नन्दिकेश्वर बोले- नारदजी ! अब में उन साठ सर्वोत्तम व्रतोंका वर्णन कर रहा हूँ, जो साक्षात् शंकरजीद्वारा कथित, दिव्य एवं महापातकोंके विनाशक हैं। जो मनुष्य एक वर्षतक रात्रिमें एक बार भोजन कर स्वर्णनिर्मित चक्र और त्रिशूल तथा दो वस्त्र गौके साथ कुटुम्बी ब्राह्मणको दान करता है, वह शिवस्वरूप होकर शिवलोकमें हमलोगों के साथ आनन्द मनाता है। यह महापातकोंका विनाश करनेवाला 'देवव्रत' है। जो मनुष्य एक वर्षतक दिनमें एक बार भोजन कर स्वर्णनिर्मित वृषसहित तिलमयी धेनुका दान करता है, वह शिवलोकको | प्राप्त होता है। यह पाप एवं शोकका क्षयकारक 'स्वव्रत' है।जो मनुष्य एक दिनके अन्तरसे रातमें एक बार भोजन करके वर्षकी समाप्तिके अवसरपर शक्करसे पूर्ण पात्रसहित स्वर्णनिर्मित नील कमलको वृषभके साथ दान करता है वह विष्णुलोकको जाता है; यह 'नीलव्रत' कहा जाता है। जो मनुष्य आपसे लेकर चार मासतक शरीरमें तेल नहीं लगाता और भोजनकी सामग्री दान करता है वह श्रीहरिके लोकको जाता है। इस लोकमें यह मनुष्यों में प्रत्येक व्यक्तिको प्रिय लगनेवाला 'प्रोतिव्रत' नामसे कहा जाता है। जो मनुष्य चैत्रमासमें दही, दूध, घी और शक्करका त्याग कर देता है और 'गौरी मुझपर प्रसन्न हों'- इस भावनासे ब्राह्मण-दम्पतिकी भलीभाँति पूजा करके रसपूर्ण पात्रोंके साथ महीन वस्त्रोंका दान करता है (वह गौरीलोक में जाता है)। गौरीलोककी प्राप्ति करानेवाला यह 'गौरीव्रत' है ॥ 1-8 ॥
पुनः जो मनुष्य पुष्यनक्षत्रसे युक्त त्रयोदशी तिथिको रातमें एक बार भोजन कर (दूसरे दिन) दस अङ्गुल लम्बा सोनेका अशोक वृक्ष बनवाकर उसे वस्त्र और गन्नेके साथ 'प्रद्युम्र मुझपर प्रसन्न हों' इस भावनासे ब्राह्मणको दान करता है, वह एक कल्पतक विष्णुलोकमें निवास करके पुनः शोकरहित हो जाता है। सदा शोकका विनाश करनेवाला यह 'कामव्रत' है। जो मनुष्य चौमासेमें आषाढ़ पूर्णिमासे लेकर कार्तिकतक नख (बाल) नहीं कटवाता और भौटा नहीं खाता पुनः कार्तिकी पूर्णिमाको मधु और घीसे भरे हुए घड़ेके साथ स्वर्णनिर्मित भाँटा ब्राह्मणको दान करता है वह रुद्रलोकको प्राप्त होता है। इसे 'शिवव्रत' कहा जाता है। जो मनुष्य हेमन्त और शिशिर ऋतुओंमें पुष्पोंको काममें नहीं लेता और फाल्गुन मासकी पूर्णिमा तिथिको अपनी शक्तिके अनुकूल सोनेके तीन पुष्प बनवाकर उन्हें सायंकालमें 'भगवान् शिव और केशव मुझपर प्रसन्न हों'- इस भावनासे दान करता है, वह परमपदको प्राप्त होता है। यह 'सौम्यव्रत' कहलाता है जो मनुष्य फाल्गुनमासकी आदि तृतीया तिथिको नमक खाना छोड़ देता है तथा वर्षान्तके दिन 'भवानी मुझपर प्रसन्न हों'- इस भावनासे द्विज-दम्पतिकी भलीभाँति पूजा करके गृहस्थीके उपकरणोंसे युक्त गृह और शय्या दान करता है, वह एक कल्पतक गौरीलोकमें निवास करता है। इसे 'सौभाग्यव्रत' कहा जाता है। जो मनुष्य संध्याकी वेलामें मौन रहनेका नियम पालन कर वर्षकी समाप्तिमें मृतपूर्ण घट, दो वस्त्र, तिल और घंटा ब्राह्मणको दान करता है, वह पुनरागमनरहित सारस्वत पदको प्राप्त होता है। सौन्दर्य और विद्या प्रदान करनेवाला यह 'सारस्वत' नामक व्रत है ॥ 