ऋषियोंने पूछा- जी सभी शास्त्रोंमें न्यायपूर्वक धनार्जन, उसकी वृद्धि और रक्षा करना तथा उसे सत्पात्रको दान करना आदि बातें पढ़ी जाती हैं, किंतु मनस्वी बुद्धिमान् धनी पुरुष किस महादानके करनेसे कृतार्थ हो सकता है, आप मुझे इसे विस्तारपूर्वक बताइये ll 1-2॥
सूतजी कहते हैं-ऋषियो। अब इसके बाद मैं आपलोगोंको महादानकी विधि बतला रहा हूँ। जिसे महातेजस्वी विष्णुने भी (विष्णुधर्मोत्तरपुराणके) दान धर्म-प्रकरण में नहीं बतलाया है, उस सर्वश्रेष्ठ महादानका वर्णन में कर रहा हूँ। वह मनुष्योंके सभी पापको नष्ट करनेवाला तथा दुःस्वप्नोंका विनाशक है। उस | दानको पृथ्वीतलपर भगवान् वासुदेवने सोलह प्रकारका बतलाया है। वे सभी पुण्यप्रद, पवित्र, दीर्घ आयु प्रदान करनेवाले, सभी पापोंके विनाशक, मङ्गलकारी तथा ब्रह्मा, विष्णु, महेश आदि देवताओंद्वारा पूजित हैं। उन सभी दानोंमें सबसे प्रथम तुलापुरुषका दान है। तत्पश्चात् (दूसरा) हिरण्यगर्भदान, (तीसरा) ब्रह्माण्डदान, (चौथा) कल्पवृक्षदान, पाँचवाँ एक हजार गो-दान, फिर सुवर्ण-निर्मित कामधेनुका दान, स्वर्णमय अश्वका दान, हिरण्याश्वरथ-दान, हेम-हस्ति रथ-दान, पञ्चलाङ्गलक-दान, धरादान, (बारहवाँ) विश्वचक्र-दान, कल्पलता दान, सप्तसागर दान, रत्नधेनु दान तथा ( सोलहवाँ) महाभूतघट-दान- ये सोलह दान कहे गये हैं । ll 3-10 ll
प्राचीनकालमें इन सभी दानोंको शम्बरासुरके शत्रु भगवान् वासुदेवने किया था। उसके बाद अम्बरीष, भार्गव (परशुराम), कार्तवीर्यार्जुन, प्रह्लाद, पृथु तथा भरत आदि अन्यान्य राजाओंने किया था। चूँकि इस पृथ्वीतलपर इन सब दानोंमें एक-एक दानकी सर्वदा सभी देवता हजारों विघ्नोंसे रक्षा करते हैं; इनमेंसे भूतलपर यदि एकदान भी वासुदेव भगवानको कृपासे विघ्नरहित सम्पन हो जाय तो उसके सत्फलको देवराज इन्द्र भी अन्यथा करनेमें समर्थ नहीं है, इसलिये मनुष्यको भगवान् वासुदेव शंकर और विनायककी आराधना कर तथा विप्रोंका अनुमोदन प्राप्तकर यह महादान यज्ञ करना चाहिये। ऋषिवर्य इसी विषयो मनुके पूछने भगवा उन्हें बताया था, वह मैं आपलोगोंको यथार्थरूपमें बतला रहा हूँ, सुनिये ॥11- 16 ॥
मनुजीने पूछा-अच्युत। इस पृथ्वीतलपर जितने पुनीत मङ्गलदायी, गोपनीय और देनेयोग्य महादान हैं, उन्हें मुझे बतलाइये ll 17 ll
मत्स्यभगवान्ने कहा- राजन्! जिन सोलह गुह्य महादानोंको आजतक मैंने किसीसे नहीं बतलाया था, उन्होंको यथार्थ रूपमै आनुपूर्वी तुम्हें बतला रहा हूँ। इनमें तुलापुरुषका दान सर्वप्रथम कहा गया है। संसार भयसे भीत मनुष्यको अपन-परिवर्तन के समय, वियोग पुण्यदिनों व्यतीपात दिनक्षय तथा युगादि तिथियोंमें सूर्य-चन्द्रके ग्रहणके अवसरपर, मन्वन्तरके प्रारम्भमें, संक्रान्तिके दिन, वैधृतियोगमें, चतुर्दशी, अष्टमी, पूर्णिमा, पर्वके