सत्यवान्ने कहा- विशाल नेत्रोंवाली सावित्री हरी हरी बासोंसे भरे हुए इस वनमें वसन्तमें रतिकी वृद्धि करनेवाले एवं नेत्र तथा नासिकाको सुख प्रदान करनेवाले इस मनोहर आमके वृक्षको देखो। इस वनमें फूलोंसे लदे हुए इस लाल अशोक वृक्षको भी देखकर ऐसा प्रतीत होता है मानो यह वसन्त मेरा ही परिहास कर रहा है। दाहिनी ओर दक्षिण दिशामें जलते हुए अंगारकी-सी कान्तिवाले फूलोंसे लदे हुए किंशुक वृक्षोंसे युक्त इस रमणीय वनस्थलीको देखो सुगन्धित पुष्पोंकी सुगन्ध युक्त वन पतियों निकली हुई वायु उदारतापूर्वक हमलोगोंकी थकावटका नाश कर रही है। विशाललोचने! इधर पश्चिममें फूले हुए करके पुष्पोंसे युक्त स्वर्णिम शोभावाली नोभायमान हो रही है। सुन्दरि ! तिनिसके लतासमूहोंसे वनस्थलीका मार्ग अवरुद्ध हो गया है। पुष्पोंके समूहोंसे विभूषित हुई वह पृथ्वी कितनी मनोहर लग रही है। मधुसे उन्मत्त हुए भ्रमर-समूहोंकी गुञ्जारके व्याजसे मालूम पड़ता है कि कामदेव (हम जैसे) पथिकोंको मारनेके लिये धनुषकी प्रत्यञ्चा खींच रहा है। नाना प्रकारके फलोंके आस्वादनसे उल्लसित मुखवाले कोकिलोंके स्वरसे निनादित एवं सुन्दर तिलक-वृक्षोंसे सुशोभित यह वनस्थली तुम्हारे ही समान शोभा दे रही है। आमकी ऊँची डालोपर बैठी हुई कोकिला मञ्जरीकी धूलसे पीत वर्ण होकर अपने सुरोले शब्दोंसे चेष्टाओंद्वारा कुलीन पुरुषको भाँति अपना परिचय दे रही है। कामी मधुकर वनमें गुनगुनाता हुआ प्रत्येक पुष्पपर पुष्पोंकी धूलिसे धूसरित प्रियतमाका अनुसरण करता हुआ उड़ रहा है॥ 1-10॥वनमें तरुण पुंस्कोकिल अनेक पुष्पोंके रहते हुए भी अपनी प्रियतमाकी चोंचके अग्रभागसे खण्डित हुई आम्र-मारीका स्वाद ले रहा है। कौआ वृक्षके अग्रभागपर बैठकर पंखोंसे बच्चेको छिपाकर बैठी हुई अपनी प्रसूता पत्नीको चोंचके अग्रभागसे आनन्दित कर रहा है। अपनी पत्नीके साथ कामदेवसे अभिभूत हुआ तरुण कपिंजल (तीतर) निचले भूभागपर बैठा हुआ आहार भी नहीं ग्रहण कर रहा है। विशालनेत्रे चटक (गौरैया) अपनी प्रियाकी गोदमें स्थित हो बारम्बार रमण करता हुआ कामीजनोंको उत्कण्ठित कर रहा है। अपनी प्रियाके साथ वृक्षको डालीपर बैठा हुआ यह शुक पंजेसे शाखाको खींचता हुआ उसे फलयुक्त-सा कर रहा है। इस वनमें मांसाहारसे तृप्त युवा सिंह निद्रामें लीन हो सो रहा है। और उसकी प्रियतमा उसके पैरोंके मध्यभागमें शयन कर रही है। पर्वतकी कन्दरामें बैठे हुए व्याघ्र- दम्पत्तिको देखो, जिनके नेत्रोंकी कान्तिसे गुफा भिन्न-सी दिखायी दे रही है। यह गैंडा अपनी प्रियाको जीभके अग्रभागसे बारम्बार चाट रहा है और अपनी उस प्रियाद्वारा चाटे जानेपर आनन्दका अनुभव कर रहा है। वह वानरी अपनी गोदमें सिर रखकर गाढ़ निद्रामें सोते जूक आदि जन्तुओंको निकालकर सुख दे रही है। वह हुए पतिको बिडाल पृथ्वीपर लेटकर पेटको दिखाती हुई अपनी प्रियतमाको नखों और दाँतोंसे काट रहा है, परंतु वास्तवमें वह पीड़ा नहीं दे रहा है ॥ 11-20 ॥