9-18 ॥जो मनुष्य पञ्चमी तिथिको निराहार रहकर लक्ष्मीकी पूजा करता है और वर्षकी समाप्तिके दिन गौके साथ स्वर्ण-निर्मित कमलका दान करता है, वह विष्णुलोकको जाता है और प्रत्येक जन्ममें लक्ष्मीसे सम्पन्न रहता है। यह 'सम्पद्व्रत' है, जो दुःख और शोकका विनाश करनेवाला है। जो मनुष्य एक वर्षतक भगवान् शिव और केशबकी मूर्तिके सामनेकी भूमिको लीपकर यहाँ जलपूर्ण घटसहित गौका दान करता है, वह दस हजार वर्षांतक राजा होता है और मरणोपरान्त शिवलोकमें जाता है। यह 'आत' है, जो सभी मनोरथोंको सिद्ध करनेवाला है। जो मनुष्य एक वर्षतक मत्सररहित हो दिनमें एक बार भोजन कर मौन धारणपूर्वक एक ही स्थानपर पीपल, सूर्य और गङ्गाको प्रणाम करता है तथा व्रतकी समाप्तिमें पूजनीय ब्राह्मण-दम्पतिको तीन गौओंके साथ स्वर्णनिर्मित वृक्षका दान करता है, उसे अश्वमेध यज्ञके फलकी प्राप्ति होती है। यह 'कीर्तिव्रत' है, जो वैभव और कीर्तिरूपी फलका प्रदाता है। जो मनुष्य एक वर्षतक गोबरसे मण्डल बनाकर वहाँ भगवान् शिव अथवा केशवको घीसे स्नान कराकर पुष्प, अक्षत आदिसे पूजा करता है और वर्षान्तमें तिल धेनुसहित आठ अङ्गुल लम्बा शुद्ध स्वर्णनिर्मित कमल सामवेदी ब्राह्मणको दान करता है, वह शिवलोकमें प्रतिष्ठित होता है। इसे इस लोकमें 'सामव्रत' कहा जाता है ॥ 19-26 ll
जो मनुष्य नवमी तिथिको दिनमें एक बार भोजन करके अपनी शक्तिके अनुसार कन्याओंको भोजन कराकर उन्हें असल और सोनेके तारोंसे खनित चोली एवं साड़ी तथा ब्राह्मणको स्वर्णनिर्मित सिंह दान करता है, वह शिवलोकमें जाता है और एक अरब जन्मतिक सौन्दर्यसम्पन्न एवं शत्रुओंके लिये अजेय हो जाता है। यह 'वीरव्रत' है, जो नारियोंके लिये सुखदायक है। जो मनुष्य एक वर्षतक पूर्णिमा तिथिको केवल दूध पीकर व्रत करता है। और वर्षकी समाप्तिके दिन श्राद्ध करके लालिमायुक्त भूरे रंगके वस्त्र और जलपूर्ण घंटोंके साथ पाँच दुधारू गायें दान करता है, वह विष्णुलोकको जाता है और अपने सौ पीढ़ीतकके पितरोंको तार देता है। पुनः एक कल्प व्यतीत होनेपर वह भूतलपर राजराजेश्वर होता है। यह 'पितृव्रत' कहलाता है। जो मनुष्य चैत्रसे आरम्भ कर चार मासतक बिना याचना किये जलका दान देता है अर्थात् | पौसला चलाता है तथा व्रतके अन्तमें अन्न एवं वस्त्रसेयुक्त मिट्टीका घड़ा, तिलसे भरा पात्र और सुवर्णका दान करता है, वह ब्रह्मलोकमें प्रतिष्ठित होता है। एक कल्पके व्यतीत होनेपर यह निश्चय ही भूपाल होता है। यह 'आनन्दवत' कहा जाता है ।। 27-32 ॥
