शौनकजी कहते हैं— नृपश्रेष्ठ ! तदनन्तर दीर्घकालके पश्चात् उत्तम वर्णवाली देवयानी फिर उसी वनमें विहारके लिये गयी। उस समय उसके साथ एक | हजार दासियोंसहित शर्मिष्ठा भी सेवामें उपस्थित थी । वनमें उसी प्रदेशमें जाकर वह उन समस्त सखियोंके साथ अत्यन्त प्रसन्नतापूर्वक इच्छानुसार विचरने लगी। वे सब वहाँ भाँति-भाँतिके खेल खेलती हुई आनन्दमें मग्न हो गयीं। वे कभी वासन्तिक पुष्पोंके मकरन्दका पान करतीं, कभी नाना प्रकारके भोज्य पदार्थोंका स्वाद लेतीं और कभी फल खाती थीं। इसी समय | दैवेच्छासे नहुषपुत्र राजा ययाति पुनः शिकार खेलनेके लियेउसी स्थानपर आ गये। वे परिश्रम करनेके कारण अधिक थक गये थे और जल पीना चाहते थे। उन्होंने देवयानी, शर्मिष्ठा तथा अन्य युवतियों को भी देखा। वे सभी पीनेयोग्य रसका पान कर रही थीं राजाने पवित्र मुसकानवाली देवयानीको वहाँ परम सुन्दर आसनपर बैठी हुई देखा। उसके रूपकी कहीं तुलना नहीं थी। वह सुन्दरी उन स्त्रियोंके मध्यमें बैठी हुई थी और शर्मिष्ठा उसकी चरणसेवा कर रही थी॥ 1-7॥
ययातिने पूछा- दो हजार कुमारी सखियोंसे घिरी हुई कन्याओ ! मैं आप दोनोंके गोत्र और नाम पूछ रहा हूँ। शुभे! आप दोनों अपना परिचय दें ॥ 8 ॥
देवयानी बोली- महाराज! मैं स्वयं परिचय देती हूँ आप मेरी बात सुनें असुरोके जो सुप्रसिद्ध गुरु शुक्राचार्य हैं, मुझे उन्होंकी पुत्री जानिये। यह दानवराज वृषपर्वाकी पुत्री शर्मिष्ठा मेरी सखी और दासी है। मैं विवाह होनेपर जहाँ जाऊँगी, वहाँ यह भी साथ जायगी । ll 9-10 ।।
ययाति बोले—सुन्दरि ! यह असुरराजकी रूपवती कन्या सुन्दर भौंहोंवाली शर्मिष्ठा आपकी सखी और दासी किस प्रकार हुई ? यह बताइये। इसे सुननेके लिये मेरे मनमें बड़ी उत्कण्ठा है ll 11 ll
देवयानी बोली- नरश्रेष्ठ! सब लोग दैवके विधानका ही अनुसरण करते हैं। इसे भी भाग्यका विधान मानकर संतोष कीजिये। इस विषयकी विचित्र घटनाओंको न पूछिये। आपके रूप और वेश राजाके | समान हैं और आप विशुद्ध संस्कृत भाषा बोल रहे हैं। मुझे बताइये, आपका क्या नाम है, आप कहाँसे आये हैं और किसके पुत्र हैं ? ॥ 12-13 ll
ययातिने कहा- मैंने ब्रह्मचर्य पालनपूर्वक सम्पूर्ण वेदका अध्ययन किया है। मैं राजा नहुषका पुत्र हूँ और इस समय स्वयं राजा हूँ। मेरा नाम ययाति है ॥ 14 ॥
देवयानीने कहा- महाराज! आप किस कार्यसे वनके इस प्रदेशमें आये हैं? आप जल अथवा कमल लेना चाहते हैं या शिकारकी इच्छासे ही आये हैं ? ।। 15 ।।
ययातिने कहा- भद्रे ! मैं एक हिसक पशुको मारनेके लिये उसका पीछा कर रहा था, इससे बहुत थक गया हूँ और पानी पीनेके लिये यहाँ आया हूँ, अतः अब | आप मुझे आज्ञा दीजिये ॥ 16 ॥देवयानीने कहा- सखे! आपका कल्याण हो । मैं दो हजार कन्याओं तथा अपनी सेविका शर्मिष्ठाके साथ आपके अधीन होती हूँ। आप मेरे पति हो जायँ ॥ 17 ॥
ययाति बोले- शुक्रनन्दिनी देवयानि! आपका भला हो। भामिनि। मैं आपके योग्य नहीं हूँ। क्षत्रियलोग आपके पितासे कन्यादान लेनेके अधिकारी नहीं हैं ॥ 18 ॥
देवयानीने कहा-नहुपनन्दन ! ब्राह्मणसे क्षत्रिय जाति और क्षत्रियसे ब्राह्मण जाति मिली हुई है। आप राजर्षिके पुत्र हैं और स्वयं भी राजर्षि हैं; अतः आज मुझसे विवाह कीजिये ॥ 19 ययाति बोले- वरानने! एक ही परमेश्वरके शरीरसे चारों वर्णोंकी उत्पत्ति हुई है, परंतु सबके धर्म और शौचाचार अलग-अलग हैं। ब्राह्मण उन सभी वर्णोंमें श्रेष्ठ है ll 20 ll
