सूतजी कहते हैं - ऋषियो ! इसके पश्चात् अब मैं उस साधारण श्राद्धके विषयमें बतला रहा हूँ, जो भोग एवं मोक्षरूपी फल प्रदान करनेवाला है तथा जिसका स्वयं भगवान् विष्णुने वर्णन किया है। सूर्यके उत्तरायण एवं दक्षिणायनके समय, विषुवयोग (सूर्यके तुला और मेष राशिपर संक्रमण करते समय), कृष्णपक्षकी अष्टका (मार्गशीर्ष, पौष, फाल्गुन कृष्णपक्षकी सप्तमी, अष्टमी, नवमी-इन तीन तिथियोंका समुदाय), अमावास्या और पूर्णिमा तिथियोंमें, आर्द्रा मघा और रोहिणी नक्षत्रोंमें, द्रव्य और ब्राह्मणके मिलनेपर, गजच्छाया, व्यतिपात और वैधृति योगों में तथा विष्टि (भद्रा) करणमें पूर्वोक्त साधारण श्राद्ध किया जाता है।वैशाखमासको शुक्लतृतीया (अक्षयतृतीया), कार्तिक मासको शुक्लनवमी (अक्षयनवमी), माघमासको पूर्णिमा और भाद्रपदमासके शुक्लपक्षकी त्रयोदशी-ये युगादि
तिथियोंके नामसे प्रसिद्ध हैं। इनमें किया गया श्राद्ध अक्षय फलदायक होता है। इसी प्रकार विद्वान् श्राद्धकर्ताको मन्वन्तरोंकी आदि तिथियोंमें भी श्राद्ध कर्म करना चाहिये ॥ 1-5 ॥ आश्विनमासकी शुक्लनवमी, कार्तिकमासकी शुक्लद्वादशी, चैत्रमासकी शुक्लतृतीया, भाद्रपदमासकी शुक्लतृतीया, फाल्गुनमासकी अमावास्या, पौषमासकी शुक्ल एकादशी आषाढ़ मास की शुक्लदशमी, माघमासकी शुक्लसप्तमी, श्रावणमासकी कृष्णाष्टमी, आषाढमासकी पूर्णिमा तथा कार्तिक, फाल्गुन, चैत्र और ज्येष्ठकी पूर्णिमा ये चौदह तिथियाँ चौदह मन्वन्तरोंकी आदि तिथियाँ हैं; इनमें किया गया श्राद्ध अक्षय फलकारक होता है जिस मन्वन्तरकी आदि तिथि माघमासकी शुक्लसप्तमीमें भगवान् सूर्य रथपर आरूढ़ होते हैं, वह सप्तमी रथसप्तमीके नामसे प्रसिद्ध है। इस तिथिमें यदि मनुष्य प्रयत्नपूर्वक अपने पितरोंको तिलमिश्रित जलमात्र प्रदान करता है अर्थात् तर्पण कर लेता है तो वह सहस्रों वर्षोंतक किये गये श्राद्धके समान फलदायक होता है। इसका रहस्य पितृगण स्वयं बतलाते हैं। विद्वान् आद्धकर्ताको चाहिये कि वह वैशाख पूर्णिमामें, सूर्य एवं चन्द्रग्रहणमें, विशेष उत्सवके अवसरपर, पितृपक्षमें, तीर्थस्थान, देव मन्दिर एवं गोशालायें, दीपगृह और वाटिकामें एकान्तमें लिपी पुती हुई भूमिपर बाद्ध-कार्य सम्पन्न करे। वह श्राद्धके एक या दो दिन पूर्व ही विनम्रभावसे शीलवान्, सदाचारी, गुणी, रूपवान् एवं अधिक अवस्थावाले ब्राह्मणोंको निमन्त्रित करे। | देवकार्यमें दो और पितृ कार्यमें तीन अथवा दोनोंमें एक-एक ही ब्राह्मणको भोजन कराना चाहिये। अतिशय समृद्धिशाली होनेपर भी विस्तारमें नहीं लगना चाहिये। उस समय विश्वेदेवोंको आसन प्रदान करके यव और पुष्पोंद्वारा उनकी अर्चना करे। फिर दो मिट्टीके पात्र (कोसा) रखकर उनमें कुशनिर्मित पवित्रक डाल दे और 'शं नो देवीरभीष्ट्ये0' (वाज0 सं0 36 । 