जो एक वर्षतक पञ्चामृत (दूध, दही, घी, मधु, शकर) से भगवान्की मूर्तिको स्नान कराता है, पुनः वर्षान्तमें पञ्चामृतसहित गौ और शङ्ख ब्राह्मणको दान करता है, वह शिवलोकमें जाता है और एक कल्पके बाद भूतलपर राजा होता है। यह 'धृतिव्रत' कहा जाता है। जो मनुष्य एक वर्षतक मांस खाना छोड़कर वर्षान्तमें गौ दान करता है तथा उसके साथ स्वर्णनिर्मित मृग भी देता है, वह अश्वमेधयज्ञके फलका भागी होता है और कल्पान्तमें राजा होता है। यह 'अहिंसाव्रत' कहलाता है। जो मनुष्य माघमासमें ब्राह्मवेलामें स्नान कर अपनी शक्तिके अनुसार एक द्विज-दम्पतिको भोजन कराकर पुष्पमाला, वस्त्र और आभूषण आदिसे उनकी पूजा करता है, वह एक कल्पतक सूर्यलोकमें निवास करता है। यह 'सूर्यव्रत' कहा जाता है। जो मनुष्य आषाढ़से आरम्भकर चार | महीनेतक नित्य प्रात:काल स्नान करता है और ब्राह्मणोंको भोजन देता है तथा कार्तिकी पूर्णिमाको गो-दान करता है, वह विष्णुलोकको जाता है। यह मङ्गलमय 'विष्णुव्रत' है जो मनुष्य एक अपनसे दूसरे अपनतक (उत्तरायणसे दक्षिणायन अथवा दक्षिणायनसे उत्तरायणतक) पुष्प और घीका त्याग कर देता है और व्रतान्तके दिन मृत, धेनुसहित पुष्पोंकी मालाएँ एवं घी और दूधसे बने हुए खाद्य पदार्थ ब्राह्मणको दान करता है, वह शिवलोकको जाता है। यह 'शीलव्रत' है, जो सुशीलता एवं नीरोगतारूप फल प्रदान करता है। जो एक वर्षतक नित्य सायंकाल दीप दान करता है और तेल घी खाना छोड़ देता है, पुनः वर्षान्तिमें ब्राह्मणको स्वर्णनिर्मित चक्र, त्रिशूल और दो वस्त्रके साथ दीपकका दान देता है, वह इस लोकमें तेजस्वी होता है और मरणोपरान्त सद्रलोकको प्राप्त होता है। यह 'दीप्तिव्रत' कहलाता है ॥ 33-41 ll
जो एक वर्षतक कार्तिकमाससे प्रारम्भ कर तृतीया तिथिको गोमूत्र एवं जौसे बने हुए खाद्य पदार्थोंको खाकर नक्तव्रतका पालन करता है और वर्षान्तमें गोदान करता है, वह एक कल्पतक गौरीलोकमें निवास करता है और (पुण्य क्षीण होनेपर) भूतलपर राजा होता है। यह 'स्त' है जो सदाके लिये कल्याणकारी है।जो चैत्रमासमें सुगन्धित वस्तुओंका अनुलेपन छोड़ देता है। अर्थात् शरीरमें सुगन्धित पदार्थ नहीं लगाता और व्रतान्तमें ब्राह्मणको दो घेत वस्त्रोंके साथ गन्धधारियोंकी शुक्ति (गन्धदव्यविशेष) का दान करता है वह वरुणलोकको प्राप्त होता है यह 'दृढव्रत' कहलाता है जो वैशाख मासमें पुष्प और नमकका परित्याग कर व्रतान्तमें गोदान करता है वह एक कल्पतक विष्णुलोक में निवास करके (पुण्य क्षीण होनेपर) इस लोकमें राजा होता है। यह 