देवयानीने कहा- नहुषकुमार! नारीके लिये पाणिग्रहण एक धर्म है। पहले किसी भी पुरुषने मेरा हाथ नहीं पकड़ा था। सबसे पहले आपने ही मेरा हाथ पकड़ा था। इसलिये आपका ही मैं पतिरूपमें वरण करती हूँ। मैं मनको वशमें रखनेवाली स्वी हूँ। आप जैसे राजर्षिकुमार अथवा राजर्षिद्वारा पकड़े गये मेरे हाथका स्पर्श अब दूसरा कोई कैसे कर सकता है ? ॥ 21-22 ll
ययाति बोले- देवि विज्ञ पुरुषको चाहिये कि वह ब्राह्मणको क्रोधमें भरे हुए विषधर सर्प अथवा सब ओरसे प्रज्वलित अग्रि भी अधिक दुर्धर्ष एवं भयंकर समझे ॥ 23 ॥
देवयानीने कहा- पुरुषप्रवर! ब्राह्मण विषधर सर्प और सब ओरसे प्रज्वलित होनेवाली अग्रि भी दुर्धर्ष एवं भयंकर है, यह बात आपने कैसे कही ? ॥ 24 ययाति बोले- भद्रे सर्प एकको ही हँसता है. शस्त्रसे भी एक ही व्यक्तिका वध होता है; परंतु क्रोधमें भरा हुआ ब्राह्मण समस्त राष्ट्र और नगरका भी नाश कर सकता है। भीरु! इसीलिये में ब्रह्मणको अधिक दुर्धर्ष मानता हूँ। अतः जबतक आपके पिता आपको मेरे हवाले न कर दें, तबतक मैं आपसे विवाह नहीं करूँगा ।। 25-26 ॥
देवयानीने कहा- राजन्! मैंने आपका वरण कर लिया है, अब आप मेरे पिताके देनेपर ही मुझसे विवाह करें। आप स्वयं तो उनसे याचना करते नहीं हैं, उनके देनेपर ही मुझे स्वीकार करेंगे; अतः आपको उनके कोपका भय नहीं है। (राजन् दो पड़ी ठहर जाइये मैं अभी पिताके पास संदेश भेजती हैं। धाय शीघ्र जाओ और मेरे ब्रह्मतुल्य पिताको यहाँ बुला ले आओ। उनसे यह भी कह देना कि देवयानीने स्वयंवरको विधिसे नहुष | नन्दन राजा ययातिका पतिरूपमें वरण किया है। ) ॥ 27 ॥शौनकजी कहते हैं-राजन्! इस प्रकार देवयानीने तुरन्त धायको भेजकर अपने पिताको संदेश दिया। भावने जाकर शुक्राचार्यसे सब बातें ठीक-ठीक बता दीं सब समाचार सुनते ही शुक्राचार्यने वहाँ आकर राजाको दर्शन दिया। विप्रवर शुक्राचार्यको आया देख राजा ययातिने उन्हें प्रणाम किया और हाथ जोड़कर विनम्रभावसे खड़े हो गये। तब शुक्राचार्यने भी राजाको परम मधुर वाणीसे सान्त्वना प्रदान की ॥ 28-30 ।।
देवयानी बोली- तात! आपको (हाथ जोड़कर) नमस्कार है। ये नहुषपुत्र राजा ययाति हैं। इन्होंने संकटके समय मेरा हाथ पकड़ा था। आप मुझे इन्हींकी सेवामें समर्पित कर दें। मैं इस जगत्में इनके सिवा दूसरे किसी पतिका वरण नहीं करूँगी ॥ 31 ॥
शुक्राचार्यने कहा-वीर नहुपनन्दन! मेरी इस लाड़ली पुत्रीने तुम्हें पतिरूपमें वरण किया है, अतः मेरी दी हुई इस कन्याको तुम अपनी पटरानीके रूपमें ग्रहण करो ।। 32 ।।
ययाति बोले- भार्गव ब्रह्मन् मैं आपसे यह वर माँगता हूँ कि इस विवाहमें यह प्रत्यक्ष दीखनेवाला वर्णसंकरजनित महान् अधर्म मेरा स्पर्श न करे ॥ 33 ॥
शुक्राचार्यने कहा- राजन्! मैं तुम्हें अधर्मसे मुक्त करता हूँ। तुम्हारी जो इच्छा हो, वर माँग लो। विवाहको लेकर तुम प्रशंसाके पात्र बन जाओगे मैं तुम्हारे सारे पापको दूर करता हूँ। तुम सुन्दर मुसकानवाली देवयानीको धर्मपूर्वक अपनी पत्नी बनाओ और इसके साथ रहकर अतुल सुख एवं प्रसन्नता प्राप्त करो। महाराज! वृषपर्वाकी पुत्री यह कुमारी शर्मिष्ठा भी तुम्हें समर्पित है। इसका सदा आदर करना, किंतु इसे अपनी सेजपर कभी न सुलाना ।। 34-36 ॥
(तुम्हारा कल्याण हो। इस शर्मिद्यको एकान्तमें बुलाकर. न तो इससे बात करना और न इसके शरीरका स्पर्श ही करना अब तुम विवाह करके इसे (देवयानीको) अपनी पत्नी बनाओ। इससे तुम्हें इच्छानुसार फलकी प्राप्ति होगी।) शौनकजी कहते हैं—शतानीक! शुक्राचार्यके ऐसा
कहनेपर राजा ययातिने उनकी परिक्रमा की (और | शास्त्रोक्त विधिसे मङ्गलमय विवाह कार्य सम्पन्न किया) । पुनः उन महात्माकी आज्ञा ले नृपश्रेष्ठ ययाति बड़े हर्षके साथ अपनी राजधानीको चले गये ॥ 37 ॥