ऋषियोंने पूछा- सूतजी! मनुष्योंको (पितरोंके निमित्त) हव्य और कव्य किस प्रकार देना चाहिये ? इस मृत्युलोकमें पितरोंके लिये प्रदान किये गये हव्य-कव्य पितृलोकमें स्थित पितरोंके पास कैसे पहुँच जाते हैं ? यहाँ उनको पहुँचानेवाला कौन कहा गया है? यदि मृत्युलोकवासी ब्राह्मण उन्हें खा जाता है अथवा अग्निमें उनकी आहुति दे दी जाती है तो अपने कर्मानुसार शुभ एवं अशुभ योनियोंमें गये हुए प्रेतोंद्वारा उस पदार्थका उपभोग कैसे किया जाता है ? ॥ 1-2 ॥सूतजी कहते हैं-ऋषियो! पितरोंको वसुगण, पितामहोंको रुद्रगण तथा प्रपितामहोंको आदित्यगण कहा जाता है-ऐसी वैदिकी श्रुति है पितरोंके नाम और गोत्र ( उनके निमित्त प्रदान किये गये) हव्य कल्पको उनके पास पहुँचानेवाले हैं अतिशय भक्तिपूर्वक उच्चरित श्राद्धके मन्त्र भी कारण हैं एवं श्रद्धाके उपयोग भी हेतु है। अग्निष्वात्त आदि पितरोंके आधिपत्य-पदपर स्थित हैं। उन देव पितरोंके समक्ष जो खाद्य पदार्थ पितरोंका नाम, गोत्र, काल और देशका उच्चारण करके श्रद्धासे अर्पित किया जाता है, वह पितृगणोंको यदि वे जन्मान्तरमें भी गये हुए हों तो भी उन्हें तृप्त कर देता है। वह उस समय उस योनिके लिये उपयुक्त आहारके रूपमें परिणत हो जाता है। यदि शुभ कर्मोंके प्रभावसे पिता देवयोनिमें उत्पन्न हो गये हैं तो उनके उद्देश्यसे दिया गया अन्न अमृत होकर देवयोनिमें भी उन्हें प्राप्त होता है। वह श्राद्धान दैत्ययोनिमें भोगरूपमें और पशुयोनिमें तृणरूपमें बदल जाता है। सर्पयोनिमें वह वायुरूपसे सर्पके निकट पहुँचता है। यक्ष-योनिमें वह पीनेवाला पदार्थ तथा राक्षसयोनिमें मांस हो जाता है। दानवयोनिमें मायारूपमें, प्रेतयोनिमें रुधिर और जलके रूपमें तथा मानवयोनिमें नाना प्रकारके भोग रसोंसे युक्त अन्न-पानादिके रूपमें परिवर्तित हो जाता है। रमण करनेकी शक्ति, सुन्दरी स्त्रियाँ, भोजन करनेके पदार्थ, भोजन पचानेको शक्ति, प्रचुर सम्पत्तिके साथ-साथ दान देनेकी निष्ठा, सुन्दर रूप और स्वास्थ्य- ये सभी श्रद्धारूपी वृक्षके पुष्प बतलाये गये हैं और ब्रह्मप्राप्ति उसका फल है। पितृगण प्रसन्न होनेपर मनुष्योंको आयु, अनेक पुत्र, धन, विद्या, स्वर्ग, मोक्ष, सुख और राज्य प्रदान करते हैं। सुना जाता है कि कौशिकके पुत्र पूर्वकालमें (श्राद्धके प्रभावसे व्याध, मृग, चक्रवाक आदि योनियोंमें) पाँच बार जन्म लेनेके पश्चात् मुल होकर भगवान् विष्णुके परमपद वैकुण्ठलोकको चले गये थे । 3-12 ॥