप्राप्तिके इच्छुकको श्राद्ध प्रदान करना चाहिये ॥ 71-78 ॥
इस प्रकार मैंने तीर्थोंके इस संग्रहका संक्षेपमें वर्णन किया वैसे इनका विस्तृत वर्णन करनेमें तो बृहस्पति भी समर्थ नहीं हैं, फिर मनुष्यकी तो गणना ही क्या है ? सम्पती दातीर्थ तथा इंद्रिये सभी वर्णम | धर्म माननेवालोंके घरमें भी तीर्थरूपसे बतलाये गये हैं।चूँकि इन तीर्थोंमें जो श्राद्ध किया जाता है, वह कोटिगुना फलदायक होता है, अतः प्रयत्नपूर्वक तीर्थो में श्राद्ध कार्य सम्पन्न करना चाहिये। प्रातःकाल तीन मुहूर्ततकका काल संगव कहलाता है। उसके बाद तीन मुहूर्ततकका काल मध्याह्न और उसके बाद उतने ही समयतक अपराह्न है। फिर तीन मुहूर्ततक सायंकाल होता है, उसमें श्राद्ध नहीं करना चाहिये। सायंकालका समय राक्षसी वेला नामसे प्रसिद्ध है। यह सभी कार्योंमें निन्दित है। एक दिनमें पन्द्रह मुहूर्त होते हैं, यह तो सदासे विख्यात है। उनमें जो आठवाँ मुहूर्त है, वह कुतप नामसे प्रसिद्ध है। चूँकि मध्याह्नके समय सूर्य सदा मन्द हो जाते हैं, इसलिये उस समय अनन्त फलदायक उस (कुतप) का आरम्भ होता है। मध्याह्नकाल, खड्गपात्र, नेपालकम्बल, चाँदी, कुश, तिल, गौ और आठवाँ दौहित्र (कन्याका पुत्र) - ये आठों चूँकि पापको, जिसे कुत्सित कहा जाता है, संतप्त करनेवाले हैं, इसलिये 'कुतप 'नामसे विख्यात हैं। इस कुतप मुहूर्तके उपरान्त चार मुहूर्त अर्थात् कुल पाँच मुहूर्त स्वधावाचनके लिये उत्तम काल हैं। कुश तथा काला तिल - ये दोनों भगवान् विष्णुके शरीरसे प्रादुर्भूत हुए हैं, अतः ये श्राद्धकी रक्षा करनेमें सर्वसमर्थ हैं ऐसा देवगण कहते हैं तीर्थवासियोंको जलमें प्रवेश करके एक हाथमें कुश लेकर विलसहित जलाञ्जलि देनी चाहिये। ऐसा करनेसे श्राद्धकी विशेषता बढ़ जाती है। श्राद्ध करते समय (पिण्ड आदि तो) एक ही हाथसे दिया जाता है, परंतु तर्पण दोनों हाथोंसे किया जाता है—यह विधि सदासे प्रचलित है । 79-91 ।।
सुनजी कहते हैं-ऋषियो! पूर्वकालमें मत्स्यभगवान्ने इस तीर्थ श्राद्धका वर्णन किया था। यह पुण्यप्रद, परम पवित्र, आयुवर्धक तथा सम्पूर्ण पापका विनाशक है। जो मनुष्य इसे सुनता है अथवा स्वयं इसका पाठ करता है, वह श्रीसम्पन्न हो जाता है। तीर्थनिवासियोंद्वारा समस्त पापोंकी शान्तिके निमित्त श्राद्धके समय इस परम श्रेष्ठ दरिद्रताविनाशक (श्राद्ध-माहात्म्यरूप) प्रसङ्गका पाठ करना चाहिये। यह श्राद्ध-माहात्म्य परम पवित्र, यशका आश्रयस्थान, पुरुषोंके महान् से महान् पापका विनाशक तथा ब्रह्मा, सूर्य और रुद्रद्वारा भी पूजित (सम्मानित ) है ॥ 92 - 94 ॥