'कान्तिव्रत' है, जो कान्ति और कीर्तिरूपी फलका प्रदाता है जो किसी पुण्यप्रद दिनमें अपनी शक्तिके अनुसार तीन पलसे अधिक सोनेका ब्रह्माण्ड बनवाकर तिलकी राशिपर स्थापित कर देता है और तीन दिनतक ब्राह्मणसहित अग्रिको संतुष्ट करके तिलका दान देता रहता है, पुनः चौथे दिन एक विप्र दम्पतिकी पुष्पमाला, वस्त्र और आभूषण आदिसे विधिपूर्वक पूजा करके 'विश्वात्मा मुझपर प्रसन्न हों - इस भावनासे वह ब्रह्माण्ड दान कर देता है, वह पुनर्जन्मरहित परब्रह्मको प्राप्त हो जाता है। यह 'ब्रहाव्रत' है, जो मोक्षपदका दाता है जो दिनभर पयोव्रतका पालन (दूधका आहार) करके अधिक-से-अधिक सोनेकी बनी हुई उभयमुखी (दो मुखवाली अथवा सवत्सा) का | दान करता है, वह पुनरागमनरहित परमपदको प्राप्त हो जाता है। यह 'धेनुव्रत' है जो तीन दिनतक पयोव्रतका पालन करके अपनी शक्तिके अनुसार एक पलसे अधिक सोनेका कल्पवृक्ष बनवाकर उसे चावलकी राशिपर स्थापित करके दान कर देता है वह ब्रह्मपदको प्राप्त हो जाता है। इसे 'कल्पव्रत' कहा जाता है। जो एक मासतक निराहार रहकर ब्राह्मणको सुन्दर गौका दान करता है यह विष्णुलोकको जाता है। यह 'भीमव्रत' कहलाता है ॥42 - 51 ll
जो दिनभर पयोव्रतका पालन कर बीस पलसे अधिक सोनेसे पृथ्वीको मूर्ति बनवाकर दान करता है, वह रुद्रलोक में प्रतिष्ठित होता है। इसे 'धराव्रत' कहते हैं, जो सात सौ कल्पोंतक दाताका अनुगमन करता रहता है। जो माघ अथवा चैत्रमासमें तृतीया तिथिको गुडव्रतका पालन कर गुडधेनुका दान करता है वह गौरीलोकमें प्रतिष्ठित होता है। यह परमानन्द प्रदान करनेवाला 'महाव्रत' है जो एक पक्षतक निराहार रहकर ब्राह्मणको दो कपिला गौका दान करता है वह देवताओं एवं असुरोंद्वारा सुपूजित अहालोकको प्राप्त होता है और एक कल्प जीतनेपर | भूतलपर राजाधिराज होता है। इसे 'प्रभावत' कहते हैं।जो एक वर्षतक दिनमें एक ही बार भोजन करके व्रतान्तमें खाद्य पदार्थों सहित जलपूर्ण घटका दान करता है, वह एक कल्पतक शिवलोकमें निवास करता है। इसे 'प्राप्तिव्रत' कहा जाता है। जो प्रत्येक मासकी अष्टमी तिथियोंमें रातमें एक बार भोजन करता है और वर्षके अन्तमें गोदान करता है, वह इन्द्रलोकमें जाता है। इसे 'सुगतिव्रत' कहा जाता है। जो वर्षा ऋतुसे लेकर चार ऋतुओंतक ब्राह्मणको ईंधनका दान देता है और व्रतान्तमें घृतधेनु प्रदान करता है, वह परब्रह्मको प्राप्त हो जाता है सम्पूर्ण पापका विनाश करनेवाला यह 'वैधानरखत' है। जो एकादशी तिथिको रातमें एक बार भोजन करते हुए वर्षके अन्तमें सोनेका विष्णु-चक्र बनवाकर दान करता है, वह विष्णुलोकको प्राप्त होता है और एक | कल्पके बीतनेपर भूतलपर राज्यका भागी होता है। यह 'कृष्णव्रत' है। जो खीरका भोजन करते