नारदजीने पूछा- प्रभो! किसी आकस्मिक एवं वेगशाली कष्टके प्राप्त होनेपर उसकी निवृत्तिके लिये तथा अद्भुत शान्तिके * लिये कौन सा व्रत करना चाहिये ? किस व्रतके अनुष्ठानसे दरिद्रताका विनाश किया जा सकता है तथा जिसके बच्चे पैदा होकर मर जाते हैं, उस मृतवत्सा स्त्रीके स्नान आदि कार्योंमें उसकी शान्तिके लिये किस व्रतका विधान है ? ॥ 1 ॥
श्रीभगवान् ने कहा— तपोधन! पूर्वजन्ममें किये हुए पाप इस जन्ममें रोग, दुर्गति तथा इष्टजनोंकी मृत्युके रूपमें फलित होते हैं। उनके विनाशके लिये मैं सदा कल्याणकारी सप्तमीस्त्रपन नामक व्रतका वर्णन कर रहा हूँ, यह लोगोंकी पीडाका विनाश करनेवाला है। जहाँ दुधमुँहे शिशुओं, वृद्धों, आतुरों और नवयुवकोंकी आकस्मिक मृत्यु देखी जाती है वहाँ उसकी शान्तिके लिये मैं इस 'मृतवत्साभिषेक' को बतला रहा हूँ। यही समस्त अद्भुत नामक उत्पातों, उद्वेगों और चित्तभ्रमका | भी विनाशक है ॥2-5॥तपोधन। जब वाराहकल्प आयेगा, उसमें भी जब श्रेष्ठ वैवस्वत मनुका कार्यकाल होगा, उसमें जब पचीसवाँ कृतयुग आयेगा तब कृतवीर्य नामका एक प्रतापी एवं शूरवीर नरेश उत्पन्न होगा जो हैहयवंशकी वृद्धि करनेवाला होगा। नारद! वह सतहत्तर हजार वर्षोंतक सातों द्वीपोंकी समस्त पृथ्वीका पालन करेगा। उसके सौ पुत्र होंगे, परंतु महर्षि च्यवनके शापसे वे सभी जन्मते ही नष्ट हो जायेंगे। नारद! जब उसके सहस्र भुजाधारी, मृग-नेत्र सरीखे नेत्रोंवाला, शोभाशाली एवं सम्पूर्ण राज- लक्षणोंसे सम्पन्न पुत्र उत्पन्न होगा तब राजा कृतवीर्य अपने उस पुत्रके दीर्घ जीवनकी प्राप्तिके निमित्त उपवास, व्रत तथा दिव्य वेद-सूक्तोंद्वारा सहस्रकिरणधारी सूर्यकी आराधना करके इस विशेष स्त्रान (स्त्रपनव्रत) को प्राप्त करेगा। उस समय कृतवीर्यद्वारा पूछे जानेपर भगवान् सूर्य अखिल दोषोंके शामक एवं | पापनाशक इस व्रतको बतलायेंगे ॥6- 12 ॥
भगवान् सूर्य कहेंगे - नरेश्वर! अब तुम अधिक कष्ट मत सहन करो, तुम्हारा पुत्र चिरंजीवी होगा, किंतु सम्पूर्ण लोकोंके हितके हेतु मैं जिस पापनाशक सप्तमीस्नपन व्रतका वर्णन करूँगा, उसका अनुष्ठान तुम्हें भी करना चाहिये। नारद! मृतवत्सा स्त्रीके नवजात शिशुके लिये सातवें महीने में अथवा शुक्लपक्षकी किसी भी सप्तमी | तिथिको यह सारा कार्य प्रशस्त माना गया है। यदि उस तिथिको बालकका जन्म नक्षत्र पड़ता हो तो बुद्धिमान् कर्ताको उस तिथिका त्याग कर देना चाहिये। उसी प्रकार वृद्ध, रोगी अथवा अन्य लोगोंके लिये भी किये जानेवाले कार्यमें इसका विचार करना आवश्यक है। व्रतारम्भमें व्रती ग्रहबल एवं ताराबलको अपने अनुकूल पाकर ब्राह्मणद्वारा स्वस्तिवाचन कराये और गोबरसे लिपी-पुती भूमिपर एकानिक उपासककी भाँति गो दुग्धके साथ लाल अगहनीके चावलोंसे हयान पकाये, फिर सूर्य और रुद्रको पृथक् पृथक् उनके मन्त्रोंद्वारा विधिपूर्वक वह हव्यान्न प्रदान करे। उस समय सूर्यसूक्तकी सात ऋचाओंका पाठ करे और अग्निमें घीकी सात आहुतियोंसे हवन करे। नारद रुदके लिये भी उसी प्रकारस्द्रसूक्तकी ऋचाओंका पाठ एवं उनके द्वारा हवन करना चाहिये। इस व्रतमें हवनके लिये मन्दार और पलाशकी समिधा होनी चाहिये। पुनः जी और काले तिलद्वारा एक सौ आठ बार हवन करनेका विधान है। उसी प्रकार व्याहृतियों (भूः भुवः, स्व:, मह:, जनः, तपः, सत्यम् ) के उच्चारणपूर्वक एक सौ आठ बार घीकी आहुति देनी चाहिये। इस प्रकार हवन करके बुद्धिमान् व्रती पुनः स्नान करे; क्योंकि इससे मङ्गलकी प्राप्ति होती है। तदनन्तर हाथमें कुश लिये हुए वेदज्ञ ब्राह्मणद्वारा वेदीके चारों कोणों में चार सुन्दर कलश स्थापित कराये पुनः उसके बीचमें छिद्ररहित पाँचवाँ कलश स्थापित करे। उसे दही-अक्षतसे विभूषित करके सूर्यसम्बन्धिनी सात ऋचाओंसे अभिमन्त्रित कर दे। फिर उसे तीर्थ- जलसे भरकर उसमें रत्न या सुवर्ण डाल दे। इसी प्रकार सभी कलशोंमें सर्वोषधि, पञ्चगव्य, पञ्चरत्न, फल और पुष्प डालकर उन्हें वस्त्रोंसे परिवेष्टित कर दे। फिर हाथीसार, घुड़शाल, विमवट, नदीके संगम, तालाब, गोशाला और राजद्वारसे शुद्ध मिट्टी लाकर उन सभी कलशोंमें छोड़ दे ॥ 13- 23 ll