दिन, द्वादशी तथा अष्टका तिथियोंमें, यज्ञ उत्सव अथवा विवाहके अवसरपर, दुःस्वप्नके देखने या किसी अद्भुत उत्पातादिके होनेपर यथेष्ट द्रव्य या ब्राह्मणके मिल जानेपर या जब जहाँ श्रद्धा उत्पन्न हो जाय, किसी तीर्थ, मन्दिर या गोशालामें, कूप, बगीचा या नदीके तटपर, अपने घरपर या पवित्र वनमें अथवा पवित्र तालाब के किनारे इन महादानोंको देना चाहिये। चूँकि यह जीवन अस्थिर है, सम्पत्ति अत्यन्त चञ्चल है, मृत्यु सर्वदा कैश पकड़े खड़ी है, इसलिये धर्माचरण करना चाहिये। किसी पुण्यतिथिके आनेपर विद्वान् पुरुष ब्राह्मणोंद्वारा स्वस्तिवाचन कराकर सोलह हाथोंका या दस अथवा बारह हाथोंको चौकोर मण्डप निर्मित करवाये जिसमें चार सुन्दर प्रवेशद्वार बनवाये जायें। उसके भीतर सात हाथकी वेदी बनाकर मध्यमें पाँच हाथकी एक दूसरीवेदी बनाये। उसके मध्यभागमें बुद्धिमान् पुरुष साल काष्ठकी बनी हुई तोरण लगवाये। विचक्षण पुरुष चारों दिशाओंमें चार कुण्डोंकी रचना करे ।। 18- 27 ॥
उन कुण्डोंको मेखला और योनिसे युक्त बनाना चाहिये। उनके समीप जलसे भरे हुए कलश, बड़े-बड़े आसन, सुन्दर ताँबेके बने हुए दो पात्र, यज्ञके सुन्दर पात्र तथा सुन्दर विष्टर रखना चाहिये। कुण्ड एक हाथ लंबा-चौड़ा हो तथा तिल, घृत, धूप, पुष्प और अन्य उपहारोंसे सुशोभित हो। तदनन्तर पूर्व तथा उत्तर दिशाके कोणमें ग्रहादि तथा देवेश्वरोंके पूजनके लिये एक हाथ विस्तृत वेदी बनायी जाय। वहीं फलों, मालाओं तथा वस्त्रोंद्वारा ब्रह्मा, शिव और विष्णुकी पूजा करनी चाहिये। चारों ओर लोकपालोंके वर्णोंके अनुरूप पताकाएँ तथा मध्य भागमें घंटियोंसे युक्त ध्वज होना चाहिये। चारों द्वारोंपर भी दूधवाले वृक्षोंके बने हुए तोरण सुशोभित हों। प्रधान द्वारपर माला, गन्ध, धूप, वस्त्र एवं रत्नोंसे सुशोभित दो कलश रखे जायँ। तदनन्तर साल, इंगुदी, चन्दन, देवदारु, श्रीपर्णी (गन्भारी), बिल्व, बीजौरा अथवा चम्पक वृक्षके काष्ठके बने हुए दो स्तम्भोंको, जो पाँच हाथ ऊँचे हों, दो हाथ गहरा गड्ढा खोदकर उसमें सुदृढ़ कर दे। उन दोनों स्तम्भोंके बीच चार हाथका अन्तर रहे। फिर उन दोनोंसे मिला उत्तराङ्ग- खम्भेके ऊपरके दो सजातीय काष्ठ लगावे, उसीसे सजातीय काष्ठकी बनी सुवर्णनिर्मित पुरुषसे युक्त तुला मध्यभागमें लटकावे। वह तुला चार हाथ लंबी हो तथा उसकी मोटाई दस अंगुल होनी चाहिये, उसमें लोहेकी बनी हुई जंजीरोंको जोड़े तथा उसे सुवर्णजटित वस्त्र, सुवर्णखचित रत्नमाला तथा विविध प्रकारके पुष्प एवं चन्दनादिसे अलंकृत करना चाहिये। फिर पृथ्वीपर विविध रंगके रजोंसे कमलके मध्यके आकारका चक्र बनावे और उसपर पुष्प बिखेर दे। उसके ऊपर पुष्प और फलोंसे सुशोभित पंचरंगा वितान तनवाये ॥ 28- 353 ॥