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मत्स्य पुराण (मत्स्यपुराण)

Matsya Purana (Matsyapurana )

अध्याय 47 - Adhyaya 47

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श्रीकृष्ण चरित्रका वर्णन, दैत्योंका इतिहास तथा देवासुर संग्रामके प्रसङ्गमें विभिन्न अवान्तर कथाएँ

सूतजी कहते हैं-ऋषियो पूर्वकालमें जो प्रजाओंके स्वामी थे ये ही देवाधिदेव महादेव श्रीकृष्ण | लीला-विहार करनेके लिये मृत्युलोकमें मानव-योनिमें अवतीर्ण हुए। वे वसुदेवजीकी तपस्यासे देवकीके गर्भसे उत्पन्न हुए। उनके नेत्र कमल-सदृश अति रमणीय थे, उनके चार भुजाएँ थीं, उनका दिव्य रूप दिव्य कान्तिसे प्रज्वलित हो रहा था और उनका वक्षःस्थल श्रीवत्सके चिहसे विभूषित था वसुदेवजीने इन दिव्य लक्षणोंसे सम्पन्न श्रीकृष्णको देखकर उनसे कहा-'प्रभो! आप इस रूपको समेट लीजिये। देव! मैं कंससे डरा हुआ हूँ इसीलिये आपसे ऐसा कह रहा हूँ क्योंकि उस मेरे उन अत्यन्त पराक्रमी (छः) पुत्रोंको मार डाला है, जो आपसे ज्येष्ठ थे।' वसुदेवजीकी बात सुनकर अच्युतभगवान्ने शूरनन्दन वसुदेवजीको (अपनेको नन्दके घर पहुँचा देनेकी) आज्ञा देकर उस रूपका संवरण कर लिया (तब वमुदेवजी उन्हें नन्दगोपके घर से गये और उन्हें नन्दगोपके हाथमें समर्पित करके यो बोले 'सखे इस (बालक) की रक्षा करो, इससे यदुवंशियोंका सब प्रकारसे कल्याण होगा। देवकीके गर्भसे उत्पन्न हुआ यह बालक कंसका वध करेगा ॥1-6 ॥

ऋषियोंने पूछा- सूतजी! ये वसुदेव कौन थे, जिन्होंने भगवान् विष्णुको पुत्ररूपमें उत्पन्न किया और जिन्हें भगवान् 'तात-पिता' कहकर पुकारते थे तथा यशस्विनी देवकी कौन थीं, जिन्होंने भगवान‌को अपने गर्भसे जन्म दिया? साथ ही ये नन्दगोप कौन थे तथा महाव्रतपरायणा यशोदा कौन थीं, जिन्होंने बालकरूपमें भगवान्‌का पालन-पोषण किया ? ।। 7-8 ॥

सूतजी कहते हैं-ऋषियो! पुरुष (वसुदेवजी) कश्यप हैं और उनकी प्रिय पत्नी देवकी अदिति (प्रकृति) कही गयी हैं। कश्यप ब्रह्माके अंश हैं और अदिति पृथ्वीका देवकी देवीने अजन्मा एवं महात्मा परमेश्वरसे जो कामनाएँ की थीं, उन सभी कामनाओंको महाबाहु श्रीकृष्णने पूर्ण कर दिया। वे ही योगात्मा भगवान् योगमायाके आश्रयसे समस्त प्राणियोंको मोहित करते हुए मानव शरीर धारण करके भूतलपर अवतीर्ण हुए। उस समय धर्मका ह्रास हो चुका था, अतः धर्मकी स्थापना और असुरोंका विनाश करनेके लिये उन सामर्थ्यशाली विष्णु वृष्णिकुलमें जन्म धारण किया। रुक्मिणी, सत्यभामा, ननजिको कन्या सत्या सुभामा, शैव्या गान्धारराजकुमारी लक्ष्मणा, मित्रविन्दा, देवी कालिन्दी जाम्बवती, सुशीला मद्रराजकुमारी कौसल्या तथा विजया आदि सोलह हजार देवियाँ श्रीकृष्णकी पत्नियाँ थीं। रुक्मिणीने ग्यारह पुत्रोंको जन्म दिया; जो सभी युद्धकर्म निष्णात थे। उनके नाम है-महाबली प्रयुन रणतूर चारुदेष्णु सुचारु, भद्रचार, सुदेष्ण, भद्र,परशु चारुगुप्त, चारुभ्र्द सुचारुक और सबसे छोटा चारुहास। रुक्मिणीसे एक चारुमती नामकी कन्या भी उत्पन्न हुई थी ॥ 9-16 ॥

सत्यभामा के गर्भ से भानू, भ्रमरतेक्षण, रोहित, दीप्तिमान्, ताम्र, चक्र और जलन्ध नामक पुत्र उत्पन्न हुए थे। इनकी चार छोटी बहनें भी पैदा हुई थीं। जाम्बवतीके संग्रामशोभी साम्ब नामक पुत्र पैदा हुआ। श्रेष्ठ सुन्दरी मित्रविन्दाने मित्रवान् और मित्रविन्दको तथा नाग्नजिती सत्याने मित्रबाहु और सुनीथको पुत्ररूपमें जन्म दिया। इसी प्रकार अन्य पत्नियोंसे भी हजारों पुत्रोंकी उत्पत्ति समझ लीजिये। द्विजवरो! इस प्रकार उन बुद्धिमान् वसुदेवनन्दन श्रीकृष्णके पुत्रोंकी संख्या एक करोड़ एक लाख अस्सी हजार बतलायी गयी है। उपासङ्गके दो पुत्र वज्र और संक्षिप्त थे। भूरीन्द्रसेन और भूरि-ये दोनों गवेषणके पुत्र थे। प्रद्युम्रके विदर्भ राजकुमारीके गर्भसे अनिरुद्ध नामक पुत्र उत्पन्न हुआ, जो परम बुद्धिमान् एवं युद्धमें उत्साहपूर्वक लड़नेवाला वीर था। अनिरुद्धके पुत्रका नाम मृगकेतन था । पार्श्वनन्दिनी काश्याने साम्बके संयोगसे ऐसे पाँच पुत्रोंको जन्म दिया, जो तरस्वी ( एवं फुर्तीले), सत्यवादी, देवोंके समान सौन्दर्यशाली और शूरवीर थे। इस प्रकार प्रबल शूरवीर एवं महात्मा यादवोंकी संख्या तीन करोड़ थी, उनमें साठ लाख तो महाबली और महान् पराक्रमी थे। ये सभी महान् ओजस्वी यादव देवताओंके अंशसे ही भूतलपर उत्पन्न हुए थे। देवासुर संग्राममें जो महाबली असुर मारे गये थे, वे ही भूतलपर मानव-योनिमें उत्पन्न होकर सभी मानवोंको कष्ट दे रहे थे। उन्होंका संहार करनेके लिये भगवान् यदुकुलमें अवतीर्ण हुए। इन महाभाग यादवोंके एक सौ एक कुल हैं। ये सब-के-सब कुल विष्णुसे सम्बन्धित कुलके अंदर ही वर्तमान थे। भगवान् विष्णु (श्रीकृष्ण) उनके नेता और स्वामी थे तथा वे सभी यादव श्रीकृष्णकी आज्ञाके अधीन रहते थे- ऐसा कहा | जाता है ।। 17- 29 ॥ऋषियोंने पूछा-सूतजी सहर्षि, कुबेर, यक्ष मणिर (मणिभद्र), नाद सिद्ध, धन्वन्तरि तथा देवसमान | इन सबके साथ आदिदेव भगवान् विष्णु संबद्ध होकर किसलिये अवतीर्ण होते हैं? इन महापुरुषके कितने अवतार हो चुके और भविष्यमें कितने अन्य अवतर होनेवाले हैं? ब्राह्मणों और क्षत्रियोंके थक जानेपर | किस कारण भूतलपर उत्पन्न होते हैं? वृष्णि और अन्धकवंशमें सर्वश्रेष्ठ विष्णु (श्रीकृष्ण) जिस प्रयोजनये | भूतलपर बारंबार मानव-योनिमें प्रकट होते हैं, वह सभी कारण हम सब प्रश्नकर्ताओंको बतलाइये ॥ 30-33 ॥

सूतजी कहते हैं-ऋषियो ! युग-युगमें जब लोग धर्मसे विमुख हो जाते हैं तथा शुभ कर्मोंमें विशेषरूप से शिथिलता आ जाती है, तब भगवान् विष्णु अपने दिव्य शरीरका त्यागकर भूतलपर मानव-योनिमें प्रकट होते हैं। पूर्वकालमें दैत्यराज हिरण्यकशिपुके त्रिलोकीका शासन करते समय देवासुर संग्रामके अवसरपर भगवान् श्रीहरि अवतीर्ण हुए थे। इसी प्रकार क्रमशः जब बलि तीनों लोकोंपर अधिष्ठित था, उस समय देवताओंकी असुरोंके साथ प्रगाढ़ मैत्री हो गयी थी। ऐसा समय एक युगतक चलता रहा। उस समय सारा जगत् असुरोंसे व्याप्त होकर अत्यन्त व्याकुल हो उठा था। देवता और असुर दोनों समानरूपसे उसकी आज्ञाके अधीन थे। अन्तमें (बलि-बन्धनके समय) बलिका विमर्दन करनेके लिये देवताओं और असुरोंके बीच अत्यन्त भयंकर एवं | महान् विनाशकारी घोर संग्राम प्रारम्भ हो गया। तब भगवान् विष्णु धर्मको व्यवस्था करनेके लिये तथा देवताओं और असुरोंके प्रति दिये गये भृगुके शापके कारण पृथ्वीपर मानव-योनिमें उत्पन्न हुए ।। 34-39 ॥

ऋषियोंने पूछा- सूतजी ! उस समय भगवान् विष्णु देवताओं और असुरोंके लिये अपने-आप इस अवताररूप कार्यमें कैसे प्रवृत्त हुए थे? तथा वह देवासुरसंग्राम जिस प्रकार हुआ था? वह सब हमलोगोंको बतलाइये 40 ॥ सूतजी कहते हैं-ऋषियो। पूर्वकालमें वराह आदि बारह अत्यन्त भयंकर देवासुर संग्राम भागप्राप्ति के निमित्त हुए थे।ये सभी युद्ध शण्डामर्कके पौरोहित्यकालमें घटित हुए बतलाये जाते हैं। मैं संक्षेपमें नामनिर्देशानुसार उनका वर्णन कर रहा हूँ, सुनिये। प्रथम युद्ध नरसिंह (नृसिंहावतार) में, दूसरा वामन, तीसरा वाराह (वराहावतार) में और चौथा - अमृत-मन्थनके अवसरपर हुआ था। पाँचवाँ तारकामय संग्राम घटित हुआ था। इसी प्रकार छठा युद्ध आडीवक, सातवाँ पुर (त्रिपुरसम्बन्धी), आठवाँ अन्धक, नवाँ वृत्रघातक, दसवीं धात्र (या वार्त्र), ग्यारहवाँ हालाहल और बारहवाँ भयंकर संग्राम कोलाहलके नामसे विख्यात है। (इन संग्रामोंमें) भगवान् विष्णुने दैत्यराज हिरण्यकशिपुको नृसिंह रूप धारण करके मार डाला था पूर्वकालमें त्रिलोकीको नापते समय भगवान्ने वामन रूपसे बलिको बाँध लिया था। देवताओंके साथ भगवान्ने वराहका रूप धारण करके द्वन्द्व बुद्धमें अपनी दाढ़ोंसे हिरण्याक्षको विदीर्ण कर मार डाला था और समुद्रको दो भागोंमें विभक्त कर दिया था। अमृत-मन्थनके अवसरपर घटित हुए युद्धमें इन्द्रने प्रह्लादको पराजित किया था उससे अपमानित होकर प्रह्लाद पुत्र विरोचन नित्य इन्द्रका वध करनेकी ताकमें | लगा रहता था। वह पृथक् पृथक् देवोंको तथा पूरे देवसमाजको सहन नहीं कर पाता था, किंतु इन्द्रने तारकामय युद्धमें पराक्रम प्रकट करके उसे यमलोकका पथिक बना दिया। त्रिलोकीमें जितने दानव, असुर और पिशाच थे, वे सभी शंकरजीद्वारा अन्धक नामक युद्धमें मौतके घाट उतारे गये। उस युद्धमें देवता, मनुष्य और पितृगण भी सब ओरसे सहायक रूपमें उपस्थित थे। दानवोंसे घिरा हुआ भयंकर वृत्रासुर हालाहल युद्धमें मारा गया था। तत्पश्चात् इन्द्रने विष्णुकी सहायतासे विप्रचित्तिको युद्धसे विमुख कर दिया, परंतु योगका ज्ञाता विप्रचित्ति अपनेको मायासे छिपाकर ध्वजरूपमें परिणत कर दिया. फिर भी इन्द्रध्वज छिपे होनेपर भी अनुज समेत उसका सफाया कर दिया। इस | प्रकार देवोंकी सहायतासे इन्द्रने कोलाहल नामक युद्धमें संगठित होकर आये हुए सभी पराक्रमी दानवों और दैत्योंको पराजित किया था ऐसा प्रतीत होता है कि युद्धके उपरान्त देवताओंने किसी यज्ञका अनुष्ठान किया था, उस यज्ञकी समाप्तिके अवसरपर अवभृथखानकेसमय शण्ड और अमर्क नामक दोनों दैत्यपुरोहित देवताओंक दृष्टिगोचर हुए थे। इस प्रकार ये बारह युद्ध देवताओं और असुरोंके बीच घटित हुए थे, जो देवताओं और असुरकि विनाशक और प्रजाओंके लिये हितकारी थे । ll 41-54॥