तदनन्तर कार्यकर्ता ब्राह्मण रत्नगर्भित चारों कलशोंके मध्यमें स्थित पाँचवें कलशको हाथमें लेकर सूर्य-मन्त्रोंका पाठ करे तथा सात ऐसी स्त्रियोंद्वारा जो किसी असे हीन न हों तथा जिनकी यथाशक्ति पुष्पमाला, वस्त्र और आभूषणोंद्वारा पूजा की गयी हो, ब्राह्मणके साथ-साथ उस घड़ेके जलसे मृतवत्सा स्त्रीका अभिषेक कराये। ( अभिषेकके समय इस प्रकार कहे ) 'यह बालक दीर्घायु और यह स्त्री जीवत्पुत्रा (जीवित पुत्रवाली) हो । सूर्य, ग्रहों और नक्षत्र समूहसहित चन्द्रमा इन्द्रसहित लोकपालगण, ब्रह्मा, विष्णु, महेश्वर, इनके अतिरिक्त अन्यान्य जो देव-समूह हैं, वे सभी इस कुमारको सदा रक्षा करें। सूर्य, शनि, अग्नि अथवा अन्यान्य जो कोई बालग्रह हों वे सभी इस बालकको तथा इसके माता पिताको कहीं भी कष्ट न पहुँचायें।' अभिषेकके पश्चात् वह स्त्री श्वेत वस्त्र धारण करके अपने बच्चे और पतिके साथ उन सातों स्त्रियोंकी भक्तिपूर्वक पूजा करे पुनः गुरुकी पूजा करके धर्मराजको स्वर्णमयी प्रतिमाको ताम्रपात्र के ऊपर स्थापित करके गुरुको निवेदित कर दे।उसी प्रकार कृपणता छोड़कर अन्य ब्राह्मणोंका भी वस्त्र, सुवर्ण, रजसमूह आदिसे पूजन करके उन्हें घी और खीरसहित भक्ष्य पदार्थोंका भोजन कराये। भोजनोपरान्त गुरुदेवको इन मन्त्रोंका उच्चारण करना चाहिये- 'यह बालक दीर्घायु हो और सौ वर्षोंतक सुखका उपभोग करे। इसका जो कुछ पाप था उसे बडवानलमें डाल दिया गया। ब्रह्मा, रुद्र, वसुगण, स्कन्द, विष्णु, इन्द्र और अध्रिये सभी दुष्ट ग्रहोंसे इसकी रक्षा करें और सदा इसके लिये वरदायक हों।' इस प्रकारके वाक्योंका उच्चारण करनेवाले गुरुदेवका यजमान पूजन करे। अपनी शक्तिके अनुसार उन्हें एक कपिला गौ प्रदान करे और फिर प्रणाम करके विदा कर दे। तत्पश्चात् मृतवत्सा स्त्री पुत्रको गोदमें लेकर सूर्यदेव और भगवान् शंकरको नमस्कार करे और हवनसे बचे हुए हव्यान्नको 'सूर्यदेवको नमस्कार है यह कहकर खा जाय। यही व्रत आश्चर्यजनक उद्विग्रता और दुःस्वप्र आदिमें भी प्रशस्त माना गया है ॥24-36 ।। इस प्रकार कर्ताके जन्मदिनके नक्षत्रको छोड़कर शान्ति प्रासिके हेतु शुक्ल पक्षको सप्तमी तिथिमें सदा (सूर्य और शंकरका) पूजन करना चाहिये; क्योंकि इस व्रतका अनुष्ठान करनेवाला कभी कष्टमें नहीं पड़ता। जो मनुष्य सदा इस विधानके अनुसार इस व्रतका अनुष्ठान करता है वह दीर्घायु होता है। (इसी व्रतके प्रभावसे) कृतवीर्यने दस हजार वर्षोंतक इस पृथ्वीपर शासन किया था । द्विजश्रेष्ठ ! इस प्रकार सूर्यदेव इस पुण्यप्रद, परम पावन और आयुवर्धक सप्तमीस्रपन व्रतका विधान बतलाकर वहीं अन्तर्हित हो गये। इस प्रकार मैंने इस सप्तमीस्रपन व्रतका, जो सर्वश्रेष्ठ, समस्त दोषोंको शान्त करनेवाला और बालकोंके लिये परम हितकारक है, समग्ररूपसे वर्णन कर दिया। मनुष्यको सूर्यसे नीरोगता, अग्निसे धन, ईश्वर (शिवजी) से ज्ञान और भगवान् जनार्दनसे मोशकी अभिलाषा करनी चाहिये। यह व्रत बड़े-से-बड़े पापका विनाशक, बाल-वृद्धिकारक तथा परम हितकारी है। जो मनुष्य अनन्यचित्त होकर इस व्रत-विधानको श्रवण करता है, उसे भी सिद्धि प्राप्त होती है, ऐसा मुनियोंका कथन है । ll 37-42 ll