तदनन्तर वेदवेत्ता, सुन्दर रूप, वेश, वंश और शोलसे युक्त, विधिके ज्ञाता, पटु, अपने अनुकूल, आर्यदेशोत्पन्न द्विजवरोंको ऋत्विजके पदपर नियुक्त करे। गुरु (आचार्य), वेदान्तवेत्ता, आर्यवंशमें समुत्पन्न, शीलवान्, कुलीन, सुन्दर, पुराणों एवं शास्त्रोंमें निरत रहनेवाला, अत्यन्त पटु, सरल एवं गम्भीर वाणी बोलनेवाला, श्वेत वस्त्रधारी, कुण्डल, जंजीर, केयूर तथा कण्ठाभरणसे सुशोभित हो। मण्डपमें पूर्व दिशामें दो ऋग्वेदी ऋत्विजोंको, दक्षिण दिशामें दो यजुर्वेदी अध्वर्यु ब्राह्मणोंको, पश्चिम दिशामें दो सामवेदी उद्गाता ब्राह्मणोंको तथा उत्तर दिशामें दो अथर्ववेदी विद्वानोंको नियुक्त करना चाहिये। विनायक आदि ग्रह, लोकपाल, आठों वसुगण, आदित्यगण, मरुद्गण, ब्रह्मा, विष्णु, शिव, सूर्य एवं वनस्पतियोंके लिये उनके मन्त्रोंद्वारा चार-चार आहुतियाँ देनी चाहिये तथा इनके सूक्तोंका क्रमानुरूप शुद्ध-शुद्ध जप करवाना चाहिये। हवनकी समाप्तिके बाद यजमानसहित आचार्य तुरहीका शब्द करते हुए बलि, पुष्प और धूप लेकर क्रमश: सभी लोकपालोंका उनके मन्त्रोंद्वारा इस प्रकार आवाहन करे। भगवन्! आप देवताओंके स्वामी और वज्र धारण करनेवाले हैं, सभी अमर, सिद्ध और साध्य आपकी स्तुति करते हैं तथा अप्सराओंके समूह आपपर पंखा झलते हैं, आपको नमस्कार है। आप यहाँ आइये, अवश्य आइये, हमारे यज्ञकी रक्षा कीजिये। 'ॐ इन्द्रको नमस्कार है' ऐसा कहकर इन्द्रका आवाहन करना चाहिये। अग्निदेव! आप सभी देवताओंके हव्यवाहक हैं, मुनिवरगण सब ओरसे आपकी सेवा करते हैं, आप अपने तेजस्वी लोकगणोंके साथ वहाँ आयें, अवश्य आयें और मेरे यज्ञकी रक्षा करें, आपको प्रणाम है।'ॐ अग्निको नमस्कार है। ऐसा कहकर अग्निका आवाहन करना चाहिये। सूर्यपुत्र धर्मराज! आप सभी देवताओं द्वारा पूजित, दिव्य शरीरधारी और शुभ एवं अशुभ तथा आनन्द एवं शोकके अधीश्वर हैं, हमारे कल्याणके लिये हमारे यज्ञकी रक्षा कीजिये। आपको अभिवादन है। 'ॐ यमराजको नमस्कार है।'- ऐसा कहकर यमका आवाहन करना चाहिये ॥ 36-44 ॥
भगवन्! आप लोकोंके अधीश्वर तथा राक्षससमूहके नायक हैं। शुभादिनाथ आप बेतालों और पिशाचोंके विशाल समूहके साथ यहाँ आइये, अवश्य आइये और मेरे यज्ञकी रक्षा कीजिये। आपको प्रणाम है। ॐ निर्ऋतिको नमस्कार है, ऐसा कहकर निर्ऋतिका आवाहन करना चाहिये। भगवन्! विद्याधर और इन्द्र आदि देवता आपका गुणगान करते हैं, आप समस्त जलचरों, समुद्रों, बादलों और अप्सराओंके साथ यहाँ आइये, अवश्य आइये और हमारी रक्षा कीजिये। आपको अभिवादन है। 