पूर्वकालमें राजा हिरण्यकशिपु एक अरब सात करोड़ बीस लाख अस्सी हजार वर्षोतक त्रिलोकीके ऐश्वर्यका उपभोग करता हुआ (सिंहासनपर) विराजमान था। तदनन्तर पर्यायक्रमसे बलि राजा हुए। इनका शासनकाल दो करोड़ सत्तर हजार वर्षोंतक था। जितने समयतक बलिका शासनकाल था, उतने कालतक प्रह्लाद अपने अनुयायी असुरोंके साथ निवृत्तिमार्गपर अवलम्बित रहे। इन महान् ओजस्वी तीनों दैत्योंको असुरोंका इन्द्र (अध्यक्ष) जानना चाहिये। इस प्रकार दस युगपर्यन्त यह सारा विश्व दैत्योंके अधीन था। पुनः कालक्रमानुसार गत युद्धमें प्रह्लादके मारे जानेपर पर्याय क्रमसे त्रिलोकीका राज्य इन्द्रके हाथोंमें आ गया। उस समय दस युगतक यह विश्व शत्रुहीन था, तब इन्द्र निश्चिन्ततापूर्वक त्रिलोकीका पालन कर रहे थे। उसी समय शुक्राचार्य असुरोंका परित्याग कर एक देवयज्ञमें चले आये। इस प्रकार यज्ञके अवसरपर शुक्राचार्यको | देवताओंके पक्षमें गया हुआ देखकर दैत्योंने शुक्राचार्यको उपालम्भ देते हुए कहा- 'गुरुदेव! आप हमलोगोंके देखते-देखते हमारे राज्यको छोड़कर देवताओंके यज्ञमें क्यों चले गये? अब हमलोग यहाँ किसी प्रकार ठहर नहीं सकते, अतः रसातलमें प्रवेश कर जायेंगे।' दैत्योंके इस प्रकार गिड़गिड़ानेपर शुक्राचार्य उन दुःखो दैत्योंको मधुर वाणीसे सान्त्वना देते हुए बोले 'असुरो ! तुमलोग डरो मत, में अपने तेजोबलसे पुनः तुमलोगोंको धारण करूँगा अर्थात् अपनाऊँगा; क्योंकि त्रिलोकीमें जितने मन्त्र, औषधि, रस और धन सम्पत्ति हैं, वे सब-के-सब मेरे पास हैं। इनका चतुर्थांश ही देवोंके अधिकारमें है मैं वह सारा-का सारा तुमलोगोंको प्रदान कर दूंगा; क्योंकि तुम्हीं लोगोंके लिये ही मैंने उन्हें धारण कर रखा है' ।। 55-65 ॥तदनन्तर जब देवताओंने देखा कि बुद्धिमान् शुक्राचार्यने पुनः असुरोंका पक्ष ग्रहण कर लिया है, तब विचारशील | देवगण समग्र राज्य ग्रहण करनेके विषयमें मन्त्रणा करते हुए कहने लगे-'भाइयो! ये शुक्राचार्य हमलोगोंके सभी कार्योंको बलपूर्वक उलट-पलट देंगे, अतः ठीक तो यही होगा कि जबतक ये उन असुरोंको सिखा-पढ़ाकर बली नहीं बना देते, उसके पूर्व ही हमलोग यहाँसे शीघ्र चलें और उन्हें बलपूर्वक मार डालें तथा बचे हुए लोगोंको पातालमें भाग जानेके लिये विवश कर दें।' ऐसा परामर्श करके देवगण दानवोंके निकट जाकर उनपर टूट पड़े। | इस प्रकार अपना संहार होते देखकर असुरगण शुक्राचार्यकी शरणमें भाग चले। तब शुक्राचार्यने असुरोंको देवताओं द्वारा खदेड़ा गया देखकर तुरंत ही उनकी रक्षाका विधान किया। इससे उलटे देवता ही असुरोंद्वारा पीड़ित किये जाने लगे। तब देवगण वहाँ शुक्राचार्यको निःशङ्क भावसे स्थित देखकर असुरोंके सामनेसे हट गये। तदनन्तर ब्राह्मण शुक्राचार्य पूर्वमें घटित हुए वृत्तान्तका स्मरण करते हुए बहुत सोच-विचारकर असुरोंसे हितकारक वचन बोले 'असुरो ! वामनद्वारा अपने तीन पगोंसे (बलिद्वारा शासित) सम्पूर्ण त्रिलोकीका राज्य छीन लिया गया, बलि बाँध लिया गया, जम्भासुरका वध हुआ और विरोचनका भी निधन हुआ। इस प्रकार बारहों युद्धोंमें तुमलोगों में जो प्रधान प्रधान महाबली असुर थे, वे सभी देवताओंद्वारा तरह तरहके उपायोंका आश्रय लेकर मार डाले गये। अब थोड़ा बहुत तुमलोग शेष रह गये हो, अतः मेरा विचार है कि अभी तुमलोग युद्ध बंद कर दो और कालके विपर्ययको | देखते हुए चुपचाप शान्त हो जाओ। पीछे मैं तुमलोगोंको नीति बतलाऊँगा। मैं आज ही विजय प्रदान करनेवाले मन्त्रकी प्राप्तिके लिये महादेवजीके पास जा रहा हूँ। जब मैं देवाधिदेव महेश्वरसे उन अमोघ मन्त्रोंको प्राप्त करके लौ, तब पुनः मेरे सहयोगसे तुमलोग देवताओंके साथ युद्ध करना, उस समय तुम्हें विजय प्राप्त होगी' - ॥ 66-75 ॥

इस प्रकार परस्पर युद्धविषयक परामर्श करके उन असुरोंने देवताओंके पास जाकर कहा-'देवगण! इस समय हम सभी लोगोंने अपने शस्त्रास्त्रोंको रख दिया है, कवचोंको उतार दिया है और रथोंको छोड़ दिया है। अब हमलोग वल्कल-वस्त्र धारण करके वनमें छिपकर तपस्या करेंगे।" सत्यवादी प्रह्लादके उस सत्य वचनको | सुनकर तथा दैत्योंके शस्त्रास्त्र रख देनेपर देवतालोग प्रसन्न हो गये। उनकी चिन्ता नष्ट हो गयी और वे युद्धसे विरतहो गये। युद्ध बंद हो जानेपर शुक्राचार्यने असुरोंसे कहा 'दानवो! तुमलोग अपने अभिमान आदि कुप्रवृत्तियोंका त्याग कर तपस्यामें लग जाओ और कुछ कालतक उपासना करो क्योंकि काल ही अभीष्ट कार्यका साधक होता है। इस प्रकार तुमलोग मेरे पिताजीके आश्रम में निवास करते हुए मेरे लौटनेकी प्रतीक्षा करो।' असुरोंको ऐसी शिक्षा देकर शुक्राचार्य महादेवजीके पास जा पहुँचे (और उनसे निवेदन करने लगे) । ll 76-80 ॥

शुक्राचार्यने कहा-'देव! मैं देवताओंके पराभव तथा असुरोंकी विजयके लिये आपसे उन मन्त्रोंको जानना चाहता हूँ, जो बृहस्पतिके पास नहीं हैं। ऐसा कहे जानेपर महादेवजीने कहा-'भार्गव! तुम्हारा कल्याण हो इसके लिये तुम्हें कठोर व्रतका पालन करना पड़ेगा। यदि तुम पूरे एक सहस्र वर्षोंतक नीचा सिर करके कनौके धुएँका पान करोगे, तब कहीं तुम्हें उन मन्त्रोंकी प्राप्ति हो सकेगा।' तब भृगुनन्दन शुक्रने | महादेवजीकी आज्ञा शिरोधार्य कर उनके चरणोंका स्पर्श किया और कहा-'देव! ठीक है, मैं वैसा ही करूंगा। प्रभो! मैं आजसे ही आपके आदेशानुसार व्रतपालनमें लग रहा हूँ।' इस प्रकार महादेवजीसे विदा होकर शुक्राचार्य धूमको उत्पन्न करनेवाले कुण्डधार यक्षके निकट गये और असुरोके हितार्थ मन्त्रप्राप्तिके लिये ब्रह्मचर्यपूर्वक महेश्वरके आश्रममें निवास करने लगे। तदनन्तर जब देवताओंको यह ज्ञात हुआ कि असुरोंद्वारा राज्य छोड़ने में ऐसी कूटनीति और यह छिद्र था, तब वे अमर्षसे भर गये; फिर तो वे संगठित हो कवच धारणकर हथियारोंसे सुसज्जित हो बृहस्पतिजीको आगे करके असुरोंपर टूट पड़े। ll 81-86 ॥

इस प्रकार पुनः देवताओंको आयुध धारण करके आक्रमण करते देख असुरगण सहसा भयभीत होकर उठ खड़े हुए और देवताओंसे बोले- 'देवगण! हमलोगोंने शस्त्रास्त्र रख दिया है आपलोगोंद्वारा हमें अभयदान मिल चुका है, मेरे गुरुदेव इस समय व्रतमें स्थित हैं-ऐसी परिस्थितिमें अभयदान देकर भी आपलोग हमारा वध करनेकी इच्छासे क्यों आये हैं? इस समय हमलोग बिना गुरुके हैं, शस्त्रास्त्रोंका परित्याग करके निहत्थे खड़े हैं, तपस्वियोंको भाँति चीर और काला मृगचर्म धारण किये हुए हैं. निष्क्रिय और परिग्रहरहित हैं। ऐसी दशामें हम किसी प्रकार भी युद्धमें आप देवताओंको जीतनेमें समर्थ नहीं हैं, | अतः बिना युद्ध किये ही काव्यकी माताकी शरणमें जा रहे हैं।यहाँ हमलोग इस विषम संकटके समयको तबतक व्यतीत करेंगे, जबतक हमारे गुरुदेव लौटकर आ नहीं जाते। गुरुदेव शुक्राचार्य के वापस आ जानेपर हमलोग कवच और शस्त्रास्त्रसे लैस होकर आपलोगोंके साथ युद्ध करेंगे।' इस प्रकार भयभीत हुए असुरगण परस्पर परामर्श करके शुक्राचार्यकी माताकी शरण में चले गये। तब उन्होंने असुरोंको अभयदान देते हुए कहा-'दानवो! मत डरो, मत डरो, भय छोड़ दो। मेरे निकट रहते हुए तुमलोगोंको किसी प्रकारका भय नहीं प्राप्त हो सकता' ॥ 87 93 ॥

तत्पश्चात् शुक्रमाताद्वारा असुरोंको सुरक्षित देखकर देवताओंने बलाबलका (कौन बलवान् है, कौन दुर्बल है - ऐसा ) विचार न करके बलपूर्वक उनपर धावा बोल दिया। उस समय देवताओं द्वारा उन असुरोंको पीड़ित किया जाता हुआ देखकर (शुक्रमाता ख्याति) देवी क्रुद्ध होकर देवताओंसे बोलीं- 'मैं अभी-अभी तुमलोगोंको इन्द्र-रहित कर देती हूँ।' उस समय उन तपस्विनी एवं योगिनी देवीने सभी सामग्रियोंको एकत्र करके अभिचार मन्त्रका प्रयोग किया और बलपूर्वक इन्द्रको स्तम्भित कर दिया। अपने स्वामी इन्द्रको स्तम्भित हुआ देखकर देवगण मूक से हो गये और इन्द्रको असुरोंके वशीभूत हुआ देखकर वहाँसे भाग खड़े हुए। देवगणके भाग जानेपर भगवान् विष्णुने इन्द्रसे कहा-'सुरश्रेष्ठ! तुम्हारा कल्याण हो। तुम मेरे शरीरमें प्रवेश कर जाओ, मैं तुम्हें यहाँसे अन्यत्र पहुँचा दूंगा।' ऐसा कहे जानेपर इन्द्र भगवान् विष्णुके शरीर में प्रविष्ट हो गये। इस प्रकार भगवान् विष्णुद्वारा इन्द्रको सुरक्षित देखकर (ख्याति) देवी कुपित होकर ऐसा वचन बोली- 'मघवन् यह में सम्पूर्ण प्राणियोंके देखते-देखते विष्णुसहित तुमको बलपूर्वक जलाये देती हूँ। तुम दोनों मेरे तपोबलको देखो' ॥14- 100 ॥

यह सुनकर वे दोनों देवता- इन्द्र और विष्णु भयभीत हो गये। तब विष्णुने इन्द्रसे कहा- 'हम दोनों एक साथ किस प्रकार (इस संकटसे) मुक्त हो सकेंगे ?' यह सुनकर इन्द्र बोले- 'प्रभो! जबतक यह हम दोनोंको जला नहीं देती है, उसके पूर्व ही आप इसे मार डालिये। मैं तो आपके द्वारा विशेषरूपसे अभिभूत हो चुका हूँ, इसलिये आप ही इसका वध कर दीजिये, अब विलम्ब मत कीजिये।' तब भगवान् विष्णु एक ओर उस देवीकीभीषण दुर्भावना- दुश्चेष्टा तथा दूसरी ओर स्त्रीवधरूप घोर पापको देखकर गम्भीर चिन्तामें पड़ गये। फिर उस देवीके क्रूर विचारको जानकर उस आपत्तिसे उद्धार पानेके लिये उन्होंने अपने सुदर्शन चक्रका ध्यान किया। अस्त्रके आ जानेपर शीघ्र ही कार्य सम्पादन करने में निपुण एवं भयभीत विष्णु क्रुद्ध हो उठे और तुरंत ही उन्होंने अपना अस्त्र लेकर (पापसे) डरते-डरते उसके सिरको काट गिराया। इधर ऐश्वर्यशाली भृगु उस भयंकर स्त्री-वधको देख कुपित हो गये और वे उस भार्या वधको निमित्त बनाकर भगवान् विष्णुको शाप देते हुए बोले 'विष्णो! चूँकि 'स्त्री अवध्य होती है'- इस धर्मको जानते हुए भी तुमने मेरी भार्याका प्राण हरण किया है, अतः तुम मृत्युलोकमें सात बार मानव योनिमें जन्म धारण करोगे।' उसी शापके कारण धर्मका ह्रास हो जानेपर भगवान् विष्णु लोकके कल्याणके लिये मृत्युलोकमें पुनः पुनः मानव योनिमें अवतीर्ण होते हैं * ॥ 101-107 ॥

