मत्स्यभगवान्ने कहा- अब मैं सम्पूर्ण पापोंके विनाशक परमोत्तम सप्तसागर नामक महादानकी विधि बतला रहा हूँ। बुद्धिमान् पुरुष तुलापुरुष दानकी तरह किसी पवित्र दिनके आनेपर पुण्याहवाचन करके लोकपालोंका आवाहन करे । तथा ऋत्विज्, मण्डप, पूजन सामग्री, भूषण, आच्छादन आदिका प्रबन्ध भी उसी तरह करे। विचक्षण पुरुष स्वर्णनिर्मित सात स्वतन्त्र कुण्डोंका निर्माण करे। ये कुण्ड एक बित्ता चौड़े तथा एक अरत्नि अर्थात् बँधी हुई मुट्ठीवाले हाथ-जितने लम्बे होने चाहिये। इन्हें अपनी आर्थिक शक्तिके अनुसार सात पल सोनेसे ऊपर एक हजार पलतकका बनवाना चाहिये। इन सभी कुण्डोंको कृष्णमृगके चर्मपर रखे गये तिलोंके ऊपर स्थापित करना चाहिये। विद्वान् पुरुषको प्रथम कुण्डको लवणसे, द्वितीय कुण्डको दुग्धसे, तृतीयको घृतसे, चतुर्थको गुड़से, पञ्चमको दहीसे, छठेको चीनीसे तथा सातवेंको तीर्थोंके पवित्र जलसे पूर्ण करना चाहिये। फिर लवण कुण्डमें सुवर्ण-निर्मित ब्रह्माकी, दुग्धकुण्डके मध्यमें भगवान् विष्णुकी, घृतकुण्डमें भगवान् शिवकी, गुड़कुण्डमें भगवान् भास्करकी, दधिकुण्डमें चन्द्रमाकी, शर्कराकुण्डमें लक्ष्मीकी और जलकुण्डमें पार्वतीकी स्थापना करनी चाहिये। सभी कुण्डोंको सभी ओरसे रत्नों तथा अन्नोंद्वारा अलंकृत करना चाहिये।शेष कार्य तुलापुरुषदानकी भाँति सम्पन्न करना चाहिये। तत्पश्चात् महावारुणी आहुतियाँ प्रदानकर वेदज ब्राह्मणोंद्वारा अभिषिक्त यजमान इन कुण्डोंकी तीन बार प्रदक्षिणा कर इन मन्त्रोंका उच्चारण करे ॥ 1-10 ॥
'सनातन सागरगण! आपलोग समस्त जीवोंके प्राणदाता तथा सम्पूर्ण नदियोंके आधार हो, आपको बारंबार नमस्कार है। चूँकि आपलोग दुग्ध, जल, घृत, दही, मधु, लवण, शक्कररूप अमृत तथा रत्नादि सम्पत्तियोंद्वारा त्रिभुवनके जीवसमूहोंको आनन्दित करते हैं, अतः मेरे भी पापपुञ्जोंका विनाश करें। चूँकि आपलोग ही समस्त भुवनोंमें लोकके पापक्षय, अमृतविलेपन और भूषणके निमित्त तीर्थों देवताओं, असुरों और | सुन्दर मणिके प्रदान कार्यको धारणवाले हैं, अतः वह लक्ष्मी मुझे भी प्राप्त हो।' इस प्रकार जो मनुष्य पवित्र एवं विस्मयरहित होकर इस लोकमें रस एवं अमृतसे युक्त निर्मल सोनेके बने हुए सागरोंका दान करता है, | वह देवताओंद्वारा पूजित होकर भगवान् विष्णुके पदको प्राप्त करता है। सम्पूर्ण पापोंके धुल जानेसे विशुद्ध | हुआ यह पुरुष नरकलोकमें व्याकुल हुए पिता, पितामह, पुत्र और पत्नी आदिको भी शीघ्र ही शिवलोकमें ले जाता है ।। 11- 15 ॥