नन्दिकेश्वर बोले- नारदजी अब कर्म-फलल्याग' नामक व्रतका जो महत्त्व है, उसे सुनिये। वह इस लोकमें सम्पूर्ण कामनाओंके फलका प्रदाता और परलोकमें अक्षय | फलदायक है। मुने। मङ्गलमय मार्गशीर्षमासमें शुक्लपक्षकी तृतीया, अष्टमी, द्वादशी अथवा चतुर्दशी तिथिको ब्राह्मणद्वारा स्वस्तिवाचन कराकर इस व्रतको आरम्भ करना चाहिये। मुनिसत्तम। इसी प्रकार यह व्रत अन्य पुण्यप्रद महीनों में भी किया जा सकता है। उस समय अपनी शक्तिके अनुसार ब्राह्मणोंको खीरका भोजन कराकर दक्षिणा देनी चाहिये।इस व्रतमें औषधके अतिरिक्त सामान्यरूपसे निन्द्य फल और मूलके साथ अठारह प्रकारके धान्य त्याज्य- वर्जनीय माने गये हैं, अतः उन्हें एक वर्षतक त्याग देना चाहिये। पुनः रुद्र, धर्मराज और वृषभको स्वर्णमयी मूर्ति बनवायी जाय। इसी प्रकार यथाशक्ति कूष्माण्ड, मातुलुङ्ग (बिजौरा नींबू), वातार्क (भाँटा), पनस (कटहल), आम, आम्रातक (आमड़ा), कपित्थ (कैथ), कलिङ्ग (तरबूज), बालुक (पनियाला ), बेल, पीपल, बेर, जम्बीर (जमीरी नींबू), केला, काश्मर (गम्भारी) और दाडिम (अनार) – ये सोलह प्रकारके फल भी सोनेके बनवाये जायें। मूली, आँवला, जामुन, इमली, करमर्दक (करौदा), कङ्कोल (शीतलचीनीकी जातिके एक वृक्षका फल), इलायची, तुण्डीर (कुँदरू), करीर (करील), कुटज (इन्द्रयव), शमी, गूलर, नारियल, अंगूर और दोनों बृहती (बनभंटा, भटकटैया ) - इन सोलहोंको अपनी शक्तिके अनुसार चाँदीका बनवाना चाहिये ll 1-8 ll
व्रती मनुष्य सम्पत्तिके अनुकूल ताड़ - फल, अगस्तफल, पिण्डारक (विकंकत या पिड़ार), काश्मर्य (गम्भारी) फल, सूरणकन्द (जमीकन्द), रतालू, धतूरा, चिर्मिट (ककड़ी या पिहटिया), चित्रवल्ली (तेजपात ) - फल, काले सेमलका फल, आम, निष्पाव (सेम या मटर), महुआ, बरगद, मूँग और परवल— इन सोलहोंका ताँबेसे निर्माण कराये। तत्पश्चात् वस्त्रसे सुशोभित दो कलश सप्तधान्यके ऊपर स्थापित करे। वह तीन भोजन-पात्रोंसे युक्त हो और उसपर धर्मराज, रुद्र और वृपकी स्वर्णमयी मूर्ति स्थापित करे। साथ ही दो सुन्दर वस्त्रोंसे सुशोभित एक शय्या भी प्रस्तुत करे। फिर उस पुण्यप्रद दिनमें यह सारा उपकरण एक गौके साथ किसी शान्त स्वभाववाले एवं कुटुम्बी सपत्नीक ब्राह्मणकी पूजा करके उसे दान कर दे और इस प्रकार प्रार्थना करे- 'जिस प्रकार सभी फलोंमें करोड़ों देवता निवास करते हैं, उसी प्रकार सर्वफलत्याग व्रतके अनुष्ठानसे शिवजीमें मेरी भक्ति हो। जैसे शिव और धर्म-दोनों सदा अनन्त फलके दाता कहे गये हैं, अतः उनसे युक्त फलका दान करनेसे वे दोनों मेरे लिये भी वरदायक हों। जिस प्रकार शिवभक्तोंको सदा अनन्त फलकी प्राप्ति होती रहती है, उसी तरह मुझे प्रत्येक जन्ममें अनन्त फलकी प्राप्ति हो। जैसे मैं ब्रह्मा, विष्णु शंकर और सूर्यमें कोई भेद नहीं मानता, वैसे ही विश्वात्मा भगवान् शंकर सदा मेरे लिये कल्याणकारक हों' ll 9-17 ॥इस प्रकार आभूषणोंसे अलंकृत कर वह सारा सामान ब्राह्मणको दान कर दे। यदि सम्पत्तिरूपी शक्ति हो तो समस्त उपकरणोंसे युक्त शय्या भी देनी चाहिये। यदि असमर्थ हो तो पूर्वोक्त फलोंका ही विधिपूर्वक दान करे। तत्पश्चात् शिव और धर्मराजकी स्वर्णमयी मूर्तिको दोनों कलशोंके साथ ब्राह्मणको दान करके स्वयं मौन होकर तेलरहित पदार्थोंका भोजन करे। | इसके बाद यथाशक्ति अन्य ब्राह्मणोंको भी भोजन करानेका विधान है। वेदवेत्तालोग सूर्य, विष्णु और शिवके उपासक भक्तोंके लिये इस मङ्गलमय सर्वफलत्यागव्रतको बतलाते हैं। द्विजपुंगव ! स्त्रियोंको भी यथाशक्ति इस व्रतका अनुष्ठान करना चाहिये। मुनिश्रेष्ठ! इस लोक या परलोकमें इससे बढ़कर कोई दूसरा ऐसा व्रत नहीं है, जो अनन्त फलका प्रदायक हो । मुनिसत्तम! फलोंको चूर्ण कर देनेपर उनमें लगे हुए सोने, चाँदी और ताँबेके जितने परमाणु होते हैं, उतने सहस्र युगोंतक व्रती रुद्रलोकमें प्रतिष्ठित होता है। इस व्रतका जीवनपर्यन्त अनुष्ठान करनेवाले मनुष्योंके समस्त पापोंको यह विनष्ट कर देता है, उन्हें जन्मान्तरमें भी पुत्रवियोगका कष्ट नहीं भोगना पड़ता और मरणोपरान्त वे इन्द्रलोकमें चले जाते हैं। मुनीश्वर ! जो निर्धन पुरुष देव मन्दिरों अथवा धर्मात्मा पुरुषोंके गृहोंमें इस व्रत माहात्म्यको सुनता अथवा पढ़ता है, उसका शरीर इस लोकमें पापसे मुक्त हो जाता है और मरणोपरान्त वह विष्णुलोकमें आनन्ददायक स्थान प्राप्त कर लेता है ॥ 18-25 ll