'ॐ वरुणको नमस्कार है।' | ऐसा कहकर वरुणका आवाहन करना चाहिये। भगवन्! आप कालाग्निके सहायक और प्राणोंके अधीश्वर हैं, आप मृग (हिरन) पर आरूढ़ हो सिद्ध समूहोंके साथ मेरी रक्षा करनेके लिये यज्ञमें पधारिये, अवश्य पधारिये और मेरी पूजा स्वीकार कीजिये। आपको नमस्कार है। ॐ वायुको नमस्कार है। ऐसा कहकर वायुका आवाहन करना चाहिये। यज्ञेश्वर! आप नक्षत्रगणों, सभी ओषधियों तथा पितरोंके साथ यहाँ आइये, अवश्य आइये और मेरे यज्ञकी रक्षा कीजिये। भगवन्! आप मेरी पूजा स्वीकार कीजिये, आपको प्रणाम है। ॐ सोमको नमस्कार है'- ऐसा कहकर सोमका आवाहन करना चाहिये। यज्ञोंके स्वामी विश्वेश्वर आप त्रिशूल, कपाल, खट्वाङ्ग धारण करनेवाले अपने गणोंके साथ हमारे यज्ञमें सिद्धि प्रदान करनेके लिये उपस्थित होइये, अवश्य आइये और लोकेश ! मेरी पूजा ग्रहण कीजिये। भगवन्! आपको अभिवादन है। 'ॐ ईशानको नमस्कार है।'- ऐसा कहकर ईशानका आवाहन करना चाहिये। अनन्त! आप पाताल एवं पृथ्वीको धारण करनेवालोंमें श्रेष्ठ हैं तथा नागाङ्गनाएँ और किंनर आपका गुणगान करते हैं, आप यक्षों, नागेन्द्रों और देवगणोंके साथ यहाँ आइये, अवश्य आइयेऔर हमारे यज्ञकी रक्षा कीजिये। 'ॐ अनन्तको नमस्कार है' ऐसा कहकर अनन्तका आवाहन करना चाहिये। विश्वाधिपति! आप समस्त जगत्के विधाता हैं। मुनीन्द्र आप पितर देवता एवं लोकपालोंके साथ यहाँ आइये, अवश्य आइये अमित प्रभावशाली आप हमारे यज्ञमें प्रविष्ट होइये भगवन्! आपको प्रणाम है। 'ॐ ब्रह्माको नमस्कार है'- ऐसा कहकर ब्रह्माका आवाहन करना चाहिये। त्रिलोकीमें जितने स्थावर-जंगम प्राणी हैं, वे सभी ब्रह्मा, विष्णु और शिव के साथ मेरी रक्षा करें। देवता, दानव, गन्धर्व, यज्ञ, राक्षस, सर्प, ऋषिगण, कामदेव, गौएँ, देव-माताएँ- ये सभी हर्षपूर्वक मेरे यज्ञकी रक्षा करें ॥ 45-533 ॥
इस प्रकार देवताओंका आवाहन कर ऋत्विजोंको सुवर्णका आभूषण, कुण्डल, जंजीर, कङ्कण, पवित्र अँगूठी, | वस्त्र तथा शय्याका दान करना चाहिये। ये भूषण और वस्त्र गुरुके लिये दूना देना चाहिये। उस समय सभी दिशाओंमें जापक शान्तिकाध्यायका जप करते रहें। उन सभी ब्राह्मणोंको वहाँ उपस्थित रहना चाहिये और इस प्रकार अधिवासन कर प्रत्येक कार्यके प्रारम्भ, मध्य तथा अन्तमें स्वस्तिवाचन करना चाहिये। तत्पश्चात् | माङ्गलिक शब्दोंका उच्चारण करते हुए वेदोंद्वारा अभिषिक्त | यजमान श्वेत वस्त्र धारणकर अञ्जलिमें पुष्प ले उस तुलाकी तीन बार प्रदक्षिणा कर उसे इस प्रकार अभिमन्त्रित करे। तुले तुम सभी देवताओंकी शक्तिस्वरूपा हो, तुम्हें नमस्कार है। तुम सत्यकी आश्रयभूता, साक्षिस्वरूपा, जगत्को धारण करनेवाली और विश्वयोनि ब्रह्माद्वारा निर्मित की गयी हो, जगत्को कल्याणकारिणी! तुम्हारी एक तुलापर सभी सत्य हैं, दूसरीपर सौ असत्य हैं। धर्मात्मा और पापियोंके बीच तुम्हारी स्थापना हुई है। तुम भूतलपर सभी जीवोंके लिये प्रमाणरूप बतलायी गयी हो। मुझे तोलती हुई तुम इस संसारसे मेरा उद्धार कर दो, तुम्हें