सूतजी कहते हैं-ऋषियो ! यह सारा वृत्तान्त पूर्णरूपसे सुनकर मनुने मत्स्यभगवान्से पूछा—'मधुसूदन ! श्राद्धके लिये कौन-सा काल उत्तम है ? श्राद्धके विभिन्न भेद कौन से हैं? श्राद्धोंमें कैसे ब्राह्मणोंको भोजन कराना चाहिये ? तथा कैसे ब्राह्मण वर्जित हैं ? दिनके किस भागमें पितरोंके लिये श्राद्ध करना उचित है ?कैसे पात्रको श्राद्धीय वस्तु प्रदान करनी चाहिये ? तथा उसका फल पितरोंको कैसे प्राप्त होता है ? श्राद्ध किस विधिसे करना
उपयुक्त है ? तथा वह श्राद्ध किस प्रकार पितरोंको प्रसन्न
करता है? (ये सारी बातें मुझे बतलानेकी कृपा करें ॥ 13॥ मत्स्यभगवान् कहने लगे-— राजर्षे! प्रतिदिन पितरोंके प्रति श्रद्धा रखते हुए अन्न आदिसे या केवल जलसे अथवा दूध या फल मूलसे भी श्राद्धकर्म करना चाहिये। श्राद्ध नित्य, नैमित्तिक और काम्यरूपसे तीन प्रकारका बतलाया गया है। इनमें मैं पहले नित्यश्राद्धका वर्णन कर रहा हूँ, जो अर्ध्य और आवाहनसे रहित होता है। इसे 'अदैव' मानना चाहिये। पर्वोपर सम्पन्न होनेवाले (त्रिपुरुष) श्राद्धको 'पार्वण' कहते हैं। महीपते! यह पार्वण श्राद्ध तीन प्रकारका बतलाया जाता है, उन्हें सुनो । नरेश्वर ! पार्वण श्राद्धमें जिन्हें नियुक्त करना चाहिये, उन्हें बतलाता है, सुनो। जो पञ्चाग्रि विद्याका ज्ञाता अथवा गार्हपत्य आदि पाँच अग्नियोंका उपासक, स्नातक, त्रिसुपर्ण (ऋग्वेदके एक अंशका अध्येता ), वेदके छहों अङ्गोंका ज्ञाता, श्रोत्रिय, श्रोत्रियका पुत्र, धर्मशास्त्रोंका पारगामी विद्वान्, सर्वज्ञ, वेदवेत्ता, उचित मन्त्रणा करनेवाला, जाने हुए वंशमें उत्पन्न, कुलीन, पुराणोंका ज्ञाता, धर्मज्ञ, स्वाध्याय एवं जपमें तत्पर रहनेवाला, शिवभक्त, पितृपरायण, सूर्यभक्त, वैष्णव, ब्राह्मणभक्त, योगवेत्ता, शान्त, आत्माको वशीभूत कर लेनेवाला एवं शीलवान् हो (ऐसे ब्राह्मणको श्राद्धकर्ममें नियुक्त करना चाहिये)। (अब इस पुनीत श्राद्धमें जिन्हें भोजन कराना चाहिये, उनके विषयमें बतला रहा हूँ, सुनो।) पुत्रीका पुत्र (नाती), अपना मित्र, गुरु (अथवा गुरुजन), कुलपति (आचार्य), मामा, भाई-बन्धु, ऋत्विक्, आचार्य (विद्यागुरु) और सोमपायी- इन्हें प्रयत्नपूर्वक बुलाकर श्राद्धमें भोजन कराना चाहिये। साथ ही जो विधि वाक्योंके व्याख्याता यज्ञके मीमांसक, सामवेदके स्वर और उसके उच्चारणकी) विधिके ज्ञाता, पङ्गिपावनों में भी परम पवित्र, सामवेदके पारगामी विद्वान् ब्रह्मचारी, वेद और ब्रह्मज्ञानी हैं- ये सभी श्राद्धमें चेष्टापूर्वक भोजन कराने योग्य हैं। ऐसे ब्राह्मण जिस श्राद्धमें भोजन करते हैं, वही श्राद्ध परमार्थसम्पन्न माना जाता है। अब | जो ब्राह्मण श्राद्ध में वर्जित हैं, उन्हें मैं बतला रहा हूँ, सुनो।