भगवान् विष्णुको ऐसा शाप देकर भृगुने फिर तुरंत ही (ख्यातिके) उस सिरको उठा लिया और उसे देवीके | शरीरके निकट लाकर तथा उस शरीरसे जोड़कर इस प्रकार | कहा- 'देवि! यह तुम विष्णुद्वारा मार डाली गयी हो, अब मैं तुम्हें पुनः जिलाये देता हूँ।' यो कहकर उसके शरीरको सिरसे जोड़कर कहा- 'जी उठो'। पुनः वे प्रतिज्ञा करते हुए बोले- 'यदि मैं सम्पूर्ण धर्मोको जानता हूँ तथा मेरे द्वारा सम्पूर्ण धर्मोका आचरण भी किया गया हो अथवा यदि मैं सत्यवादी होऊँ तो उस सत्यके प्रभावसे तुम जीवित हो जाओ' तत्पश्चात् देवीके शरीरका शोतल जलसे प्रोक्षण करके उन्होंने पुनः कहा— 'जीवित हो जाओ!' भृगुके य कहते ही देवी तुरंत जीवित होकर उठ बैठी। उस देवीको सोकर उठी हुईकी भाँति जीवित देखकर सभी प्राणी 'ठीक है, ठीक है'- ऐसा कहने लगे। उनका वह साधुवाद सभी दिशाओंमें गूँज उठा। इस प्रकार महर्षि भृगुने सभी देवताओंके देखते-देखते देवीको पुनः जीवन प्रदान कर दिया, यह एक अद्भुत-सी बात हुई। 108-113 ॥ इस प्रकार व्यवस्थित चित्तवाले भृगुद्वारा अपनी पत्नीको जीवित किया हुआ देखकर इन्द्रको शुक्राचार्यके भयसे शान्ति नहीं मिल पा रही थी। वे रातभर जागते ही रहते। अन्तमें बुद्धिमान् इन्द्र बहुत कुछ सोच • विचारकर अपनी कन्या जयन्तीसे यह वचन बोले-'बेटी से शुक्राचार्य मेरे शत्रुओंके हितार्थ भीषण व्रतका अनुष्ठान कर रहे हैं। इससे बुद्धिमान काव्य (उन शुक्राचार्य) ने मुझे अत्यन्त व्याकुल कर दिया है, अतः तुम उनके पास जाओ और मेरा कार्य सिद्ध करो यहाँ तुम आलस्यरहित होकर थकावटको दूर करनेवाले तथा उनके मनोऽनुकूल विभिन्न प्रकारके शुभ उपचारोंद्वारा शुक्राचार्यकी ऐसी उत्तम आराधना करो, जिससे वे ब्राह्मण प्रसन्न हो जायँ । जाओ, आज मैं तुम्हें शुक्राचार्यको समर्पित कर दे रहा है। तुम मेरे कल्याणके लिये प्रयत्न करो।' इन्द्रद्वारा इस प्रकार कहे जानेपर इन्द्रपुत्री जयन्ती पिताके वचनको अङ्गीकार करके उस स्थानके लिये प्रस्थित हुई, जहाँ बैठकर शुक्राचार्य भीषण तपका अनुष्ठान कर रहे थे। वहाँ जाकर जयन्तीने शुक्राचार्यको नीचे मुख किये हुए कुण्डधार नामक यक्षद्वारा गिराये गये तथा गिराये जाते हुए कण धूमका पान करते हुए देखा। उनके निकट जाकर जयन्तीने जब यह लक्ष्य किया कि शुक्राचार्य उस गिराये जाते हुए धूमका पान करते हुए अपने स्वरूपके ध्यानमें शान्तभावसे अवस्थित हैं, उनके शरीरपर विभूति लगी है और वे अत्यन्त दुर्बल हो गये हैं, तब पिताने जैसी सीख दी थी. उसीके अनुसार वह शुक्राचार्यके प्रति व्यवहार करने लगी। मधुर भाषण करनेवाली जयन्ती अनुकूल वचनोंद्वारा शुक्राचार्यकी स्तुति करती थी, समय-समयपर उनके सिर हाथ-पैर आदि अङ्गोंको दबाकर उनकी सेवा करती थी। इस प्रकार व्रतचर्याके अनुकूल प्रवृत्तियोंद्वारा उनकी सेवा करती हुई वह बहुत वर्षोंतक उनके निकट निवास करती रही। एक सहस्र वर्षकी | अवधियाले उस भयंकर धूमव्रतके पूर्ण होनेपर भगवान् शंकर प्रसन्न हो गये और शुक्राचार्यको वर प्रदान करते | हुए बोले- ॥। 114- 122 ॥महादेवजीने कहा- भृगुनन्दन। अबतक एकमात्र तुमने ही इस व्रतका अनुष्ठान किया है, किसी अन्यके द्वारा इस व्रतका पालन नहीं हो सका है; इसलिये तुम अकेले हो | अपने तप, बुद्धि, शास्त्रज्ञान, बल और तेजसे समस्त देवताओंको | पराजित कर दोगे। ब्रह्मन् ! तुम्हारी जो कुछ भी अभिलाषा है, वह सारी की सारी तुम्हें प्राप्त हो जायगी, किंतु तुम यह मन्त्र किसी दूसरेको मत बतलाना। द्विजोत्तम! इससे सम्पूर्ण शत्रुओंके दमनकर्ता हो जाओगे।' भृगुनन्दन शुक्राचार्यको इतना वरदान देनेके पश्चात् शंकरजीने पुनः उन्हें प्रजेशत्व (प्रजापति), धनेशत्व ( धनाध्यक्ष) और अवध्यत्वका भी वर प्रदान किया। इन वरदानोंको पाकर शुक्राचार्यका शरीर हर्षसे पुलकित हो उठा। उसी हर्षावेगके कारण उनके | हृदयमें भगवान् शंकरके प्रति एक दिव्य स्तोत्र प्रादुर्भूत हो गया। तब वे उसी तिर्यक् अवस्थामें पड़े-पड़े नीललोहित शंकरजीकी स्तुति करने लगे ।। 123 - 127 ॥

शुक्राचार्यने कहा—प्रभो! आप शितिकण्ठ जगत्की रक्षाके लिये हालाहल विषका पान करके उसके नील चिह्नको कण्ठमें धारण करनेवाले (अथवा कर्पूर गौरकण्डवाले), कनिष्ठाके में सबसे छोटे रुद्र या अदितिके छोटे पुत्ररूप, सुवर्चा अध्ययन एवं तप आदिसे उत्पन्न हुए सुन्दर तेजवाले, लेलिहान -प्रलय कालमें त्रिलोकीके संहारार्थ बारंबार जीभ लपलपानेवाले, काव्य-कवि या पण्डितके लक्षणोंसे सम्पन्न, वत्सर संवत्सररूप, अन्धस्पति-सोमलताके अथवा सभी अलोंके स्वामी, कपदी जटाजूटधारी करालभीषण रूपधारी, हर्यक्ष-पीले नेत्रोंवाले, वरद-वरप्रदाता, संस्तुतपूर्णरूपले प्रशंसित, सुतीर्थ महान् गुरुस्वरूप अथवा उत्तम तीर्थस्वरूप, देवदेव-देवताओंके अधीश्वर, रंहस-वेगशाली, उष्णीषी-सिरपर पगड़ी धारण करनेवाले, सुवक्त्र-सुन्दर मुखवाले, बहुरूप-एकादश रुद्रोंमेंसे एक, वेधा- विधानकर्ता, वसुरेता-अग्निरूप, रुद्र समस्त प्राणियोंके प्राणस्वरूप, तपः तपः-स्वरूप, चित्रवासा - चित्र-विचित्र वस्त्रधारी, ह्रस्व - बौना, मुक्तकेश-खुली हुई जटाओंवाले, सेनानी -सेनापति, रोहित-मृगरूपधारी, कवि-अतीन्द्रिय विषयोंके ज्ञाता, | राजवृक्ष-रुद्राक्ष वृक्षस्वरूप, तक्षकक्रीडन- नागराज तक्षकके साथ क्रीडा करनेवाले, सहस्त्रशिरा-हजारों मस्तकोंवाले, सहस्त्राक्ष-सहस्र नेत्रधारी, मीढुष–सेता अथवा स्तुतिकी वृद्धि करनेवाले, वर-चरण करनेयोग्य, वरस्वरूप, भव्यरूप-सौन्दर्यशाली, श्वेत-गौरवर्णवाले,पुरुष-आत्मनिष्ठ, गिरिश कैलासपर्वतपर शयनकर्ता, अर्क-सबकी उत्पत्तिके हेतुभूत सूर्य बली बम्पर आज्यप-घृतपायी, सुतृप्त परम संतुष्ट, सुवस्त्र सुन्दर वस्त्र पहननेवाले, धन्वी धनुर्धर, भार्गव परशुरामस्वरूप, निपङ्गी-तूणीरधारी, तार-विश्वके रक्षक, स्वक्ष-सुशोभन नेत्रोंसे युक्त, क्षपण भिक्षुकस्वरूप, ताम्र-अरुण अधरोंवाले, भीम-एकादश रुद्रोंमें एक रुद्र, संहारक होनेके कारण भयंकर, उग्र एकादश रुद्रोंमें एक रुद्र, निष्ठर तथा शिव-कल्याणस्वरूपको नमस्कार है ॥128- 134 ॥

महादेव देवताओंके भी पूज्य, शर्व-प्रलयकालमें सबके संहारक, विश्वरूप शिव- विश्वरूप धारण करके जीवोंके कल्याणकर्ता, हिरण्य-सुवर्णकी उत्पत्तिके मूल कारण, वरिष्ठ-सर्वश्रेष्ठ ज्येष्ठ-आदिदेव, मध्यम मध्यस्थ, वास्तोष्पति-गृहक्षेत्रके पालक, पिनाक पिनाक नामक धनुषके स्वामी, मुक्ति-मुक्तिदाता, केवल-असाधारण पुरुष, मृगव्याध - मृगरूपधारी यज्ञके | लिये व्याधस्वरूप, दक्ष—उत्साही, स्थाणु-गृहके आधारभूत स्तम्भके समान जगत्के आधारस्तम्भ, भीषण–अमल वेषधारी, बहुनेत्र- सर्वद्रष्टा, धुर्य-अग्रगण्य, त्रिनेत्र सोम सूर्य अग्रिरूप त्रिनेत्रधारी, ईश्वर सबके शासक, कपाली— चौथे हाथमें कपालधारी, वीर-शूरवीर, मृत्यु संहारकर्ता, त्र्यम्बक - त्रिनेत्रधारी, एकादश रुद्रोंमें अन्यतम, बभ्रु-विष्णुस्वरूप, पिशङ्ग-भूरे रंगवाले, पिङ्गल नील पीतमिश्रित वर्णवाले, अरुण-आदित्यरूप, पिनाकी – पिनाक नामक धनुष या त्रिशूल धारण करनेवाले, ईपुमान्बाणधारी चित्र-अद्भुत रूपधारी, रोहित लाल रंगका मृगविशेष, दुन्दुभ्य-दुन्दुभिके शब्दोंको 'सुनकर प्रसन्न होनेवाले, एकपाद-एकादश रुद्रोंमें एक रुद्र, एकमात्र शरण लेने योग्य, अज-एकादश रुद्रोंमें एक रुद्र, अजन्मा, बुद्धिद-बुद्धिदाता, आरण्य-अरण्यनिवासी, गृहस्थ – गृहमें निवास करनेवाले, यति-संन्यासी, ब्रह्मचारी ब्रह्मनिष्ट सांख्यआत्मानात्मविवेकशील योग-चित्तवृत्तियोंके निरोधस्वरूप अथवा निर्योज समाधिस्वरूप व्यापी सर्वव्यापक दीक्षित-अष्ट मूर्तियोंमें एक मूर्ति, सोमयागके विशिष्ट यागकर्ता, अनाहत हृदयस्थित द्वादशदल कमलरूप चक्रके निवासी, शर्व दारुकावनमें स्थित मुनियों को मोहित करनेवाले, भव्वेश पार्वती के प्राणपति यम संहारकालमें यमस्वरूप, रोधा समुद्र-तटकी भाँति धर्म-हासके निरोधक, चेकितानअतिशय ज्ञानसम्पन्न, ब्रह्मिष्ठ-वेदोंके पारंगत विद्वान्, महर्षि वसिष्ठ आदि, चतुष्पाद - विश्व, तैजस, प्राज्ञ और शिव शीघ्रग—शीघ्रगामी, शिखण्डी जाके ऊपर जटाग्र-गुच्छको ध्यानरूप चार पादोंवाले, मेध्य–पवित्रस्वरूप, रक्षी-रक्षक, धारण करनेवाले, कराल—भयानक, दष्ट्रा दाढ़वाले, | विश्ववेधा-विश्वके सृष्टिकर्ता, भास्वर - दीप्तिमान् स्वरूप वाले, प्रतीत-विख्यात, सुदीप्त-परम प्रकाशमान तथा | सुमेधा - उत्कृष्ट बुद्धिसम्पन्नको नमस्कार है ।। 135 - 142 ॥

