श्रीभगवान्ने कहा- नारद! अब मैं श्रीकृष्णाष्टमी व्रतका वर्णन कर रहा हूँ, जो समस्त पापोंका विध्वंस करनेवाला है। इस व्रतका अनुष्ठान करनेसे मनुष्योंको विशेषरूपसे शान्ति, मुक्ति और विजयकी प्राप्ति होती है। मनुष्यको अगहनमासमें शङ्करकी और पौषमासमें शम्भुकी पूजा करनी चाहिये। माघमासमें देवाधिदेव महेश्वरका, फाल्गुनमासमें महादेवका, चैत्रमासमें स्थाणुका, और उसी प्रकार वैशाखमासमें शिवका पूजन करना उचित है। ज्येष्ठ | मासमें पशुपतिकी और आषाढमासमें उग्रकी अर्चना करे।श्रावणमासमें शर्वकी, भाद्रपदमासमें त्र्यम्बककी, आश्विनमासमें हरकी तथा कार्तिकमासमें ईशानकी पूजा करनी चाहिये। धन-सम्पत्तिसे सम्पन्न व्रतीको चाहिये कि कृष्णपक्षकी सभी अष्टमी तिथियोंमें अपनी शक्तिके अनुसार गौ, पृथ्वी, सुवर्ण और वस्त्रद्वारा शिव-भक्त ब्राह्मणोंकी सम्यक् प्रकारसे पूजा करे। रातमें गोमूत्र, गोघृत, गोदुग्ध, तिल, यव, कुशोदक, गो-शृङ्गोदक, शिरीष (मौलसिरी) का पुष्प, मन्दारपुष्प, बिल्वपत्र और दधि— एकत्र मिश्रित हुए इन पदार्थोंका अथवा केवल पञ्चगव्य (गोदुग्ध, गोघृत, गोदधि, गोमूत्र और गोमय) - का प्राशन करके शङ्करजीकी पूजा करे। महर्षिगण मार्गशीर्षसे प्रारम्भकर कार्तिकतक तथा क्रमशः दो-दो मासोंमें पीपल, बरगद, गूलर, पाकड़, पलाश और छठे जामुनकी दातुनोंको— पूरे वर्षभर इस व्रतमें विशेष उपकारी मानते हैं। (इन वृक्षोंमेंसे एक-एक वृक्षकी दातुन दो-दो मासके क्रमसे करनी चाहिये, अर्थात् दो महीनेतक एक वृक्षकी दातुन करे, पुनः तीसरे चौथे माससे दूसरे वृक्षकी करे।) फिर प्रधान देवताके निमित्त अर्घ्य देना चाहिये तथा काली गौ और काला वस्त्र दान करना चाहिये। व्रतकी समाप्तिके अवसरपर दही, अन्न, वितान (तम्बू, चंदोवा आदि), ध्वज, चँवर, पञ्चरत्त्रसे युक्त जलपूर्ण घड़ा, काली गौ, सुवर्ण, अनेकों प्रकारके रंग-विरंगे वस्त्र आदि ब्राह्मणोंको देनेका विधान है। जो उपर्युक्त वस्तुएँ देनेमें असमर्थ हो, वह अपनी शक्तिके अनुसार एक ही गौका दान करे। दान देनेमें कृपणता नहीं करनी चाहिये। यदि करता है तो वह दोषका भागी होता है। जो मनुष्य इस श्रीकृष्णाष्टमी व्रतका अनुष्ठान करता है, वह इक्कीस सौ कल्पोंतक देवताओं द्वारा | सम्मानित होकर शिवलोकमें पूजित होता है ॥1-11॥