पतित (जो अपने वर्णाश्रम धर्मसे च्युत हो गया हो), अभिशस्त (कलङ्कित, बदनाम), नपुंसक, चुगलखोर, विकृत अङ्गौवाला, रोगी, बुरे नखोंवाला, काले दाँतोंसे युक्त, कुण्ड (सधवाका जारज पुत्र), गोलक (विधवाका जारज पुत्र), कुत्तोंका पालक, परिवित्ति, नौकर अथवा जिसका मन किसी अन्य श्राद्धमें लगा हो, पागल, उन्मादी, क्रूर, बिडाल | एवं बगुलेकी तरह चोरीसे जीविकोपार्जन करनेवाला, दम्भी तथा मन्दिरमें देवपूजा करके वेतनभोगी (पुजारी) ये सभी श्राद्धभोज में निषिद्ध माने गये हैं। इसी प्रकार कृतन | (किये हुए उपकारको न माननेवाला), नास्तिक (परलोकपर विश्वास न करनेवाला), त्रिशङ्क (कीकटसे दक्षिण और महानदीसे उत्तरका भाग), बर्बर (भारतकी पश्चिम सीमापरका प्रदेश), द्राव, वीत, द्रविड और कोंकण आदि देशोंके निवासी तथा संन्यासी— इन सभीका विशेषरूपसे श्राद्धकार्यमें परित्याग कर देना चाहिये। श्राद्ध दिवसके एक या दो दिन पहले ही श्राद्धकर्ता विनीतभावसे ब्राह्मणोंको निमन्त्रित करे; क्योंकि पितरलोग आकर उन निमन्त्रित ब्राह्मणोंके निकट उपस्थित होते हैं। वे वायुरूप होकर उन ब्राह्मणोंके पीछे-पीछे चलते हैं तथा उनके बैठ जानेपर पितर भी उन्हींके समीप बैठ जाते हैं ll 4-18 ll
उस समय श्राद्धकर्ता ब्राह्मणके दाहिने घुटनेको स्पर्शकर (उससे) इस प्रकार प्रार्थना करे—'मैं आपको निमन्त्रित कर रहा हूँ।' इस प्रकार निमन्त्रण देकर अपने पिताके भाई बन्धुओंको श्राद्ध-नियम बतलाते हुए यों कहे-' (मैं अमुक दिन पितृ श्राद्ध करूँगा, अत: उस दिन) आपलोगोंको निरन्तर क्रोधरहित, शौचाचारपरायण तथा ब्रह्मचर्य व्रतमें स्थित रहना चाहिये। मुझ श्राद्धकर्ताद्वारा भी इन नियमोंका पालन किया जायगा।' इस प्रकार पितृयज्ञसे निवृत्त होकर तर्पण-कर्म | करना चाहिये। श्राद्धकर्ताको 'पिण्डान्वाहार्यक' नामक श्राद्ध सदा अमावास्या तिथिमें करना चाहिये। गोशालामें या किसी जलाशय के निकट दक्षिण दिशाको ओर ढालू स्थानको गोबरसे लीपकर वहीं भक्तिपूर्वक श्राद्धकर्म करना चाहिये। श्राद्धकर्ता पितरोंकि निमित्त बनी हुई चरुको समसंख्यक (24, 6) मुद्रियोंद्वारा 'मैं पितरोंको चरु प्रदान कर रहा है- यों कहकर पितरोंको चरु प्रदान करे और शेष सबको अपनी दाहिनी ओर रख ले। तत्पश्चात् अग्निमें घीकी धारा छोड़कर चरुको तीन भागों में विभक्त करके आगेकी ओर रखे उन भागोंको भी चार अङ्गलके विस्तारका लम्बा बना देना चाहिये। पुनः तीन दर्वी (करछुलें, जिनसे हवनीय पदार्थ अग्निमें छोड़े जाते हैं) रखनी चाहिये, जो खैर या चाँदीमिश्रित अन्य धातुकी बनी हों, जिनका परिमाण मुट्ठी बँधे हुए हाथके बराबर हो, जो । अत्यन्त चिकनी, उत्तम एवं हथेलीकी-सी बनी हुई सुडौल हों।