नमस्कार है। देवि! जो ये तत्त्वोंके अधीश्वर पचीसवें पुरुष भगवान् हैं, वे एकमात्र तुम्हींमें अधिष्ठित हैं, इसलिये तुम्हें बारंबार प्रणाम है। तुला पुरुष नामधारी गोविन्द! आपको बारंबार अभिवादन है। हरे! आप इस संसाररूपी पङ्कसे हमारा उद्धार कीजिये। | इस प्रकार बुद्धिमान् पुरुष पुण्यकालमें अधिवासनकर पुनः प्रदक्षिणा कर तुलागर आरोहण करे। उस समय वह खड्ग, ढाल, कवच एवं सभी आभरणोंसे अलंकृत रहे। वह निर्मित सूर्यसहित धर्मराजको बंधी हुई मुट्ठीवाले दोनों हाथोंसे पकड़कर विष्णुके मुखकी ओर ताकता हुआ स्थित रहे ।। 54-66 ॥
तदनन्तर ब्राह्मणों को चाहिये कि ये तुलाकी दूसरी और यजमानकी तोलसे कुछ अधिक अत्यन्त निर्मल स्वर्ण रखें। पुष्टिकामी श्रेष्ठ मनुष्य जबतक स्वर्णकी तुला भूमिपर स्पर्श न कर ले, तबतक स्वर्ण रखे। फिर क्षणमात्र चुप रहकर इस प्रकार निवेदन करे- 'सभी जीवोंकी साक्षीभूता सनातनी देवि तुम पितामह ब्रह्माद्वारा निर्मित हुई हो, तुम्हें नमस्कार है। तुले तुम समस्त स्थावर-जंगमरूप जगत्को धारण करनेवाली हो, सभी जीवोंको आत्मभूत करनेवाली विश्वधारिणि। तुम्हें नमस्कार है। तत्पश्चात् तुलासे उतरकर स्वर्णका आधा भाग पहले गुरुको देना चाहिये एवं बचे हुए आधे भागको हाथमें जल लेकर संकल्पपूर्वक ऋत्विजोंको दे देना चाहिये। फिर गुरुको तथा ऋत्विजोंको इसके अतिरिक्त ग्राम और रत्न भी प्रदान करना चाहिये। पुनः उनकी आज्ञा लेकर अन्य ब्राह्मणोंको भी दान करना चाहिये। विशेषतया दीनों एवं अनाथको भी ब्राह्मणोंके साथ दान देना चाहिये। बुद्धिमान् पुरुष उस तोले गये स्वर्णको अधिक देरतक अपने घरमें न रखे; क्योंकि यदि वह घरमें रह जाता है तो मनुष्योंको भय देनेवाला, शोक और व्याधिको बढ़ानेवाला होता है, उसे शीघ्र ही दूसरेको दे देनेसे मनुष्य श्रेयका भागी हो जाता है। इस प्रकारकी विधिसे जो मनुष्य तुलापुरुषका दान देता है, वह प्रत्येक मन्वन्तरमें प्रत्येक लोकके स्वामित्व पदपर निवास करता है। यह किङ्किणीसमूहोंसे वुड एवं सूर्यके समान तेजस्वी विमानपर चढ़कर अप्सराओंसे सुपूजित हो विष्णुपुरको जाता है और उस लोकमें सौ कोटि कल्पोंतक पूजित होता है। फिर पुण्यकर्मके क्षय होनेपर वह भूतलपर राजराजेश्वर होता है। अनेक राजाओंक मुकुटको मणियोंसे उसका पदपीठ शोभायमान होता है. वह श्रद्धासहित सहस्रों यज्ञोंका अनुष्ठान करता है और | प्रचण्ड प्रतापसे समस्त राजाओंको पराजित करता है।जो मनुष्य इस तुलापुरुषके दानको दिये जाते हुए देखता है, दूसरे अवसरपर उसका स्मरण करता है, लोकमें पढ़कर उसकी विधिको सुनाता है अथवा जो इसकी विधिको सुनता या पढ़ता है, वह भी इन्द्रके समान स्वरूप धारणकर पुरंदर प्रभृति देवगणोंद्वारा सेवित स्वर्गलोकको प्राप्त करता है ।। 67-78 ।।