क्रूर- निर्दयी, अविकृत-सम्पूर्ण विपरीत क्रियाओंसे रहित, भीषण-भयंकर, शिव-धर्मचिन्तारहित, सौम्य 4 शान्तस्वरूप, मुख्य-सर्वश्रेष्ठ, धार्मिक-धर्मका आचरण करनेवाले, शुभ—मङ्गलस्वरूप, अवघ्य—वधके अयोग्य अमृत - मृत्युरहित, नित्य — अविनाशी, शाश्वत—सनातन स्थायी, व्यापृत — कर्मसचिव, विशिष्ट-सर्वश्रेष्ठ, भरत लोकोंका भरण-पोषण करनेवाले, साक्षी - जीवोंके शुभाशुभ कर्मोके साक्षीरूप, क्षेम-मोक्षस्वरूप, सहमान-सहनशील, सत्य-सत्यस्वरूप, अमृत — धन्वन्तरिस्वरूप, कर्ता सबके उत्पादक, परशु-परशुधारी, शूली— त्रिशूलधारी, | दिव्यचक्षु-दिव्य नेत्रोंवाले, सोमप— सोमरसका पान करनेवाले, आज्यप-घृतयायी अथवा एक विशिष्ट पितरस्वरूप, धूमप-धूमपान करनेवाले, ऊष्मप– एक विशिष्ट पितरस्वरूप, ऊष्माको पी जानेवाले, शुचि-सर्वथा शुद्ध, परिधान-ताण्डवके समय साज-सज्जासे विभूषित, सद्योजात-पञ्च मूर्तियोंमेंसे एक मूर्ति, तत्काल प्रकट होनेवाले, मृत्यु — कालस्वरूप, पिशिताश-फलका गूदा खानेवाले, सर्व-विश्वात्मा होनेके कारण सर्वस्वरूप, मेघ बादलकी भाँति दाता, विद्युत् - बिजलीकी तरह दीप्तिमान्, | व्यावृत्त - गजचर्म या व्याघ्रचर्मसे आवृत, सबसे अलग मुक्तस्वरूप, वरिष्ठ - सर्वश्रेष्ठ, भरित-परिपूर्ण, तरक्षु व्याघ्रविशेष, त्रिपुरघ्न—त्रिपुरासुरके वधकर्ता, तीर्थ – महान् गुरुस्वरूप, अवक्र-सौम्य स्वभाववाले, रोमश-लम्बी जटाओंवाले, तिग्मायुध-तीखे हथियारोंवाले, व्याख्य विशेषरूपसे व्याख्येय या प्रशंसित, सुसिद्ध- परम सिद्धिसम्पन्न, पुलस्ति-पुलस्त्य ऋषिरूप, रोचमान आनन्दप्रद, चण्ड-अत्यन्त क्रोधी, स्फीत-वृद्धिंगत, ऋषभ - सर्वोत्कृष्ट, व्रती – व्रतपरायण, युञ्जमान -सर्वदा कार्यरत, शुचि-निर्मलचित्त, ऊर्ध्वरेता-अखण्डित ब्रह्मचर्यवाले, असुरघ्न-राक्षसोंके विनाशक, स्वाघ्न निजजनोंके रक्षक, मृत्युघ्न-मृत्यु-संकटको टालनेवाले, यज्ञिय-यज्ञके लिये हितकारी, कृशानु—अपने तेजसे तृणकाष्ठादि वस्तुओंको सूक्ष्म कर देनेवाले, प्रचेता उत्कृष्ट चेतनावाले, वह्नि-अग्निस्वरूप और निर्मल जागतिक मलोंसे रहितको नमस्कार है ।। 143-150॥रक्षोक्ष संहारकर्ता पशुनजीवोंक संहारक, अविघ्न-विनरहित, श्वसित-ताण्डवकालमें ऊँची श्वास लेनेवाले, विभ्रान्त-भ्रान्तिहीन, महान्त विशाल मर्यादावाले, अत्यन्त दुर्गम परम दुष्प्राप्य, कृष्ण-सच्चिदानन्दस्वरूप, जयन्त- बारंबार शत्रुओंपर विजय पानेवाले, लोकानामीश्वर- समस्त लोकोंके स्वामी, अनाश्रित- स्वतन्त्र, वेध्य-भक्तोंद्वारा प्राप्त करने के लिये लक्ष्यस्वरूप, समत्वाधिष्ठित-समतासम्पन्न, हिरण्यबाहु सुनहरी कान्तिवाली सुन्दर भुजाओंसे सुशोभित, व्याप्त सर्वव्यापी मह—दीतिशाली, सुकर्मा उत्तम कर्मचा प्रसह्य-विशेषरूपसे सहन करनेयोग्य, ईशान–नियन्ता, सुचक्षुः- सुशोभन नेत्रोंसे युक्त, क्षिप्रेषु शीघ्रतापूर्वक बाण चलानेवाले, सदश्व-उच्चैःश्रवा आदि उत्तम अश्वरूप, शिव-निरुपाधि, मोक्षद-मोक्षदाता, कपिल-कपिल वर्ण, पिशङ्ग-कनक-सदृश कान्तिमान्, महादेव - ब्रह्मादि देवता अंकितथा ब्रह्मवादी मुनियोंके देवता धीमान् उत्तम बुद्धिसम्पन्न, महाकल्प-महाप्रलय कालमें विशाल शरीर धारण करनेवाले, दीप्त—अत्यन्त तेजस्वी, रोदन रुलानेवाले, हस - हसनशील, दृढधन्वा - सुदृढ धनुषवाले, कवची कवचधारी, रथीरथके स्वामी, वरूथी भूतों एवं पिशाचोंकी सेनावाले, भृगुनाथ महर्षि भृगुके रक्षक शुक्र-अधिस्वरूप, गरेष्ठ निकुञ्जप्रिय बेधा ब्रह्मस्वरूप, अमोघ - निष्फलतारहित, प्रशान्त–शान्तचित्त, सुमेध-सुन्दर बुद्धिवाले और युपधर्मस्वरूप है, आपको नमस्कार है। भगवन्! आप विश्व - विश्वस्वरूप, कृत्तिवासा- गजासुरके चर्मको धारण करनेवाले, पशुपति पशुओंके स्वामी और भूतपति-भूत-प्रेतोंके अधीश्वर हैं, आपको चारंबार प्रणाम है। 151-157 ॥ आप प्रणव - ॐ कारस्वरूप एवं ऋग्यजुः साम वेदत्रयीरूप हैं, स्वाहा, स्वधा, वषट्कार—ये तीनों आपके स्वरूप हैं तथा मन्त्रात्मा- मन्त्रोंके आत्मा आप ही हैं, आपको अभिवादन है। आप त्वष्टा-प्रजापति विश्वकर्मा, धाता-सबको धारण करनेवाले, कर्ता-कर्मनिष्ठ, चक्षुः श्रोत्रमय-दिव्य नेत्र एवं दिव्य श्रोत्रसे वुड, भूतभव्यभवेश-भूत, भविष्य और वर्तमानके ज्ञाता और कर्मात्मा - कर्मस्वरूप हैं, आपको नमस्कार है। आप वसु-आठ वसुओंमें एक वसु, साध्य-गणदेवोंकी एक कोटि, रुद्र-दुःखोंके विनाशक आदित्य अदितिपुत्र, सुरदेव विश्व विश्वेदेवतारूप, मारुतस्वरूप एवं देवात्पा- देवताओंके आत्मस्वरूप है, आपको प्रणाम है। आप अग्रीषोमविधिज्ञ अप्रोपोम नामक यज्ञको विधिके ज्ञाता, पशुमन्त्रौषध-यज्ञमें प्रयुक्त होनेवाले पशु,मन्त्र और औषधके निर्णेता, स्वयम्भू—स्वयं उत्पन्न | होनेवाले, अज - जन्मरहित, अपूर्वप्रथम - आद्यन्तस्वरूप, प्रजापति - प्रजाओंके स्वामी और ब्रह्मात्मा ब्रह्मस्वरूप हैं, आपको अभिवादन है। आप आत्मेश—मनके स्वामी, | आत्मवश्य-मनको वशमें रखनेवाले, सर्वेशातिशय समस्त ईश्वरोंमें सबसे बढ़कर, सर्वभूताङ्गभूत—सम्पूर्ण जीवोंके अङ्गभूत तथा भूतात्मा समस्त प्राणियोंके आत्मा हैं, आपको नमस्कार है ॥ 158 - 162 ॥

आप निर्गुण-सत्व, रज, तमस्-तीनों गुणोंसे परे, गुणज्ञ- तीनों गुणोंके रहस्यके ज्ञाता, व्याकृत रूपान्तरित, अमृत — अमृतस्वरूप, निरुपाख्य-अदृश्य, मित्र-जीवोंके हितैषी और योगात्मा— योगस्वरूप हैं, आपको प्रणाम है। आप पृथिवी — मृत्युलोक, अन्तरिक्ष-अन्तरिक्षलोक, मह महलोंक, त्रिदिव्य स्वर्गलोक, जन- जनलोक, तपः- तपोलोक, सत्य सत्यलोक हैं, इस प्रकार लोकात्मा-सातों लोकस्वरूप आपको अभिवादन है। आप अव्यक्त-निराकाररूप, महान्— पूज्य, भूतादि- समस्त प्राणियोंके आदिभूत, इन्द्रिय-इन्द्रियस्वरूप, आत्मज्ञ- आत्मतत्त्वके ज्ञाता, विशेष-सर्वाधिक और सर्वात्मा सम्पूर्ण जी आत्मस्वरूप हैं, आपको नमस्कार है। आप नित्य सनातन, आत्मलिङ्ग-स्वप्रमाणस्वरूप, सूक्ष्म–अणुसे भी अणु, इतर- महान्से भी महान्, शुद्ध-शुद्धज्ञानसम्पन | विभु-सर्वव्यापक और मोक्षात्मा मोक्षरूप हैं, आपको प्रणाम है। यहाँ तीनों लोकोंमें आपके लिये मेरा नमस्कार है तथा इनके अतिरिक्त (अन्य) तीन परलोकोंमें भी मैं आपको प्रणाम करता हूँ। इसी प्रकार महलकसे लेकर सत्यलोकपर्यन्त चारों लोकोंमें मैं आपको अभिवादन करता हूँ। ब्राह्मणवत्सल विभो। इस स्तोत्रमें मेरे द्वारा जो कुछ उचित-अनुचित कहा गया, उसे 'यह मेरा भक्त है ऐसा जानकर आप क्षमा कर दें । ll 163-168 ll

सूतजी कहते हैं-ऋषियो! तदनन्तर शुक्राचार्य देवाधिदेव नीललोहित भगवान् शंकरसे इस प्रकार प्रार्थना करके हाथ जोड़कर उनके चरणोंमें लोट गये और पुनः विनम्र होकर उनके समक्ष चुपचाप खड़े हो गये। तब शिवजीने हर्षपूर्वक अपने हाथसे शुक्राचार्यके शरीरको सहलाते हुए उन्हें यथेष्ट दर्शन दिया और वे वहीं अन्तर्हित हो गये। उन देवेश्वरके अन्तर्हित हो जानेपर शुक्राचार्य अपने पार्श्व | भागमें खड़ी हुई सेविका जयन्तीको देखकर उससे इसप्रकार बोले— 'सुभगे! तुम कौन हो अथवा किसकी पुत्री हो, जो मेरे तपस्यामें निरत होनेपर तुम भी कष्ट झेल रही हो ? इस प्रकार यह घोर तप करती हुई तुम किसलिये मेरी सेवा कर रही हो? सुश्रोणि मैं तुम्हारी इस उत्कृष्ट भक्ति, विनम्रता, इन्द्रियनिग्रह और प्रेमसे परम प्रसन्न हूँ। वरवर्णिनि! तुम मुझसे क्या प्राप्त करना चाहती हो? वरारोहे! तुम्हारी क्या अभिलाषा है? उसे तुम अवश्य बतलाओ मैं आज उसे अवश्य पूर्ण करूँगा, चाहे वह कितना ही दुष्कर क्यों न हो ' ॥169 - 174 ll

शुक्राचार्य यों कहनेपर जयन्तीने उनसे कहा 'ब्रह्मन् ! आप अपने तपोबलसे मेरे मनोरथको भली भाँति जान सकते हैं; क्योंकि आपको तो सबका यथार्थ ज्ञान है ऐसा कहे जानेपर शुक्राचार्यने अपनी दिव्य दृष्टिद्वारा जयन्तीके मनोरथको जानकर उससे कहा 'सुन्दर भावोंवाली सुश्रोणि! इन्दीवर कमलके सदृश तुम्हारा वर्ण श्याम है, देवि! तुम्हारे नेत्र अत्यन्त रमणीय हैं तथा तुम्हारा भाषण अतिशय मधुर है। वराहें। तुम दस वर्षोंतक मेरे साथ रहनेका जो मुझसे वर चाह रही हो, वह वैसा ही हो। मत्तकाशिनि! आओ, अब हमलोग अपने घर चलें।' तब अपने घर आकर शुक्राचार्यने जयन्तीका पाणिग्रहण किया। फिर तपोबलसम्पत्र शुक्राचार्यने मायाका आवरण डाल दिया, जिससे सभी प्राणियोंसे अदृश्य होकर वे दस वर्षोंतक जयन्तीके साथ निवास करते रहे। इसी बीच जब दितिके पुत्रोंको यह ज्ञात हुआ कि शुक्राचार्य सफलमनोरथ होकर घर लौट आये हैं, तब वे सभी हर्षपूर्वक उन्हें देखनेकी अभिलाषासे उनके घरकी ओर चल पड़े। वहाँ पहुँचनेपर जब उन्हें मायासे छिपे हुए गुरुदेव शुक्राचार्य नहीं दीख पड़े तब वे उनके उस लक्षणको समझकर जैसे आये थे, वैसे ही वापस चले गये ॥ 175- 181 ॥

इधर बृहस्पतिको जब यह ज्ञात हुआ कि शुक्राचार्य जयन्तीकी हित-कामनासे उसे संतुष्ट करनेके लिये दस वर्षोंतक वरदानके बन्धन से बँध चुके हैं, तब इसे दैत्योंका महान् छिद्र जानकर इन्द्रकी प्रेरणा उन्होंने शुक्राचार्यका रूप धरणकर असुरों को बुलाया। उन्हें आया देखकर (धारी) बृहस्पतिने उनसे कहा- 'मेरे यजमानो तुम्हारा स्वागत है। मैं तुमलोगोंके कल्याणके लिये तपोवनसे लौट आया हूँ।वहाँ मुझे जो विद्याएँ प्राप्त हुई हैं, उन्हें मैं तुमलोगोंको पढ़ाऊँगा।' यह सुनकर वे सभी प्रसन्नमनसे विद्या प्रातिके लिये वहाँ एकत्र हो गये। उधर जब वह दस वर्षका निश्चित समय पूर्ण हो गया, तब शुक्राचार्यने अपने यजमानोंकी खोज-खबर लेनेका विचार किया। इसी समयकी समाप्तिपर ( जयन्तीके गर्भसे) देवयानी उत्पन्न हुई थी- ऐसा सुना जाता है (तब वे जयन्तीसे बोले) 'पावन मुसकानवाली देवि! तुम्हारे नेत्र तो विभ्रान्त-से एवं बड़े हैं तथा तुम्हारी दृष्टि चञ्चल है, साध्वि ! अब मैं तुम्हारे यजमानोंकी देखभाल करनेके लिये जा रहा हूँ।' यों कहे जानेपर जयन्तीने शुक्राचार्यसे कहा- 'महाव्रत! आप अपने भक्तोंका अवश्य भला कीजिये क्योंकि यही सत्पुरुयोंका धर्म है। ब्रह्मन् मैं आपके धर्मका लोप नहीं करना चाहती 182 - 188 तदनन्तर असुरोंके निकट पहुँचकर शुक्राचार्यने जब यह देखा कि बुद्धिमान् देवाचार्य बृहस्पतिने मेरा रूप धारणकर असुरोंको ठग लिया है, तब वे असुरोंसे बोले-'दानवो तुमलोग ध्यानपूर्वक सुन लो अपनी तपस्याद्वारा भगवान् शंकरको प्रसन्न करनेवाला शुक्राचार्य मैं हूँ। मुझे हो तुमलोग अपना गुरुदेव शुक्राचार्य समझो। बृहस्पतिद्वारा तुम सब लोग ठग लिये गये हो।' शुक्राचार्यको वैसा कहते हुए सुनकर उस समय वे सभी अत्यन्त भ्रममें पड़ गये और आश्चर्यचकित हो वहाँ बैठे हुए उन दोनोंकी ओर निहारते ही रह गये। वे किंकर्तव्यविमूढ़ हो गये थे। उस समय उनकी समझमें कुछ भी नहीं आ रहा था। इस प्रकार उनके किंकर्तव्यविमूढ़ हो जानेपर शुक्राचार्यने उन असुरोंसे कहा- 'अमुरो ! तुमलोगों का आचार्य शुक्राचार्य में हूँ और ये देवताओंके आचार्य बृहस्पति हैं। इसलिये तुमलोग इन बृहस्पतिका त्याग कर दो और मेरा अनुगमन करो।' शुक्राचार्यके यों समझानेपर अरण उन दोनों की ओर ध्यानपूर्वक निहारने लगे, परंतु जब उन्हें उन दोनोंमें कोई विशेषता नहीं प्रतीत दुई तिर्यपूर्वक उनसे बोले 'दैत्यो! तुमलोगोंका गुरु शुक्राचार्य मैं हूँ और मेरा रूप धारण करनेवाले ये बृहस्पति हैं। असुरो ! ये मेरा रूप धारणकर तुमलोगोंको मोहमें डाल रहे हैं' ॥ 189 - 1953 ॥