इसी प्रकार अपसव्य होकर (जनेऊको बाँयें कंधे से दाहिने कंधेपर रखकर) पीतलका जलपात्र, मेक्षण (प्रणीतापात्र), समिधा, कुश, तिल, अन्यान्य पात्र, शुद्ध नवीन वस्त्र, गन्ध, धूप, चन्दन आदिको लाकर सबको धीरेसे अपनी दाहिनी ओर रख ले। इस प्रकार सभी आवश्यक सामग्रियोंको एकत्र करके घरके दरवाजेपर गोबरसे लिपी हुई भूमिपर अपसव्य होकर गोमूत्रसे मण्डलकी रचना करे और पुष्पसहित अक्षतोंद्वारा उसकी भी पूजा करे तत्पश्चात् बारम्बार ब्राह्मणोंकर अभिनन्दन करते हुए उनका पाद प्रक्षालन करे। पुनः उन ब्राह्मणोंको कुशनिर्मित आसनोंपर बैठाकर विधिपूर्वक उन्हें आचमन या जलपान करावे। तदनन्तर उनसे श्राद्धके लिये सम्मति ले ll 19-29 ॥
बुद्धिमान् पुरुषको देवकार्यमें दो एवं पितृकार्यमें तीन अथवा दोनों कार्योंमें एक-एक ही ब्राह्मणको भोजन कराना चाहिये। धन-सम्पत्तिसे सम्पन्न होनेपर भी पार्वण श्राद्धमें विस्तार करना उचित नहीं है। पहले विश्वेदेवको अर्घ्य आदि समर्पित करके तत्पश्चात् ब्राह्मणोंकी अर्घ्य आदि द्वारा पूजा करे पुनः श्राद्धकर्ता ब्राह्मणको चाहिये कि वह उन ब्राह्मणोंकी आज्ञा लेकर चरुको काँसेके बर्तन में रखकर अपने गृह्येोक्तके विधानानुसार विधिपूर्वक अग्रिमें हवन करे, फिर बुद्धिमान् पुरुषको अग्नि, सोम और यमका तर्पण करना चाहिये। इस प्रकार एक अग्रिका उपासक यज्ञोपवीतधारी श्रेष्ठ ब्राह्मण 'दक्षिण' नामक अग्निके प्रज्वलित हो जानेपर श्राद्धकर्म सम्पन्न करे। तदनन्तर पर्युक्षण आदिसे निवृत्त होकर उपर्युक्त सारी विधियोंको समझ ले और प्राचीनावीती (अपसव्य) | होकर सारा कार्य सम्पन्न करे। फिर उस बचे हुए हविसे छः पिण्ड बनाकर उनपर बायें हाथसे अपने जलपात्रद्वारा तिलसहित जल गिराये और ईर्ष्या-द्वेषरहित होकर हाथमें कुरा लेकर घुटना मोड़कर प्रयत्नपूर्वक (वेदोपर) रेखा बनाये ( एवं रेखाओं पर कुश बिछाये।) तथा दक्षिण दिशाकी ओर मुख करके पिण्ड रखनेके लिये बिछाये गये कुशॉपर अपनेजन (श्राद्धवेदीपर बिछे हुए कुशॉपर जल सींचनेका संस्कार) करे। फिर हाथमें करछुल लेकरतथा क्रमशः एक-एक पिण्ड उठाकर पितरोंके गोत्र एवं नामोंका उच्चारण करके उन सभी बिछाये गये कुशोंपर एक-एक करके रख दे और लेपभागी पितरोंकी तृप्तिके लिये उन कुशोंके मूलभागमें अपने उस हाथको पोंछ दे तत्पश्चात् पुनः पूर्ववत् उन पिण्डोंपर प्रत्यवनेजन जल छोड़े। तदुपरान्त गन्ध, धूप आदि पूजन सामग्रियोंद्वारा उन छड़ों पितरोंका पूजन करके उन्हें नमस्कार करे और | फिर यथोक्त वेद-मन्त्रोंद्वारा उनका आवाहन करे। एकाग्निक ब्राह्मणके लिये एक ही निर्वाप और एक ही करछुलका विधान है। यह सब सम्पन्न कर लेनेके पश्चात् श्राद्धकर्ता कुशोंपर पितरोंकी पत्रियोंके लिये अन्न प्रदान करे और पिण्डोंपर आवाहन एवं विसर्जन आदि क्रिया पूर्ववत् करे तत्पश्चात् श्राद्धकर्ता उन सभी पिण्डोंमेंसे थोड़ा थोड़ा अंश लेकर उन्हें सर्वप्रथम प्रयत्नपूर्वक उन निमन्त्रित ब्राह्मणोंको खिलावे ll 30-42 ॥
