मत्स्यभगवान्ने कहा— तदनन्तर पतिव्रता सुन्दरी सावित्री वहाँसे जिस मार्गसे गयी थी, उसी मार्गसे लौटकर उस स्थानपर आयो, जहाँ सत्यवान्का मृत शरीर पड़ा हुआ था तब कृशाङ्गो सावित्री पतिके निकट जाकर उसके सिरको अपनी गोदमें रखकर | पूर्ववत् बैठ गयी। उस समय भगवान् भास्कर अस्ताचलको जा रहे थे। नरेश्वर। धर्मराजसे मुक्त हुए सत्यवान्ने भी धीरे-धीरे आँखें खोली और अँगड़ाई ली। तत्पश्चात् प्राणोंके लौट आनेपर उसने अपनी स्त्री सावित्रीसे इस प्रकार कहा- वह पुरुष कहाँ चला गया, जो मुझे खींचकर लिये जा रहा था। सुन्दरि ! मैं नहीं जानता कि वह पुरुष कौन था। सर्वाङ्गसुन्दरि ! इस वनमें सोते हुए मेरा पूरा दिन बीत गया और शुभे। तुम भी उपवाससे परिश्रान्त एवं दु:खी हुई तथा मुझ जैसे दुष्टसे आज माता-पिताको भी दुःख भोगना पड़ा। सुन्दर भौहोंवाली !! मैं उन्हें देखना चाहता हूँ, चलो, जल्दी चलो' ॥1-6॥
सावित्री बोली- प्रभो! सूर्य तो अस्त हो गये। पर यदि आपको पसंद हो तो हमलोग आश्रमको लौट चलें; क्योंकि मेरे सास- श्वशुर अंधे हैं। मैं वहीं आश्रम में यह सब घटित हुआ वृत्तान्त आपको बतलाऊँगी। सावित्री उस समय पतिसे ऐसा कहकर पतिके साथ ही चल पड़ी और वह राजकुमारी पतिके साथ आश्रमपर आ पहुँची। भार्गव। इसी समय पत्नीसहित द्युमत्सेनको नेत्र ज्योति प्राप्त हो गयी। वे अपने प्रिय पुत्र और दुबली-पतली पुत्रवधूको न देखकर दुःखी हो रहे थे। उस समय तपस्वी ऋषिराजको सान्त्वना दे रहे थे इतनेमें ही उन्होंने पुत्रवधूके साथ पुत्रको वनसे आते हुए देखा। उस समय सुन्दरी सावित्रीने सत्यवान् के साथ सपत्नीक क्षत्रियश्रेष्ठ राजा द्युमत्सेनको प्रणाम किया। पिताने राजकुमार सत्यवान्को गले लगाया। तब सभी धर्मोंको जाननेवाले सत्यवान्ने उस वनमें निवास करनेवाले तपस्वियोंको अभिवादनकर रातमें ऋषियोंके साथ वहीं निवास किया। उस समय अनिन्दितचरित्रा सावित्रीने जैसी घटना घटित हुई थी,उसका वर्णन किया और उसी रातमें अपने व्रतको भी समाप्त किया। तदनन्तर तीन पहर बीत चुकनेपर राजाकी सारी प्रजा सेनासहित तुरुही आदि बाजोंको बजाते हुए राजाको पुनः राज्य करनेके लिये निमन्त्रण देने आयी और यह सूचना दी कि राज्यमें आपका शासन अब पूर्ववत् हो । राजन्! नेत्रहीन होनेके कारण जिस राजाने आपके राज्यको छीन लिया था, वह राजा मन्त्रियोंद्वारा मार डाला गया। अब उस नगरमें आप ही राजा हैं। यह सुनकर राजा चतुरंगिणी सेनाके साथ वहाँ गये और महात्मा धर्मराजकी कृपासे पुनः अपने सम्पूर्ण राज्यको प्राप्त किये। सुन्दरी सावित्रीने भी सौ भाइयोंको प्राप्त किया। इस प्रकार साध्वी पतिव्रता सुन्दरी राजकुमारी सावित्रीने अपने पितृपक्ष तथा पतिपक्ष—दोनोंका उद्धार किया और मृत्युके पाशमें बँधे हुए अपने पतिको मुक्त किया ।। 7-20 ॥
राजन् ! इसलिये मनुष्योंको सदा साध्वी स्त्रियोंकी देवताओंके समान पूजा करनी चाहिये; क्योंकि उनकी कृपासे ये तीनों लोक स्थित हैं। उन पतिव्रता स्त्रियोंके वाक्य इस चराचर जगत्में कभी भी मिथ्या नहीं होते, इसलिये सभी मनोरथोंको कामना करनेवालोंको सर्वदा इनकी पूजा करनी चाहिये जो मनुष्य सावित्रीके इस सर्वोत्तम आख्यानको नित्य सुनता है, वह सभी प्रयोजनोंमें सफलता प्राप्तकर सुखका अनुभव करता है और कभी भी दुःखका भागी नहीं होता ll 21 - 23 ॥