बृहस्पतिकी बात सुनकर वे सभी एकत्र हो इस प्रकार बोले- 'ये सामर्थ्यशाली ब्राह्मणदेवता हमारे अन्तःकरणमें स्फुरित होते हुए दस वर्षोंसे लगातार | हमलोगोंको शिक्षा दे रहे हैं, अतः ये ही हमारे गुरु हैं।''ऐसा कहकर चिरकालके अभ्याससे मोहित हुए उन सभी दानवोंने बृहस्पतिको प्रणाम करके उनका अभिनन्दन किया और उन्हींके वचनोंको अङ्गीकार किया। तत्पश्चात् क्रोधसे आँखें लाल करके उन सभी असुरोंने शुक्राचार्यसे कहा— 'ये ही हमलोगोंके हितैषी गुरुदेव हैं, आप हमारे गुरु नहीं हैं, | अतः आप यहाँसे चले जाइये। ये चाहे शुक्राचार्य हों अथवा बृहस्पति ही क्यों न हों, ये ही हमारे ऐश्वर्यशाली गुरुदेव हैं। हमलोग इन्हींकी आज्ञामें स्थित हैं। अतः आपके लिये यही अच्छा होगा कि आप यहाँसे शीघ्र चले जाइये, विलम्ब मत कीजिये।' ऐसा कहकर सभी असुर बृहस्पतिके निकट चले | आये। इधर जब असुरोंने शुक्राचार्यद्वारा कहे गये महान् हितकारक वचनोंपर कुछ ध्यान नहीं दिया, तब उनके उस गर्वसे शुक्राचार्य कुपित हो उठे (और शाप देते हुए बोले ) 'दानवो! चूँकि मेरे समझानेपर भी तुमलोगोंने मेरी बात नहीं मानी है, इसलिये (भावी संग्राममें) तुम्हारी चेतना नष्ट हो जायगी और तुमलोग पराभवको प्राप्त करोगे।' इस प्रकार असुरोंको शाप देकर शुक्राचार्य जैसे आये थे, वैसे ही लौट गये । 196- 203 ॥ इधर जब बृहस्पतिको यह ज्ञात हुआ कि शुक्राचार्यने असुरोंको शाप दे दिया, तब वे प्रसन्नतासे खिल उठे; क्योंकि उनका प्रयोजन सिद्ध हो चुका था। तत्पश्चात् वे तुरंत अपने वास्तविक बृहस्पतिरूपमें प्रकट हो गये और अपने बुद्धिबलसे असुरोंको मरा हुआ जानकर सफलमनोरथ हो अन्तर्हित हो गये। बृहस्पतिके आँखोंसे ओझल हो जानेपर दानवगण विशेषरूपसे भ्रममें पड़ गये और परस्पर यों कहने लगे 'अहो! हमलोग तो विशेषरूपसे ठग लिये गये। बृहस्पतिने हमलोगोंको आगे और पीछे अर्थात् प्रत्यक्ष और परोक्ष दोनों ओरसे व्यथित कर दिया। उन्होंने अपनी मायाद्वारा सहायकसहित हमलोगोंको अपनी-अपनी वस्तुओंसे वञ्चित कर दिया।' इस प्रकार असंतुष्ट हुए वे सभी दानव प्रह्लादको आगे कर पुनः उन्हीं शुक्राचार्यका अनुगमन करनेके लिये तुरंत प्रस्थित हुए और शुक्राचार्यके निकट पहुँचकर नीचे मुख किये हुए उन्हें घेरकर खड़े हो गये। तब अपने यजमानोंको पुनः आया देखकर शुक्राचार्यने उनसे कहा- 'दानवो! चूँकि मेरे द्वारा भलीभाँति समझाये जानेपर भी तुम सब लोगोंने मेरा अभिनन्दन नहीं किया, इसलिये मेरे प्रति किये हुए उस अपमानके कारण तुमलोग पराभवको प्राप्त हुए हो।' शुक्राचार्यके यों कहनेपर प्रह्लादकी आँखों में आँसू उमड़ आये। तब वे गद्गद वाणीद्वारा उनसे प्रार्थना करते हुए बोले- 'भृगुनन्दन ! आप हमलोगोंका परित्याग न करें। भार्गव हमलोग आपके आश्रित,सेवक और भक्त हैं, इसलिये आप हमें अपनाइये। | आपके अदृष्ट हो जाने पर देवाचार्य बृहस्पतिने हमलोगोंको मोहमें डाल दिया था। आप अपनी दीर्घकालिक तपस्याद्वारा अर्जित दिव्यदृष्टिद्वारा स्वयं अपने भक्तोंको जान सकते हैं। भृगुनन्दन। यदि आप हमलोगोंपर कृपा नहीं करेंगे और हमलोगोंका अनिष्ट चिन्तन ही करते रहेंगे तो हमलोग आज ही रसातलमें प्रवेश कर जायेंगे' ॥ 204 - 212 ॥

इस प्रकार अनुनय-विनय किये जानेपर शुक्राचार्यने दिव्यदृष्टिद्वारा यथार्थ तत्त्वको समझ लिया, तब उनके हृदयमें करुणा एवं अनुकम्पा उमड़ आयी और वे उमड़े हुए क्रोधको रोककर उन असुरोंसे इस प्रकार बोले— 'प्रह्लाद न तो तुमलोग डरो और न रसातलको ही जाओ यों तो जो अवश्यम्भावी इष्ट-अनिष्ट कार्य हैं, वे तो मेरे जागरूक रहनेपर भी तुमलोगोंको प्राप्त होंगे ही उन्हें अन्यथा नहीं किया जा सकता; क्योंकि दैवका विधान सबसे बलवान् होता है। मेरे शापानुसार तुमलोगों की जो चेतना नष्ट हो गयी हैं, उसे तो तुमलोग आज ही प्राप्त कर लोगे। साथ ही विपरीत समय आनेपर तुमलोगोंको देवताओंपर विजय पा लेनेपर भी एक बार पातालमें जाना पड़ेगा; क्योंकि ब्रह्माने पहले ही ऐसा बतलाया है। मेरी ही कृपासे तुमलोगोंने देवताओंके मस्तकपर पैर रखकर समूचे दस युगपर्यन्त त्रिलोकीके ऊर्जस्वी राज्यका उपभोग किया है। इतने ही दिनोंतकाने तुमलोगोंका राज्यकाल बतलाया था। सावर्णि मन्वन्तरमें पुनः तुमलोगोंका राज्य होगा। उस समय तुम्हारा पौत्र बलि त्रिलोकीका अधीश्वर होगा। ऐसा स्वयं भगवान् विष्णुने वाणीद्वारा त्रिलोकीके अपहरण कर लेनेपर तुम्हारे पौत्रसे परस्पर वार्तालापके प्रसङ्गमें कहा था। वे सारी बातें अब उसके लिये घटित होंगी। चूँकि इसकी प्रवृत्तियाँ दस वर्षोंतक उत्तम बनी रहीं, इसलिये इसके व्यवहारसे प्रसन्न | होकर स्वयम्भूने तुम्हें यह राज्य प्रदान किया है। देवराज्य पर बलि अधिष्ठित होगा- ऐसा मुझसे भगवान् शंकरने भी कहा था। इसी कारण वह कालकी प्रतीक्षा करता हुआ जीवोंके नेत्रोंकि अगोचर होकर अवस्थित है। उस समय प्रसन्न हुए स्वयम्भूने तुम्हें एक दूसरा वरदान भी दिया था, इसलिये तुम असुरोंसहित निरुत्सुक रहकर कालकी प्रतीक्षा करो। विभो। यद्यपि मैं भविष्यकी सारी बातें जानता हूँ तथापि मैं पहले ही तुमसे उन घटनाओंका वर्णन नहीं कर सकता;क्योंकि ब्रह्माजीने मुझे मना कर दिया है। मेरे ये दोनों शिष्य (शण्ड और अमर्क), जो बृहस्पतिके समान प्रभावशाली हैं, देवताओंके साथ ही उत्पन्न हुए तुम सब लोगोंकी रक्षा करेंगे' ॥ 213- 224 ॥

सरलतापूर्वक कार्यको सम्पन्न करनेवाले शुक्राचार्यके द्वारा इस प्रकार कहे जानेपर असुरगण उन महात्मा प्रह्लादके साथ प्रसन्नतापूर्वक अपने-अपने वासस्थानको चले गये। | उस समय उनके मनमें शुक्राचार्यद्वारा कथित यह विचार कि 'अवश्यम्भावी कार्य तो होगा ही' गूँज रहा था। कुछ दिन व्यतीत होनेपर उन्होंने सोचा कि शुक्राचार्यके कथनानुसार | एक बार विजय तो होगी ही, अतः सभी असुरोंने विजयकी आशासे अपना-अपना कवच धारण कर लिया और शस्त्रास्त्रसे लैस हो देवताओंके निकट जाकर उन्हें ललकारा। देवताओंने जब यह देखा कि असुरगण सेनासहित रणभूमिमें आ डटे हैं, तब देवगण भी संगठित एवं युद्ध सामग्रीसे सुसज्जित हो असुरोके साथ युद्ध करने लगे। वह देवासुर संग्राम सौ वर्षोंतक चलता रहा। उसमें असुरोंने देवताओंको | पराजित किया। तब देवताओंने परस्पर मन्त्रणा करके यह निक्षय किया कि जब हमलोग यह निमित्तसे उन दोनों (शण्ड और अमर्क) को अपने यहाँ बुलायेंगे तभी असुरोंपर विजय पा सकेंगे। ऐसा परामर्श करके देवताओंने उन शण्ड और अमर्क—दोनोंको आमन्त्रित किया और अपने यज्ञमें बुलाकर उनसे कहा- 'द्विजवरो! आपलोग असुरोंका पक्ष छोड़ दें। हमलोग आप दोनोंके सहयोग से | दानवोंको पराजित कर आपकी सेवा करेंगे।' इस प्रकार जब देवताओंके तथा शण्ड-अमर्क- दोनों दैत्याचार्योंके बीच संधि हो गयी, तब रणभूमिमें देवताओंको विजय प्राप्त हुई और दानवगण पराजित हो गये; क्योंकि शण्ड-अमर्कद्वारा परित्याग कर दिये जानेपर दानववृन्द बलहीन हो गये थे। | इस प्रकार पूर्वकालमें शुक्राचार्यद्वारा दिये गये शापके कारण उस समय दैत्यगण मारे गये। अवशिष्ट दैत्यगण शुक्राचार्यके शापसे अभिभूत होनेके कारण जब सब ओरसे निराधार हो गये, साथ ही देवताओंने उन्हें खदेड़ना आरम्भ किया, तब ये विवश होकर रसातलमें प्रविष्ट हो गये। इस प्रकार देवगण दानवोंको बड़ी कठिनाईसे उद्यमहोन अर्थात् युद्धविमुख कर पाये। तभीसे शुक्राचार्यके नैमित्तिक शापके कारण धर्मका विशेषरूपसे ह्रास हो जानेपर धर्मकी पुनः स्थापनाऔर असुरोका विनाश करने के लिये भगवान् विष्णु वारंवार अवतीर्ण होते रहे ।। 225 - 235 ॥ पूर्वकालमें सामर्थ्यशाली ब्रह्माने प्रसङ्गवश ऐसा कहा था कि जो असुर प्रह्लादकी आज्ञाके वशीभूत नहीं रहेंगे, वे सभी मनुष्योंके हाथों मारे जायेंगे। चाक्षुष मन्वन्तरमें धर्मके अंशसे साक्षात् भगवान् नारायणका अवतार हुआ था। अपने प्रादुर्भावके पश्चात् वैवस्वत मन्वन्तरमें उन्होंने एक यज्ञानुष्ठान प्रवर्तित किया था उस यज्ञके पुरोहित ब्रह्मा थे। चौथे तामस मन्वन्तरमें देवताओंके विपत्तिग्रस्त हो जानेपर हिरण्यकशिपुका वध करनेके लिये समुद्रतटपर नृसिंहका अवतार हुआ था। इस द्वितीय नृसिंहावतारमें रुद्र पुरोहित पदपर आसीन थे। सातवें वैवस्वत मन्वन्तरके त्रेतायुगमें, जब त्रिलोकीपर बलिका अधिकार था, उस समय तीसरा वामन अवतार हुआ था (उस कार्यकालमें धर्म पुरोहितका पद सँभाल रहे थे।) द्विजवरो! भगवान् विष्णुकी ये तीन दिव्य उत्पत्तियाँ बतलायी गयी हैं। अब अन्य सात सम्भूतियाँ, जो भृगुके शापवश मानव-योनिमँ हुई हैं, उन्हें सुनिये। प्रथम त्रेतायुगमें, जब धर्मका चतुर्थांश नष्ट हो गया था, भगवान् मार्कण्डेयको पुरोहित बनाकर दत्तात्रेयके रूपमें अवतीर्ण हुए थे। पंद्रहवें त्रेतायुगमें चक्रवर्ती मान्धाताके रूपमें पाँचवाँ अवतार हुआ था। उस समय पुरोहितका पद महर्षि तथ्य (उत्तण्य) को मिला था। उन्नीसवें त्रेतायुगमें छठा अवतार जमदग्रिनन्दन महाबली परशुरामके रूपमें हुआ था, जो सम्पूर्ण क्षत्रिय वंशके संहारक थे। उस समय महर्षि विश्वामित्र आदि सहायक बने थे। चौबीसवें त्रेतायुगमें सातवें अवतारके रूपमें रावणका वध करनेके लिये भगवान् श्रीराम महाराज दशरथके पुत्ररूपमें उत्पन्न हुए थे। उस समय महर्षि वसिष्ठ पुरोहित थे। अट्ठाईसवें द्वापरयुगमें आठवें अवतारमें भगवान् विष्णु महर्षि पराशरसे वेदव्यासके रूपमें अवतीर्ण हुए। उस समय जातूकर्ण्य पुरोहित पदको सुशोभित किया ।। 236 - 246 ।।

धर्मकी विशेषरूपसे स्थापना और असुरोंका विनाश करनेके निमित्त नवें अवतारमें बुद्ध अवतीर्ण हुए। सुन्दर (सौन्दरानन्दके नायक) उनके सहचर रूपवाले थे। उनके नेत्र कमल सरीखे थे। उनके पुरोहित महर्षि द्वैपायन थे। इसी युगकी समाप्तिके समय, जब संध्यामात्र अवशिष्ट रह जायगी, विष्णुयशाके पुत्ररूपमें कल्किका अवतार होगा। इसी भावी दसवें अवतार में पराशर-पुत्र व्यास और याज्ञवल्क्य पुरोहितका कार्यभार सँभालेंगे। उस समय भगवान् कल्कि आयुधधारी सैकड़ों एवं सहस्रों विप्रोंको साथ लेकर चारों ओरसेधर्मविमुख जीवों, पाखण्डों और शुद्रवंशी राजाओंका सर्वथा विनाश कर डालेंगे; क्योंकि ब्रह्मद्वेषी शत्रुओंका संहार करनेके हेतु ही कल्कि अवतार होता है। इस अट्ठाईसवें युगमें भगवान् कल्कि सेनासहित सफलमनोरथ हो विराजमान रहेंगे। उस समय वे बलशाली भगवान् उन धर्महीन शूद्रोंका समूल विनाश करके अपने राज्यचक्रका विस्तार करते हुए | पापियोंका संहार कर डालेंगे। तदुपरान्त कल्कि अपना कार्य पूरा करके सेनासहित विश्राम लाभ करेंगे। उस समय सारी प्रजाएँ उनके प्रभावसे समृद्धिशालिनी होकर उनकी सेवामें लग जायँगी। तत्पश्चात् भावी कार्यसे प्रेरित हुई प्रजाएँ मोहित होकर अकस्मात् एक-दूसरेपर कुपित हो जायँगी और परस्पर लड़कर एक-दूसरेको मार डालेंगी। उस समय कार्यकाल समाप्त हो जानेपर भगवान् कल्कि भी अन्तर्हित हो जायेंगे ॥ 247 - 254 ॥