चूँकि पिण्डान्नसे निकाले गये अंशको अमावास्याके दिन ब्राह्मणलोग खाते हैं, इसीलिये इस श्राद्धको 'अन्वाहार्यक' कहा जाता है। श्राद्धकर्ता पहले पवित्रकसहित तिल और जलको उस ब्राह्मणके हाथमें देकर तत्पश्चात् पिण्डांशको समर्पित करे और 'यह हमारे पितरोंके लिये स्वधा हो' यों कहते हुए भोजन कराये। उस ब्राह्मणको चाहिये कि वह क्रोधका परित्याग करके भगवान् नारायणका स्मरण करते हुए 'यह बहुत मीठा है', 'यह परम पवित्र है'- यों कहते हुए भोजन करे उन ब्राह्मणोंको तृप्त जानकर तत्पश्चात् सभी वर्णोंके लिये विकिराकी क्रिया करनी चाहिये। उस समय जलसहित अन्न लेकर पृथ्वीपर जल गिरा दे। पुनः उन ब्राह्मणोंके आचमन कर लेनेपर जल, पुष्प, अक्षत आदि सभी सामग्री स्वस्तिवाचनपूर्वक पिण्डोंके ऊपर डाल दे। फिर इस बाद्धफलको भगवानको अर्पित कर दे, अन्यथा श्राद्ध नष्ट हो जाता है। इसी प्रकार उन ब्राह्मणोंकी प्रदक्षिणा करके उन्हें विदा करे। उस समय श्राद्धकर्ता दक्षिण दिशाकी ओर मुख करके पितरोंसे अभिलाषापूर्ति निमित्त याचना करते हुए यों कहे 'पितृगण हमारे दाताओं, वेदों (वेदज्ञान) और संतानोंकी वृद्धि हो, हमारी श्रद्धा कभी न घंटे, देनेके लिये हमारे पास प्रचुर सम्पत्ति हो, हमारे अधिक-से-अधिक अन उत्पन्न हों, हमारे घरपर अतिथियोंका जमघट लगा रहे।हमसे माँगनेवाले बहुत हों, परंतु हम किसीसे याचना न करें।' उस समय ब्राह्मणलोग कहें 'ऐसा ही हो।' इस प्रकार अन्वाहार्थक नामक पार्वण श्राद्ध जिस प्रकार अमावास्या तिथिको बतलाया गया है, उसी प्रकार अन्य तिथियोंमें भी किया जा सकता है। श्राद्ध-समाप्तिके पश्चात् उन पिण्डोंको गौ, बकरी या ब्राह्मणको दे दे अथवा अग्नि या जलमें भी डाल दे अथवा ब्राह्मणके सामने ही पक्षियोंके लिये छींट दे। उनमें मझले पिण्डको (श्राद्धकर्ताकी) पत्नी 'पितृगण मेरे उदरमें संतानकी वृद्धि करनेवाले गर्भकी स्थापना करायें' यों याचना करती हुई विनयपूर्वक स्वयं खा जाय। यह पिण्ड तबतक उच्छिष्ट बना रहता है, जबतक ब्राह्मण विदा नहीं कर दिये जाते। इस प्रकार पितृकर्मके समाप्त हो जानेपर वैश्वदेवका पूजन करना चाहिये। | तत्पश्चात् अपने इष्ट मित्रोंसहित शान्तिपूर्वक उस पितृसेवित अन्नका स्वयं भोजन करना चाहिये ll 43-55 ॥
श्राद्धकर्ता और श्राद्धभोक्ता—दोनोंको श्राद्धमें भोजन | करनेके पश्चात् पुनः भोजन करना, मार्गगमन, सवारीपर चढ़ना, परिश्रमका काम करना, मैथुन, स्वाध्याय, कलह और दिनमें शयन इन सबका उस दिन परित्याग कर देना चाहिये। इस प्रकार उपर्युक्त विधिसे जमुहाई आदि न लेकर श्राद्ध कर्म सम्पन्न करना चाहिये। सपिण्डीकरणके पश्चात् कन्या, कुम्भ और वृष राशिपर सूर्यके स्थित रहनेपर कृष्णपक्षमें जहाँ-जहाँ पिण्डदान करे, वहाँ-वहाँ अग्निहोत्री श्राद्धकर्ताको सदा | इसी विधिसे पिण्डदान करना चाहिये ॥ 56-58 ॥