हुए वर्षके अन्तमें ब्राह्मणको दो गौ दान करता है, वह लक्ष्मीलोकको प्राप्त होता है। इसे 'देवीव्रत' कहा जाता है। जो सप्तमी तिथिको रातमें एक बार भोजन करते हुए वर्षकी समाप्तिमें | दुधारू गौका दान करता है, वह सूर्यलोकको प्राप्त होता है यह 'भानुव्रत' कहलाता है जो चतुर्थी तिथिको रातमें एक बार भोजन करते हुए वर्षकी समाप्तिके अवसरपर सोनेका हाथी दान करता है, वह शिवलोकको प्राप्त होता है। शिवलोकरूप फल प्रदान करनेवाला यह 'विनायकव्रत' है। जो चौमासेमें (बेल, जामुन, बेर, कैथ और बीजपुर नीबू) इन पाँच महाफलोंका परित्याग कर कार्तिकमासमें सोनेसे इन फलोंका निर्माण कराकर दो गौओंके साथ दान करता है, वह विष्णुलोकको जाता है। विष्णुलोकरूप फल प्रदान करनेवाला यह 'फलव्रत' है। जो सप्तमी तिथिको निराहार रहते हुए वर्षके अन्तमें अपनी शक्तिके अनुसार स्वर्णनिर्मित कमल तथा सुवर्ण, अन्न और घटसहित | गौओंका दान करता है, वह सूर्यलोकमें जाता है। सूर्यलोकरूप फलका प्रदाता यह 'सौरव्रत' है ॥52-63 ॥
जो मनुष्य बारहों द्वादशियोंको उपवास करके यथाशक्ति गौ, वस्त्र और सुवर्णसे ब्राह्मणोंकी पूजा करता है, वह परमपदको प्राप्त हो जाता है। इसे 'विष्णुव्रत' कहा जाता है। जो कार्तिककी पूर्णिमा तिथिको वृषोत्सर्ग करके नक्तव्रतका पालन करता है, वह शिवलोकको प्राप्त होता है। यह 'वार्यव्रत' कहलाता है।जो कृच्छ्र- चान्द्रायण व्रतकी समाप्तिपर गोदान करके यथाशक्ति ब्राह्मणोंको भोजन कराता है, वह शिवलोकको जाता है। यह 'प्राजापत्यव्रत' है। जो चतुर्दशी तिथिको रातमें एक बार भोजन करता है और वर्ष समाप्त होनेपर गोधनका दान करता है, वह शिवलोकको प्राप्त होता है। यह' त्र्यम्बकव्रत' है। जो सात राततक उपवास कर ब्राह्मणको घृतपूर्ण घटका दान करता है, वह ब्रह्मलोकमें जाता है। यह ब्रह्मलोकरूप फल प्रदान करनेवाला 'घृतव्रत' है। जो वर्षा ऋतु आकाशके नीचे (खुले मैदानमें) शयन करता है और व्रतान्तमें दुधारू गौका दान करता है, वह सदाके लिये इन्द्रलोकमें निवास करता है। इसे 'इन्द्रव्रत' कहा जाता है। जो मनुष्य तृतीया तिथिको बिना अग्रिमें पकाया हुआ पदार्थ भोजन करता है। और व्रतान्तमें गौ दान देता है, वह पुनरागमनरहित शिवलोकको प्राप्त होता है। मनुष्योंको इस लोकमें आनन्द प्रदान करनेवाला यह 'श्रेयोव्रत' कहलाता है। जो निराहार रहकर दो पलसे अधिक सोनेसे दो घोड़ोंसे जुता हुआ रथ बनवाकर दान करता है, वह सौ कल्पोंतक स्वर्गलोकमें वास करता है और कल्पान्तमें भूतलपर राजाधिराज होता है। इसे 'अश्वव्रत' कहते हैं। इसी प्रकार जो मनुष्य निराहार रहकर दो हाथियोंसे जुता हुआ सोनेका रथ दान करता है, वह एक | हजार कल्पोंतक सत्यलोकमें निवास करता है