इस प्रकार प्रजाओंके संगठनसे राजाओंके नष्ट हो जानेपर जब कोई रक्षक नहीं रह जायगा, तब प्रजाएँ युद्धभूमिमें एक-दूसरेको मार डालेंगी । यों परस्पर मार पीट कर वे आक्रन्दनरहित एवं अत्यन्त दुःखित हो जायँगी। फिर तो वे परिवारहीन होकर समानरूपसे ग्रामों एवं नगरोंको छोड़कर वनकी राह लेंगी। उनके वर्ण धर्म तथा आश्रम- धर्म नष्ट हो जायेंगे। कलियुगकी समाप्तिके समय देशवासी अन्न बेचने लगेंगे, चौराहोंपर शिवकी मूर्तियाँ बिकने लगेंगी और स्त्रियाँ अपने शीलका विक्रय करेंगी अर्थात् वेश्या कर्ममें प्रवृत्त हो जायँगी। लोगोंके कद छोटे होंगे। उनकी आयु स्वल्प होगी। वे वनमें तथा नदीतट और पर्वतोंपर निवास करेंगे। कन्द मूल, पत्तियाँ और फल ही उनके भोजन होंगे। वल्कल, पशुचर्म और मृगचर्म ही उनके वस्त्र होंगे। वे सभी भयंकर वर्णसंकरत्वके आश्रित हो जायँगे। तरह-तरहके उपद्रवोंसे दुःखी रहेंगे। उनकी धन-सम्पत्ति घट जायगी और वे अनेकों बाधाओंसे घिरे रहेंगे। इस प्रकार कष्टका अनुभव करती हुई वे सारी प्रजाएँ उस संध्यांशके समय कलियुगके साथ ही नष्ट हो जायेंगी इस कलियुगके व्यतीत हो जानेपर कृतयुगका प्रारम्भ होगा। इस प्रकार मैंने पूर्णरूपसे देवताओं और असुरोंकी चेष्टाका तथा यदुवंशके वर्णन-प्रसङ्गमें संक्षेपरूपसे भगवान् विष्णु (श्रीकृष्ण ) - के | यशका वर्णन कर दिया। अब मैं तुर्वसु, पूर, दुधु और अनुके वंशका क्रमशः वर्णन करूँगा ।। 255 - 263 ॥