ये खरगोश - दम्पति पीड़ित होकर अपने पैरोंको शरीरमें छिपाकर सो रहे हैं। ये कानोंद्वारा ही जाने जा सकते हैं। सूक्ष्म कामात हाथी कमलयुक्त सरोवरमें स्नान कर कमल डंठलोंके ग्रासोंसे प्रियाको संतुष्ट कर रहा है। पीछे-पीछे चलनेवाले अपने बच्चोंसे घिरी हुई शूकरी प्रियतमके मार्गपर चलती हुई प्रियतमके द्वारा उखाड़े गये मोथोंको खाती जा रही है। इस वनमें दृढ़ अङ्गोला एवं शरीरमें कोचते हुए काम महि | भागती हुई प्रियाके पीछे दौड़ रहा है। सुन्दरि ! अपनी प्रियाके सहित इस मृगको देखो, जो कुतूहलवश मुझे मनोहर कटाक्षोंसे देख रहा है। देखो, वह मृगी स्नेहयुक्त हो अपने सोगोंके अग्रभागसे प्रियतमको ढकेलती हुई पिछले पैरसे मुखको खुजला रही है। अरे, उसश्वेत चमरी गायको देखो, जो चमरके पीछे चली जा रही है। इधर कामार्त्त चमर खड़ा है और गर्वके साथ मेरी ओर देख रहा है । धूपमें बैठे हुए उस नीलगायको देखो, जो अपनी प्रियाके साथ आनन्दपूर्वक जुगाली कर रहा है और ककुदपर बैठे हुए कौवेका निवारण कर रहा है। प्रियाके साथ उस बकरेको देखो, जो वेर वृक्षकी मोटी शाखापर फल खानेकी इच्छासे अगले दोनों पैरोंको रखे हुए है। सरोवरमें विचरण करते हुए हंसिनीसहित उस अत्यन्त निर्मल हंसको देखो, जो सुप्रकाशित चन्द्रबिम्बकी शोभा धारण कर रहा है। सुन्दरि ! चक्रवाक अपनी प्रियाके साथ कमलोंसे सुशोभित सरोवरमें अपनी प्रियाको फूली हुई पद्मिनीके समान कर रहा है। (ऐसा कहकर सत्यवान्ने फिर कहा-) सुन्दर भौंहोंवाली ! मैं फलोंको एकत्र कर चुका तथा तुम पुष्पोंको एकत्र कर चुकी, किंतु अभी ईंधनका कोई प्रबन्ध नहीं किया गया, अतः अब मैं उसे एकत्र करूँगा। भामिनि ! तबतक तुम इस सरोवरके तटपर वृक्षकी छायामें बैठकर क्षणभर प्रतीक्षा करते हुए विश्राम करो ॥। 21 - 33 ॥
सावित्री बोली- कान्त ! जैसा आप कहेंगे, मैं वैसा ही करूँगी, परंतु आप मेरे नेत्रोंके सामनेसे दूर न जायँ; क्योंकि मैं इस घने वनमें डर रही हूँ ॥ 34 ॥
मत्स्यभगवान्ने कहा- राजन् ! सावित्रीके ऐसा कहनेपर सत्यवान् उस वनमें राजपुत्रीके सम्मुख ही उस सरोवरसे थोड़ी ही दूरपर काष्ठ एकत्र करने लगे, परंतु राजपुत्री उतनी दूर जानेपर भी उन्हें मरा हुआ-सा मानने लगी ॥ 35 ॥