और (पुण्य क्षीण होनेपर भूतलपर) राजा होता है। यह 'करिव्रत' कहलाता है। इसी प्रकार जो मनुष्य वर्षके अन्तमें उपवासका परित्याग कर गोदान करता है, वह यक्षोंका अधीश्वर होता है। इसे 'सुखव्रत' कहा जाता है। जो रातभर जलमें निवास कर प्रातःकाल गोदान करता है, वह वरुणलोकको प्राप्त करता है। इसे 'वरुणव्रत' कहते हैं। जो मनुष्य चान्द्रायण व्रतका अनुष्ठान कर स्वर्णनिर्मित चन्द्रमाका दान करता है, वह चन्द्रलोकको जाता है। चन्द्रलोकरूप फलका प्रदाता यह 'चन्द्रव्रत' कहलाता है। जो ज्येष्ठमासकी अष्टमी तथा चतुर्दशी तिथियोंमें पञ्चानि तपकर सायंकाल स्वर्णनिर्मित गौका दान करता है, वह स्वर्गलोकको जाता है। यह 'रुद्रव्रत' नामसे विख्यात है । ll 64-76 ।।
जो तृतीया तिथिको शिवालयमें एक बार चंदोवा या चाँदनी लगा देता है और वर्षके अन्तमें गोदान करता है, वह भवानीलोकको जाता है। इसे 'भवानीव्रत' कहते हैं। जो माघमासमें सप्तमी तिथिको रातभर गोला वस्त्र धारण किये रहता है और प्रातःकाल गौका दान करता है, वह एक कल्पतक स्वर्गमें निवास करके भूतल परराजा होता है। 'यह पवनव्रत' है। जो तीन राततक | उपवास करके फाल्गुनमासकी पूर्णिमा तिथिको सुन्दर गृह दान करता है, वह सूर्यलोकको प्राप्त होता है। यह 'धामव्रत' नामसे प्रसिद्ध है। जो निराहार रहकर तीनों (प्रातः, मध्याह्न, सायं) संध्याओंमें आभूषणोंद्वारा ब्राह्मण दम्पतिकी पूजा करता है, उसे इस लोकमें इन्द्रव्रतसे भी बढ़कर अधिक मात्रामें अन्न एवं गोधनकी प्राप्ति होती है तथा अन्तमें वह मोक्षलाभ करता है। जो शुक्लपक्षकी द्वितीया तिथिको चन्द्रमाके उद्देश्यसे नमकसे परिपूर्ण पात्र ब्राह्मणको दान करता है और वर्षकी समाप्तिमें गोदान देता है, वह शिवलोकको जाता है और एक कल्प व्यतीत होनेपर भूतलपर राजराजेश्वर होता है। यह 'सोमव्रत' नामसे विख्यात है। जो प्रतिपदा तिथिको दिनमें एक बार भोजन करता है और वर्षान्तमें कपिला गौका दान देता है, वह वैश्वानरलोकको जाता है। इसे 'शिवव्रत' कहते हैं। जो दशमी तिथिको दिनमें एक बार भोजन करता है और वर्षकी समाप्तिके अवसरपर स्वर्णनिर्मित दसों दिशाओंकी प्रतिमाके साथ दस गायें दान करता है वह ब्रह्माण्डका अधीश्वर होता है। यह 'विश्वव्रत' है जो महापातकोंका विनाशक है। जो इस सर्वोत्तम 'षष्टिव्रत' (60 व्रतोंकी चर्चा ) - को पढ़ता अथवा श्रवण करता है, | वह भी सौ मन्वन्तरतक गन्धर्वलोकका अधिपति होता है। नारद ! यह षष्टिव्रत परम पुण्यप्रद और सभी जीवोंके लिये लाभदायक है, मैंने आपसे इसका वर्णन कर दिया। अब यदि आपकी और भी कुछ सुननेकी इच्छा हो तो मैं उसका वर्णन करूँगा; क्योंकि प्रियजनोंके प्रति भला | कौन-सी वस्तु अकथनीय हो सकती है ॥ 77–85 ।।