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मत्स्य पुराण
Index


  1. [अध्याय 1]मङ्गलाचरण, शौनक आदि मुनियोंका सूतजीसे पुराणविषयक प्रश्न, सूतद्वारा मत्स्यपुराणका वर्णनारम्भ, भगवान् विष्णुका मत्स्यरूपसे सूर्यनन्दन मनुको मोहित करना, तत्पश्चात् उन्हें आगामी प्रलयकालकी सूचना देना
  2. [अध्याय 2]मनुका मत्स्यभगवान्से युगान्तविषयक प्रश्न, मत्स्यका प्रलयके स्वरूपका वर्णन करके अन्तर्धान हो जाना, प्रलयकाल उपस्थित होनेपर मनुका जीवोंको नौकापर चढ़ाकर उसे महामत्स्यके सींगमें शेषनागकी रस्सीसे बाँधना एवं उनसे सृष्टि आदिके विषयमें विविध प्रश्न करना और मत्स्यभगवान्‌का उत्तर देना
  3. [अध्याय 3]मनुका मत्स्यभगवान् से ब्रह्माके चतुर्मुख होने तथा लोकोंकी सृष्टि करनेके विषयमें प्रश्न एवं मत्स्य भगवानद्वारा उत्तररूपमें ब्रह्मासे वेद, सरस्वती, पाँचवें मुख और मनु आदिकी उत्पत्तिका कथन
  4. [अध्याय 4]पुत्रीकी और बार-बार अवलोकन करनेसे ब्रह्मा दोषी क्यों नहीं हुए- एतद्विषयक मनुका प्रश्न, मत्स्यभगवान्का उत्तर तथा इसी प्रसङ्गमें आदिसृष्टिका वर्णन
  5. [अध्याय 5]दक्षकन्याओं की उत्पत्ति, कुमार कार्त्तिकेयका जन्म तथा दक्षकन्याओं द्वारा देवयोनियोंका प्रादुर्भाव
  6. [अध्याय 6]कश्यप-वंशका विस्तृत वर्णन
  7. [अध्याय 7]मरुतोंकी उत्पत्तिके प्रसङ्गमें दितिकी तपस्या, मदनद्वादशी व्रतका वर्णन, कश्यपद्वारा दितिको वरदान, गर्भिणी स्त्रियोंके लिये नियम तथा मरुतोंकी उत्पत्ति
  8. [अध्याय 8]प्रत्येक सर्गके अधिपतियोंका अभिषेचन तथा पृथुका राज्याभिषेक
  9. [अध्याय 9]मन्वन्तरोंके चौदह देवताओं और सप्तर्षियोंका विवरण
  10. [अध्याय 10]महाराज पृथुका चरित्र और पृथ्वी दोहनका वृत्तान्त
  11. [अध्याय 11]सूर्यवंश और चन्द्रवंशका वर्णन तथा इलाका वृत्तान्त
  12. [अध्याय 12]इलाका वृत्तान्त तथा इक्ष्वाकु वंशका वर्णन
  13. [अध्याय 13]पितृ-वंश-वर्णन तथा सतीके वृत्तान्त-प्रसङ्गमें देवीके एक सौ आठ नामोंका विवरण
  14. [अध्याय 14]अच्छोदाका पितृलोकसे पतन तथा उसकी प्रार्थनापर पितरोंद्वारा उसका पुनरुद्धार
  15. [अध्याय 15]पितृवंशका वर्णन, पीवरीका वृत्तान्त तथा श्रद्ध-विधिका कथन
  16. [अध्याय 16]श्राद्धोंके विविध भेद, उनके करनेका समय तथा श्राद्धमें निमन्त्रित करनेयोग्य ब्राह्मणके लक्षण
  17. [अध्याय 17]साधारण एवं आभ्युदयिक श्राद्धकी विधिका विवरण
  18. [अध्याय 18]एकोदिए और सपिण्डीकरण श्राद्धकी विधि
  19. [अध्याय 19]श्राद्धों में पितरोंके लिये प्रदान किये गये हव्य-कव्यकी प्राप्तिका विवरण
  20. [अध्याय 20]महर्षि कौशिकके पुत्रोंका वृत्तान्त तथा पिपीलिकाकी कथा
  21. [अध्याय 21]ब्रह्मदत्तका वृत्तान्त तथा चार चक्रवाकोंकी गतिका वर्णन
  22. [अध्याय 22]श्राद्धके योग्य समय, स्थान (तीर्थ) तथा कुछ विशेष नियमोंका वर्णन
  23. [अध्याय 23]चन्द्रमाकी उत्पत्ति, उनका दक्ष प्रजापतिकी कन्याओंके साथ विवाह, चन्द्रमाद्वारा राजसूय यज्ञका अनुष्ठान, उनकी तारापर आसक्ति, उनका भगवान् शङ्करके साथ युद्ध तथा ब्रह्माजीका बीच-बचाव करके युद्ध शान्त करना'
  24. [अध्याय 24]ताराके गर्भसे बुधकी उत्पत्ति, पुरूरवाका जन्म, पुरूरवा और उर्वशीकी कथा, नहुष-पुत्रोंके वर्णन-प्रसङ्गमें ययातिका वृत्तान्त
  25. [अध्याय 25]कचका शिष्यभावसे शुक्राचार्य और देवयानीकी सेवामें संलग्न होना और अनेक कष्ट सहनेके पश्चात्मृतसंजीविनी विद्या प्राप्त करना
  26. [अध्याय 26]देवयानीका कचसे पाणिग्रहणके लिये अनुरोध, कचकी अस्वीकृति तथा दोनोंका एक-दूसरेको शाप देना
  27. [अध्याय 27]देवयानी और शर्मिष्ठाका कलह, शर्मिष्ठाद्वारा कुऍमें गिरायी गयी देवयानीको ययातिका निकालना और देवयानीका शुक्राचार्यके साथ वार्तालाप
  28. [अध्याय 28]शुक्राचार्यद्वारा देवयानीको समझाना और देवयानीका असंतोष
  29. [अध्याय 29]शुक्राचार्यका नृपपको फटकारना तथा उसे छोड़कर जानेके लिये उद्यत होना और वृषपवकि आदेशसे शर्मिष्ठाका देवयानीकी दासी बनकर शुक्राचार्य तथा देवयानीको संतुष्ट करना
  30. [अध्याय 30]सखियोंसहित देवयानी और शर्मिष्ठाका वनविहार, राजा ययातिका आगमन, देवयानीके साथ बातचीत तथा विवाह
  31. [अध्याय 31]ययातिसे देवयानीको पुत्रप्राप्ति, ययाति और शर्मिष्ठाका एकान्त मिलन और उनसे एक पुत्रका जन्म
  32. [अध्याय 32]देवयानी और शर्मिष्ठाका संवाद, ययातिसे शर्मिष्ठाके पुत्र होनेकी बात जानकर देवयानीका रूठना और अपने पिताके पास जाना तथा शुक्राचार्यका ययातिको बूढ़े होनेका शाप देना
  33. [अध्याय 33]ययातिका अपने यदु आदि पुत्रोंसे अपनी युवावस्था देकर वृद्धावस्था लेनेके लिये आग्रह और उनके अस्वीकार करनेपर उन्हें शाप देना, फिर पूरुको जरावस्था देकर उसकी युवावस्था लेना तथा उसे वर प्रदान करना
  34. [अध्याय 34]राजा ययातिका विषय सेवन और वैराग्य तथा पूरुका राज्याभिषेक करके वनमें जाना
  35. [अध्याय 35]वनमें राजा ययातिकी तपस्या और उन्हें स्वर्गलोककी प्राप्ति
  36. [अध्याय 36]इन्द्रके पूछनेपर ययातिका अपने पुत्र पुरुको दिये हुए उपदेशकी चर्चा करना
  37. [अध्याय 37]ययातिका स्वर्गसे पतन और अष्टकका उनसे प्रश्न करना
  38. [अध्याय 38]ययाति और अष्टकका संवाद
  39. [अध्याय 39]अष्टक और ययातिका संवाद
  40. [अध्याय 40]ययाति और अष्टकका आश्रमधर्मसम्बन्धी संवाद
  41. [अध्याय 41]अष्टक-ययाति-संवाद और ययातिद्वारा दूसरोंके दिये हुए पुण्यदानको अस्वीकार करना
  42. [अध्याय 42]राजा ययातिका वसुमान् और शिबिके प्रतिग्रहको अस्वीकार करना तथा अष्टक आदि चारों राजाओंके साथ स्वर्गमें जाना
  43. [अध्याय 43]ययाति-वंश-वर्णन, यदुवंशका वृत्तान्त तथा कार्तवीर्य अर्जुनकी कथा
  44. [अध्याय 44]कार्तवीर्यका आदित्यके तेजसे सम्पन्न होकर वृक्षोंको जलाना, महर्षि आपवद्वारा कार्तवीर्यको शाप और क्रोष्टुके वंशका वर्णन
  45. [अध्याय 45]वृष्णिवंशके वर्णन-प्रसङ्गमें स्यमन्तक मणिकी कथा
  46. [अध्याय 46]वृष्णिवंशका वर्णन
  47. [अध्याय 47]श्रीकृष्ण चरित्रका वर्णन, दैत्योंका इतिहास तथा देवासुर संग्रामके प्रसङ्गमें विभिन्न अवान्तर कथाएँ
  48. [अध्याय 48]तुर्वसु और झुके वंशका वर्णन, अनुके वंश-वर्णनमें बलिकी कथा और कर्णकी उत्पत्तिका प्रसङ्ग
  49. [अध्याय 49]पूरु- वंशके वर्णन-प्रसङ्गमें भरत वंशकी कथा, भरद्वाजकी उत्पत्ति और उनके वंशका कथन, नीप - वंशका वर्णन तथा पौरवोंका इतिहास
  50. [अध्याय 50]पुरुवंशी नरेशोंका विस्तृत इतिहास
  51. [अध्याय 51]अग्नि- वंशका वर्णन तथा उनके भेदोपभेदका कथन
  52. [अध्याय 52]कर्मयोगकी महत्ता
  53. [अध्याय 53]पुराणोंकी नामावलि और उनका संक्षिप्त परिचय
  54. [अध्याय 54]नक्षत्र-पुरुष-व्रतकी विधि और उसका माहात्म्य
  55. [अध्याय 55]आदित्यशयन-व्रतकी विधि और उसका माहात्म्य
  56. [अध्याय 56]श्रीकृष्णाष्टमी व्रतकी विधि और उसका माहात्म्य
  57. [अध्याय 57]रोहिणीचन्द्रशयन-व्रतकी विधि और उसका माहात्म्य
  58. [अध्याय 58]तालाब, बगीचा, कुआं,बावली,पुष्करिणी तथा देव मन्दिर की प्रतिष्ठ आदिका विधान
  59. [अध्याय 59]वृक्ष लगानेकी विधि
  60. [अध्याय 60]सौभाग्यशयन-व्रत तथा जगद्धात्री सतीकी आराधना
  61. [अध्याय 61]अगस्त्य और वसिष्ठकी दिव्य उत्पत्ति, उर्वशी अप्सराका प्राकट्य और अगस्त्य के लिये अयं-प्रदान करनेकी विधि एवं माहात्म्य
  62. [अध्याय 62]अनन्ततृतीया - व्रतकी विधि और उसका माहात्म्य
  63. [अध्याय 63]रसकल्याणिनी व्रतकी विधि और उसका माहात्म्य
  64. [अध्याय 64]आर्द्रानन्दकरी तृतीया - व्रतकी विधि और उसका माहात्म्य
  65. [अध्याय 65]अक्षयतृतीया-व्रतकी विधि और उसका माहात्म्य
  66. [अध्याय 66]सारस्वत - व्रतकी विधि और उसका माहात्म्य
  67. [अध्याय 67]सूर्य-चन्द्र-ग्रहणके समय स्नानकी विधि और उसका माहात्म्य
  68. [अध्याय 68]सप्तमीस्त्रपन-व्रतकी विधि और उसका माहात्म्य
  69. [अध्याय 69]भीमद्वादशी व्रतका विधान
  70. [अध्याय 70]पण्यस्त्री व्रतकी विधि और उसका माहात्म्य
  71. [अध्याय 71]अशून्यशयन (द्वितीया ) - व्रतकी विधि और उसका माहात्म्य
  72. [अध्याय 72]अङ्गारक- व्रतकी विधि और उसका माहात्म्य
  73. [अध्याय 73]शुक्र और गुरुकी पूजा-विधि
  74. [अध्याय 74]कल्याणसप्तमी-व्रतकी विधि और उसका माहात्म्य
  75. [अध्याय 75]विशोकसप्तमी-व्रतकी विधि और उसका माहात्म्य
  76. [अध्याय 76]फलसप्तमी-व्रतकी विधि और उसका माहात्म्य
  77. [अध्याय 77]शर्करासप्तमी - व्रतकी विधि और उसका माहात्म्य
  78. [अध्याय 78]कमलसप्तमी - व्रतकी विधि और उसका माहात्म्य
  79. [अध्याय 79]मन्दारसप्तमी-व्रतकी विधि और उसका माहात्म्य
  80. [अध्याय 80]शुभ सप्तमी - व्रतकी विधि और उसका माहात्म्य
  81. [अध्याय 81]विशोकद्वादशी व्रतकी विधि
  82. [अध्याय 82]गुड-धेनु के दान की विधि और उसकी महिमा
  83. [अध्याय 83]पर्वतदानके दस भेद, धान्यशैलके दानकी विधि और उसका माहात्म्य
  84. [अध्याय 84]लवणाचलके दानकी विधि और उसका माहात्म्य
  85. [अध्याय 85]गुडपर्वतके दानकी विधि और उसका माहात्म्य
  86. [अध्याय 86]सुवर्णाचलके दानकी विधि और उसका माहात्म्य
  87. [अध्याय 87]तिलशैलके दानकी विधि और उसका माहात्म्य
  88. [अध्याय 88]कार्पासाचलके दानकी विधि और उसका माहात्म्य
  89. [अध्याय 89]घृताचलके दानकी विधि और उसका माहात्म्य
  90. [अध्याय 90]रत्नाचलके दानकी विधि और उसका माहात्म्य
  91. [अध्याय 91]रजताचलके दानकी विधि और उसका माहात्म्य
  92. [अध्याय 92]शर्कराशैलके दानकी विधि और उसका माहात्म्य तथा राजा धर्ममूर्तिके वृत्तान्त-प्रसङ्गमें लवणाचलदानका महत्त्व
  93. [अध्याय 93]शान्तिक एवं पौष्टिक कर्मों तथा नवग्रह शान्तिकी विधिका वर्णन *
  94. [अध्याय 94]नवग्रहोंके स्वरूपका वर्णन
  95. [अध्याय 95]माहेश्वर-व्रतकी विधि और उसका माहात्म्य
  96. [अध्याय 96]सर्वफलत्याग- व्रतका विधान और उसका माहात्म्य
  97. [अध्याय 97]आदित्यवार-कल्पका विधान और माहात्म्य
  98. [अध्याय 98]संक्रान्ति व्रतके उद्यापनकी विधि
  99. [अध्याय 99]विभूतिद्वादशी व्रतकी विधि और उसका माहात्म्य
  100. [अध्याय 100]विभूतिद्वादशी* के प्रसङ्गमें राजा पुष्पवाहनका वृत्तान्त
  101. [अध्याय 101]साठ व्रतोंका विधान और माहात्म्य
  102. [अध्याय 102]स्नान और तर्पणकी विधि
  103. [अध्याय 103]युधिष्ठिरकी चिन्ता, उनकी महर्षि मार्कण्डेयसे भेंट और महर्षिद्वारा प्रयाग-माहात्म्यका उपक्रम
  104. [अध्याय 104]प्रयाग-माहात्म्य-प्रसङ्गमें प्रयाग क्षेत्रके विविध तीर्थस्थानोंका वर्णन
  105. [अध्याय 105]प्रयागमें मरनेवालोंकी गति और गो-दानका महत्त्व
  106. [अध्याय 106]प्रयाग माहात्म्य वर्णन-प्रसङ्गमें वहांके विविध तीर्थोंका वर्णन
  107. [अध्याय 107]प्रयाग स्थित विविध तीर्थोका वर्णन
  108. [अध्याय 108]प्रयागमें अनशन-व्रत तथा एक मासतकके निवास ( कल्पवास) का महत्त्व
  109. [अध्याय 109]अन्य तीर्थोकी अपेक्षा प्रयागकी महत्ताका वर्णन
  110. [अध्याय 110]जगत्के समस्त पवित्र तीर्थोंका प्रयागमें निवास
  111. [अध्याय 111]प्रयाग में ब्रह्मा, विष्णु और शिवके निवासका वर्णन
  112. [अध्याय 112]भगवान् वासुदेवद्वारा प्रयागके माहात्म्यका वर्णन
  113. [अध्याय 113]भूगोलका विस्तृत वर्णन
  114. [अध्याय 114]भारतवर्ष, किम्पुरुषवर्ष तथा हरिवर्षका वर्णन
  115. [अध्याय 115]राजा पुरूरवाके पूर्वजन्मका वृत्तान्त
  116. [अध्याय 116]ऐरावती नदीका वर्णन
  117. [अध्याय 117]हिमालयकी अद्भुत छटाका वर्णन
  118. [अध्याय 118]हिमालयकी अनोखी शोभा तथा अत्रि - आश्रमका वर्णन
  119. [अध्याय 119]आश्रमस्थ विवरमें पुरूरवा * का प्रवेश, आश्रमकी शोभाका वर्णन तथा पुरूरवाकी तपस्या
  120. [अध्याय 120]राजा पुरूरवाकी तपस्या, गन्धवों और अप्सराओंकी क्रीडा, महर्षि अत्रिका आगमन तथा राजाको वरप्राप्त
  121. [अध्याय 121]कैलास पर्वतका वर्णन, गङ्गाकी सात धाराओंका वृत्तान्त तथा जम्बूद्वीपका विवरण
  122. [अध्याय 122]शाकद्वीप, कुशद्वीप, क्रौञ्चद्वीप और शाल्मलद्वीपका वर्णन
  123. [अध्याय 123]गोमेदकद्वीप और पुष्करद्वीपका वर्णन
  124. [अध्याय 124]सूर्य और चन्द्रमाको गतिका वर्णन
  125. [अध्याय 125]सूर्यकी गति और उनके रथका वर्णन
  126. [अध्याय 126]सूर्य रथ पर प्रत्येक मासमें भिन्न-भिन्न देवताओंका अधिरोहण तथा चन्द्रमाकी विचित्र गति
  127. [अध्याय 127]ग्रहोंके रथका वर्णन और ध्रुवकी प्रशंसा
  128. [अध्याय 128]देव-गृहों तथा सूर्य-चन्द्रमाकी गतिका वर्णन
  129. [अध्याय 129]त्रिपुर- निर्माणका वर्णन
  130. [अध्याय 130]दानवश्रेष्ठ मयद्वारा त्रिपुरकी रचना
  131. [अध्याय 131]त्रिपुरमें दैत्योंका सुखपूर्वक निवास, मयका स्वप्न-दर्शन और दैत्योंका अत्याचार
  132. [अध्याय 132]त्रिपुरवासी दैत्योंका अत्याचार, देवताओंका ब्रह्माकी शरणमें जाना और ब्रह्मासहित शिवजीके पास जाकर उनकी स्तुति करना
  133. [अध्याय 133]त्रिपुर- विध्वंसार्थ शिवजीके विचित्र रथका निर्माण और देवताओंके साथ उनका युद्धके लिये प्रस्थान
  134. [अध्याय 134]देवताओं सहित शङ्करजीका त्रिपुरपर आक्रमण, त्रिपुरमें देवर्षि नारदका आगमन तथा युद्धार्थ असुरोंकी तैयारी
  135. [अध्याय 135]शङ्करजीकी आज्ञा इन्द्रका त्रिपुरपर आक्रमण, दोनों सेनाओंमें भीषण संग्राम, विद्युन्मालीका वध, देवताओंकी विजय और दानवोंका युद्ध विमुख होकर त्रिपुरमें प्रवेश
  136. [अध्याय 136]मयका चिन्तित होकर अद्भुत बावलीका निर्माण करना, नन्दिकेश्वर और तारकासुरका भीषण युद्ध तथा प्रमथगणोंकी मारसे विमुख होकर दानवोंका त्रिपुर-प्रवेश
  137. [अध्याय 137]वापी शोषणसे मयको चिन्ता, मय आदि दानवोंका त्रिपुरसहित समुद्रमें प्रवेश तथा शंकरजीका इन्द्रको युद्ध करनेका आदेश
  138. [अध्याय 138]देवताओं और दानवोंमें घमासान युद्ध तथा तारकासुरका वध
  139. [अध्याय 139]दानवराज मयका दानवोंको समझा-बुझाकर त्रिपुरकी रक्षामें नियुक्त करना तथा त्रिपुरकौमुदीका वर्णन
  140. [अध्याय 140]देवताओं और दानवोंका भीषण संग्राम, नन्दीश्वरद्वारा विद्युन्मालीका वध, मयका पलायन तथा शङ्करजीकी त्रिपुरपर विजय
  141. [अध्याय 141]पुरूरवाका सूर्य-चन्द्रके साथ समागम और पितृतर्पण, पर्वसंधिका वर्णन तथा श्राद्धभोजी पितरोंका निरूपण
  142. [अध्याय 142]युगोंकी काल-गणना तथा त्रेतायुगका वर्णन
  143. [अध्याय 143]यज्ञकी प्रवृत्ति तथा विधिका वर्णन
  144. [अध्याय 144]द्वापर और कलियुगकी प्रवृत्ति तथा उनके स्वभावका वर्णन, राजा प्रमतिका वृत्तान्त तथा पुनः कृतयुगके प्रारम्भका वर्णन
  145. [अध्याय 145]युगानुसार प्राणियोंको शरीर स्थिति एवं वर्ण-व्यवस्थाका वर्णन, श्रौतस्मार्त, धर्म, तप, यज्ञ, क्षमा, शम, दया आदि गुणोंका लक्षण, चातुर्होत्र की विधि तथा पाँच प्रकारके ऋषियोंका वर्णन
  146. [अध्याय 146]वज्राङ्गकी उत्पत्ति, उसके द्वारा इन्द्रका बन्धन, ब्रह्मा और कश्यपद्वारा समझाये जानेपर इन्द्रको बन्धनमुक्त करना, वज्राङ्गका विवाह, तप तथा ब्रह्माद्वारा वरदान
  147. [अध्याय 147]ब्रह्माके वरदानसे तारकासुरकी उत्पत्ति और उसका राज्याभिषेक
  148. [अध्याय 148]तारकासुरकी तपस्या और ब्रह्माद्वारा उसे वरदानप्राप्ति, देवासुर संग्रामकी तैयारी तथा दोनों दलोंकी सेनाओंका वर्णन
  149. [अध्याय 149]देवासुर संग्रामका प्रारम्भ
  150. [अध्याय 150]देवताओं और असुरोंकी सेनाओंमें अपनी-अपनी जोड़ीके साथ घमासान युद्ध, देवताओंके विकल होनेपर भगवान् विष्णुका युद्धभूमिमें आगमन और कालनेमिको परास्त कर उसे जीवित छोड़ देना
  151. [अध्याय 151]भगवान् विष्णुपर दानवोंका सामूहिक आक्रमण, भगवान् विष्णुका अद्भुत युद्ध-कौशल और उनके द्वारा दानव सेनापति ग्रसनकी मृत्यु
  152. [अध्याय 152]भगवान् विष्णुका मधन आदि दैत्योंके साथ भीषण संग्राम और अन्तमें घायल होकर युद्धसे पलायन
  153. [अध्याय 153]भगवान् विष्णु और इन्द्रका परस्पर उत्साहवर्धक वार्तालाप, देवताओंद्वारा पुनः सैन्ध-संगठन, इन्द्रका असुरोंके साथ भीषण युद्ध, गजासुर और जम्भासुरकी मृत्यु तारकासुरका घोर संग्राम और उसके द्वारा भगवान् विष्णुसहित देवताओंका बंदी बनाया जाना
  154. [अध्याय 154]तारकके आदेश से देवताओंकी बन्धन-मुक्ति, देवताओंका ब्रह्माके पास जाना और अपनी विपत्तिगाथा सुनाना, ब्रह्माद्वारा तारक-वधके उपायका वर्णन, रात्रिदेवीका प्रसङ्ग, उनका पार्वतीरूपमें जन्म, काम दहन और रतिकी प्रार्थना, पार्वतीकी तपस्या, शिवपार्वती विवाह तथा पार्वतीका वीरकको पुत्ररूपमें स्वीकार करना *
  155. [अध्याय 155]भगवान् शिवद्वारा पार्वतीके वर्णपर आक्षेप, पार्वतीका वीरकको अन्तःपुरका रक्षक नियुक्त कर पुनः तपश्चर्याके लिये प्रस्थान
  156. [अध्याय 156]कुसुमामोदिनी और पार्वतीकी गुप्त मन्त्रणा, पार्वतीका तपस्यायें निरत होना आदि दैत्यका पार्वतीरूपमें शंकरके पास जाना और मृत्युको प्राप्त होना तथा पार्वतीद्वारा वीरकको शाप
  157. [अध्याय 157]पार्वतीद्वारा वीरकको शाप, ब्रह्माका पार्वती तथा एकानंशाको वरदान, एकानंशाका विन्ध्याचलके लिये प्रस्थान, पार्वतीका भवनद्वारपर पहुँचना और वीरकद्वारा रोका जाना
  158. [अध्याय 158]वीरकद्वारा पार्वतीकी स्तुति, पार्वती और शंकरका पुनः समागम, अग्निको शाप, कृत्तिकाओंकी प्रतिज्ञा और स्कन्दकी उत्पत्ति
  159. [अध्याय 159]स्कन्दकी उत्पत्ति, उनका नामकरण, उनसे देवताओंकी प्रार्थना और उनके द्वारा देवताओंको आश्वासन, तारकके पास देवदूतद्वारा संदेश भेजा जाना और सिद्धोंद्वारा कुमारकी स्तुति
  160. [अध्याय 160]तारकासुर और कुमारका भीषण युद्ध तथा कुमारद्वारा तारकका वध
  161. [अध्याय 161]हिरण्यकशिपुकी तपस्या, ब्रह्माद्वारा उसे वरप्राप्ति, हिरण्यकशिपुका अत्याचार, विष्णुद्वारा देवताओंको अभयदान, भगवान् विष्णुका नृसिंहरूप धारण करके हिरण्यकशिपुकी विचित्र सभायें प्रवेश
  162. [अध्याय 162]प्रह्लादद्वारा भगवान् नरसिंहका स्वरूप वर्णन तथा नरसिंह और दानवोंका भीषण युद्ध
  163. [अध्याय 163]नरसिंह और हिरण्यकशिपुका भीषण युद्ध, दैत्योंको उत्पातदर्शन, हिरण्यकशिपुका अत्याचार, नरसिंहद्वारा हिरण्यकशिपुका वध तथा ब्रह्मद्वारा नरसिंहकी स्तुति
  164. [अध्याय 164]पद्मोद्भवके प्रसङ्गमें मनुद्वारा भगवान् विष्णुसे सृष्टिसम्बन्धी विविध प्रश्न और भगवान्‌का उत्तर
  165. [अध्याय 165]चारों युगोंकी व्यवस्थाका वर्णन
  166. [अध्याय 166]महाप्रलयका वर्णन
  167. [अध्याय 167]भगवान् विष्णुका एकार्णवके जलमें शयन, मार्कण्डेयको आश्चर्य तथा भगवान् विष्णु और मार्कण्डेयका संवाद
  168. [अध्याय 168]पञ्चमहाभूतों का प्राकट्य तथा नारायणकी नाभिसे कमलकी उत्पत्ति
  169. [अध्याय 169]नाभिकमलसे ब्रह्माका प्रादुर्भाव तथा उस कमलका साङ्गोपाङ्ग वर्णन
  170. [अध्याय 170]मधु-कैटभकी उत्पत्ति, उनका ब्रह्माके साथ वार्तालाप और भगवानद्वारा बध
  171. [अध्याय 171]ब्रह्माके मानस पुत्रोंकी उत्पत्ति, दक्षकी बारह कन्याओंका वृत्तान्त, ब्रह्माद्वारा सृष्टिका विकास तथा विविध
  172. [अध्याय 172]तारकामय-संग्रामकी भूमिका एवं भगवान् विष्णुका महासमुद्रके रूपमें वर्णन, तारकादि असुरोंके अत्याचारसे दुःखी होकर देवताओंकी भगवान् विष्णुसे प्रार्थना और भगवान्का उन्हें आश्वासन
  173. [अध्याय 173]दैत्यों और दानवोंकी युद्धार्थ तैयारी
  174. [अध्याय 174]देवताओंका युद्धार्थ अभियान
  175. [अध्याय 175]देवताओं और दानवोंका घमासान युद्ध, मयकी तामसी माया, और्वाग्निकी उत्पत्ति और महर्षि द्वारा हिरण्यकशिपुको उसकी प्राप्ति
  176. [अध्याय 176]चन्द्रमाकी सहायतासे वरुणद्वारा और्वाग्नि- मायाका प्रशमन, मयद्वारा शैली-मायाका प्राकट्य, भगवान् विष्णुके आदेश से अग्नि और वायुद्वारा उस मायाका निवारण तथा कालनेमिका रणभूमिमें आगमन
  177. [अध्याय 177]देवताओं और दैत्योंकी सेनाओंकी अद्भुत मुठभेड़, कालनेमिका भीषण पराक्रम और उसकी देवसेनापर विजय
  178. [अध्याय 178]कालनेमि और भगवान् विष्णुका रोषपूर्वक वार्तालाप और भीषण युद्ध, विष्णुके चक्रके द्वारा कालनेमिका वध और देवताओंको पुनः निज पदकी प्राप्ति
  179. [अध्याय 179]शिवजीके साथ अन्धकासुरका युद्ध, शिवजीद्वारा मातृकाओंकी सृष्टि, शिवजीके हाथों अन्धककी मृत्यु और उसे गणेशत्वकी प्राप्ति, मातृकाओंकी विध्वंसलीला तथा विष्णुनिर्मित देवियोंद्वारा उनका अवरोध
  180. [अध्याय 180]वाराणसी माहात्म्यके प्रसङ्गमें हरिकेश यक्षकी तपस्या, अविमुक्तकी शोभा और उसका माहात्म्य तथा हरिकेशको शिवजीद्वारा वरप्राप्ति
  181. [अध्याय 181]अविमुक्तक्षेत्र (वाराणसी) का माहात्म्य
  182. [अध्याय 182]अविमुक्त-माहात्म्य
  183. [अध्याय 183]अविमुक्तमाहात्म्यके प्रसङ्गमें शिव-पार्वतीका प्रश्नोत्तर
  184. [अध्याय 184]काशीकी महिमाका वर्णन
  185. [अध्याय 185]वाराणसी माहात्य
  186. [अध्याय 186]नर्मदा माहात्म्यका उपक्रम
  187. [अध्याय 187]नर्मदामाहात्यके प्रसङ्गमें पुनः त्रिपुराख्यान
  188. [अध्याय 188]त्रिपुर- दाहका वृत्तान्त
  189. [अध्याय 189]नर्मदा-कावेरी संगमका माहात्म्य
  190. [अध्याय 190]नर्मदाके तटवर्ती तीर्थ
  191. [अध्याय 191]नर्मदाके तटवर्ती तीर्थोंका माहात्म्य
  192. [अध्याय 192]शुक्लतीर्थका माहाल्य
  193. [अध्याय 193]नर्मदामाहात्म्य-प्रसङ्गमें कपिलादि विविध तीर्थोंका माहात्म्य, भृगुतीर्थका माहात्स्य, भृगुमुनिको तपस्या, शिव-पार्वतीका उनके समक्ष प्रकट होना, भृगुद्वारा उनकी स्तुति और शिवजीद्वारा भृगुको वर प्रदान
  194. [अध्याय 194]नर्मदातटवर्ती तीर्थोका माहात्म्य
  195. [अध्याय 195]गोत्रप्रवर-निरूपण-प्रसङ्गमें भृगुवंशकी परम्पराका विवरण
  196. [अध्याय 196]प्रवरानुकीर्तनमें महर्षि अङ्गिराके वंशका वर्णन
  197. [अध्याय 197]महर्षि अत्रिके वंशका वर्णन
  198. [अध्याय 198]प्रवरानुकौर्तन में महर्षिं विश्चामित्र के वंशका वर्णन
  199. [अध्याय 199]गोत्रप्रवर-कीर्तनमें महर्षि कश्यपके वंशका वर्णन
  200. [अध्याय 200]गोत्रप्रवर-कीर्तनमें महर्षि वसिष्ठकी शाखाका कथन
  201. [अध्याय 201]प्रवरानुकीर्तन महर्षि पराशरके वंशका वर्णन
  202. [अध्याय 202]गोत्रप्रवरकीर्तनमें महर्षि अगस्त्य, पुलह, पुलस्त्य और क्रतुकी शाखाओंका वर्णन
  203. [अध्याय 203]प्रवरकीर्तनमें धर्मके वंशका वर्णन
  204. [अध्याय 204]श्राद्धकल्प – पितृगाथा-कीर्तन
  205. [अध्याय 205]धेनु-दान-विधि
  206. [अध्याय 206]कृष्णमृगचर्मके दानकी विधि और उसका माहाय्य
  207. [अध्याय 207]उत्सर्ग किये जानेवाले वृषके लक्षण, वृषोत्सर्गका विधान और उसका महत्त्व
  208. [अध्याय 208]सावित्री और सत्यवान्‌का चरित्र
  209. [अध्याय 209]सत्यवान्का सावित्रीको वनकी शोभा दिखाना
  210. [अध्याय 210]यमराजका सत्यवान के प्राणको बाँधना तथा सावित्री और यमराजका वार्तालाप
  211. [अध्याय 211]सावित्रीको यमराजसे द्वितीय वरदानकी प्राप्ति
  212. [अध्याय 212]यमराज - सावित्री-संवाद तथा यमराजद्वारा सावित्रीको तृतीय वरदानकी प्राप्ति
  213. [अध्याय 213]सावित्रीकी विजय और सत्यवान्की बन्धन मुक्ति
  214. [अध्याय 214]सत्यवान्‌को जीवनलाभ तथा पत्नीसहित राजाको नेत्रज्योति एवं राज्यकी प्राप्ति
  215. [अध्याय 215]राजाका कर्तव्य, राजकर्मचारियोंके लक्षण तथा राजधर्मका निरूपण
  216. [अध्याय 216]राजकर्मचारियोंके धर्मका वर्णन
  217. [अध्याय 217]दुर्ग-निर्माणकी विधि तथा राजाद्वारा दुर्गमें संग्रहणीय उपकरणोंका विवरण
  218. [अध्याय 218]दुर्गमें संग्राह्य ओषधियोंका वर्णन
  219. [अध्याय 219]विषयुक्त पदार्थोके लक्षण एवं उससे राजाके बचने के उपाय
  220. [अध्याय 220]राजधर्म एवं सामान्य नीतिका वर्णन
  221. [अध्याय 221]दैव और पुरुषार्थका वर्णन
  222. [अध्याय 222]साम-नीतिका वर्णन
  223. [अध्याय 223]नीति चतुष्टयीके अन्तर्गत भेद नीतिका वर्णन
  224. [अध्याय 224]दान-नीतिकी प्रशंसा
  225. [अध्याय 225]दण्डनीतिका वर्णन
  226. [अध्याय 226]सामान्य राजनीतिका निरूपण
  227. [अध्याय 227]दण्डनीतिका निरूपण
  228. [अध्याय 228]अद्भुत शान्तिका वर्णन
  229. [अध्याय 229]उत्पातोंके भेद तथा कतिपय ऋतुस्वभावजन्य शुभदायक अद्भुतोका वर्णन
  230. [अध्याय 230]अद्भुत उत्पातके लक्षण तथा उनकी शान्तिके उपाय
  231. [अध्याय 231]अग्निसम्बन्धी उत्पातके लक्षण तथा उनकी शान्तिके उपाय
  232. [अध्याय 232]वृक्षजन्य उत्पातके लक्षण और उनकी शान्तिके उपाय
  233. [अध्याय 233]वृष्टिजन्य उत्पातके लक्षण और उनकी शान्तिके उपाय
  234. [अध्याय 234]जलाशयजनित विकृतियाँ और उनकी शान्तिके उपाय
  235. [अध्याय 235]प्रसवजनित विकारका वर्णन और उसकी शान्ति
  236. [अध्याय 236]उपस्कर - विकृतिके लक्षण और उनकी शान्ति
  237. [अध्याय 237]पशु-पक्षी सम्बन्धी उत्पात और उनकी शान्ति
  238. [अध्याय 238]राजाकी मृत्यु तथा देशके विनाशसूचक लक्षण और उनकी शान्ति
  239. [अध्याय 239]ग्रहयागका विधान
  240. [अध्याय 240]राजाओंकी विजयार्थ यात्राका विधान
  241. [अध्याय 241]अङ्गस्फुरणके शुभाशुभ फल
  242. [अध्याय 242]शुभाशुभ स्वप्नोंके लक्षण
  243. [अध्याय 243]शुभाशुभ शकुनोंका निरूपण
  244. [अध्याय 244]वामन-प्रादुर्भाव-प्रसङ्गमें श्रीभगवान्द्वारा अदितिको वरदान
  245. [अध्याय 245]बलिद्वारा विष्णुकी निन्दापर प्रह्लादका उन्हें शाप, बलिका अनुनय, ब्रह्माजीद्वारा वामनभगवान्‌का स्तवन, भगवान् वामनका देवताओंको आश्वासन तथा उनका बलिके यज्ञके लिये प्रस्थान
  246. [अध्याय 246]बलि-शुक्र- संवाद, वामनका बलिके यज्ञमें पदार्पण, बलिद्वारा उन्हें तीन डग पृथ्वीका दान, वामनद्वारा बलिका बन्धन और वर प्रदान
  247. [अध्याय 247]अर्जुनके वाराहावतारविषयक प्रश्न करनेपर शौनकजी द्वारा भगवत्स्वरूपका वर्णन
  248. [अध्याय 248]वराहभगवान्का प्रादुर्भाव, हिरण्याक्षद्वारा रसातलमें ले जायी गयी पृथ्वीदेवीद्वारा यज्ञवराहका भगवानद्वारा उनका उद्धारस्तवन और
  249. [अध्याय 249]अमृत-प्राप्तिके लिये समुद्र मन्थनका उपक्रम और वारुणी (मदिरा) का प्रादुर्भाव
  250. [अध्याय 250]अमृतार्थ समुद्र मन्धन करते समय चन्द्रमासे लेकर विपतकका प्रादुर्भाव
  251. [अध्याय 251]अमृतका प्राकट्य, मोहिनीरूपधारी भगवान् विष्णुद्वारा देवताओंका अमृत पान तथा देवासुरसंग्राम
  252. [अध्याय 252]वास्तुके प्रादुर्भावकी कथा
  253. [अध्याय 253]वास्तु चक्रका वर्णन
  254. [अध्याय 254]वास्तुशास्त्र के अन्तर्गत राजप्रासाद आदिकी निर्माण-विधि
  255. [अध्याय 255]वास्तुविषयक वेधका विवरण
  256. [अध्याय 256]वास्तुप्रकरणमें गृह निर्माणविधि
  257. [अध्याय 257]गृहनिर्माण (वास्तुकार्य ) में ग्राह्य काष्ठ
  258. [अध्याय 258]देव-प्रतिमाका प्रमाण-निरूपण
  259. [अध्याय 259]प्रतिमाओंके लक्षण, मान, आकार आदिका कथन
  260. [अध्याय 260]विविध देवताओंकी प्रतिमाओंका वर्णन
  261. [अध्याय 261]सूर्यादि विभिन्न देवताओंकी प्रतिमाके स्वरूप, प्रतिष्ठा और पूजा आदिकी विधि
  262. [अध्याय 262]पीठिकाओंके भेद, लक्षण और फल
  263. [अध्याय 263]शिवलिङ्गके निर्माणकी विधि
  264. [अध्याय 264]प्रतिमा-प्रतिष्ठा के प्रसङ्गमें यज्ञाङ्गरूप कुण्डादिके निर्माणकी विधि
  265. [अध्याय 265]प्रतिमाके अधिवासन आदिकी विधि
  266. [अध्याय 266]प्रतिमा प्रतिष्ठाकी विधि
  267. [अध्याय 267]देव (प्रतिमा) - प्रतिष्ठा के अङ्गभूत अभिषेक-स्नानका निरूपण
  268. [अध्याय 268]वास्तु शान्तिकी विधि
  269. [अध्याय 269]प्रासादोंके भेद और उनके निर्माणकी विधि
  270. [अध्याय 270]प्रासाद संलग्न मण्डपोंके नाम, स्वरूप, भेद और उनके निर्माणकी विधि
  271. [अध्याय 271]राजवंशानुकीर्तन *
  272. [अध्याय 272]कलियुगके प्रद्योतवंशी आदि राजाओं का वर्णन
  273. [अध्याय 273]आन्ध्रवंशीय शकवंशीय एवं यवनादि राजाओंका संक्षिप्त ऐतिहासिक विवरण
  274. [अध्याय 274]षोडश दानान्तर्गत तुलादानका वर्णन
  275. [अध्याय 275]हिरण्यगर्भदानकी विधि
  276. [अध्याय 276]ब्रह्माण्डदानकी विधि
  277. [अध्याय 277]कल्पपादप-दान-विधि
  278. [अध्याय 278]गोसहस्त्र दानकी विधि
  279. [अध्याय 279]कामधेनु दानकी विधि
  280. [अध्याय 280]हिरण्याश्व - दानकी विधि
  281. [अध्याय 281]हिरण्याश्वरथ दानकी विधि
  282. [अध्याय 282]हेमहस्तिरथ-दानकी विधि
  283. [अध्याय 283]पञ्चाङ्गल (हल) प्रदानकी विधि
  284. [अध्याय 284]हेमधरा (सुवर्णमयी पृथ्वी) दानकी विधि
  285. [अध्याय 285]विश्वचक्रदानकी विधि
  286. [अध्याय 286]कनककल्पलतादानकी विधि
  287. [अध्याय 287]सप्तसागर दानकी विधि
  288. [अध्याय 288]रत्नधेनुदानकी विधि
  289. [अध्याय 289]महाभूतघट-दानकी विधि
  290. [अध्याय 290]कल्पानुकीर्तन
  291. [अध्याय 291]मत्स्यपुराणकी अनुक्रमणिका