12) इस मन्त्रको पढ़कर उन्हें जलसे भर दे और 'यवोऽसिo' (नारायणोपनिषद्) यह मन्त्र उच्चारणकर उनमें यव डाल दे।फिर गन्ध, पुष्प आदिसे पूजा करके उन्हें विश्वेदेवोंके उद्देश्यसे (उनके निकट) रख दे। फिर 'विश्वेदेवास' (शु0 यजु0 7 । 34) इत्यादि दो मन्त्रोंद्वारा विश्वेदेवोंका आवाहन करके (वेदीपर) जौ बिखेर दे। तत्पश्चात् गन्ध पुष्प आदिसे अलंकृत करके 'या दिव्या आपः (o सं0) इस मन्त्रसे उन्हें अर्घ्य प्रदान करे। इस प्रकार उनकी पूजा करके और उनसे निवृत्त होकर पितृ कार्य आरम्भ करे ॥ 6-17 ॥
(पितृ श्राद्धमें पहले कुशौका आसन प्रदान करके तीन अर्घ्यपात्रोंको तैयार करना चाहिये। उनमें प्रथमतः कुशनिर्मित पवित्रक डालकर 'शं नो' देवी0' (शु0 यजु0
36 । 12 ) - ' इस मन्त्रसे उन्हें जलसे भर दे, पुनः 'तिलोऽसि0- इस मन्त्रसे उनमें तिल डालकर उन्हें (अमन्त्रक ही) गन्ध, पुष्प आदिसे पूरा कर दे। पितरोंके निमित्त प्रयुक्त किये गये ये पात्र काष्ठके या वृक्षके पत्तेके या जल एवं सागरसे उत्पन्न हुए पत्तेके अथवा सुवर्णमय या रजतमय होने चाहिये। (यदि चाँदीका पात्र देनेकी सामर्थ्य न हो तो) चाँदीके विषयमें कथनोपकथन, दर्शन अथवा | दानसे ही कार्य सम्पन्न हो सकता है। पितरोंके निमित्त यदि चाँदीके बने हुए या चाँदीसे मढ़े हुए पात्रोंद्वारा श्रद्धापूर्वक जलमात्र भी प्रदान कर दिया जाय तो वह अक्षय तृप्तिकारक होता है इसी प्रकार पितरोंके लिये अर्घ्य, पिण्ड और भोजनके पात्र भी चाँदीके ही प्रशस्त माने गये हैं। चूँकि चाँदी शिवजीके नेत्रसे उद्भूत हुई है, इसलिये यह पितरोंको परम प्रिय है; किन्तु देवकार्यमें इसे अशुभ माना गया है, | इसलिये देवकार्यमें चाँदीको दूर रखना चाहिये। इस प्रकार यथाशक्ति पात्रोंकी व्यवस्था करके मत्सररहित हो कुश हाथमें लेकर 'या दिव्या0' ( तै0 स0 ) - इस मन्त्रद्वारा अपने पिताके नाम और गोत्रका उच्चारण करते हुए (उन पात्रको रख दे। (फिर ब्राह्मणोंकी ओर देखकर य कहे कि मैं अपने पितरोंका आवाहन करूँगा।' इसके उत्तरमें ब्राह्मणलोग कहें- 'करो'। ऐसा कहे जानेपर 'उशन्तस्त्वा0' - एवं ' आयान्तु नः 0 ' – इन दोनों ऋचाओं द्वारा पितरोंका आवाहन करे। तत्पश्चात् 'या दिव्या0' इस मन्त्रसे उन्हें अर्घ्य प्रदान करके गन्ध, पुष्प आदिसे उनकी पूजा करे। फिर पिण्डदानसे पूर्व उस जलको हाथमें लेकर उसे पितृ-पात्रमें रखकर वेदोके अग्रभागमें उलटकर रख | दे और 'पितृभ्यः स्थानमसि'- यह पितरोंके लिये स्थान है' ऐसा कहकर उसे जलसे सींच दे। इस कार्यमें भी पूर्ववत् सावधानीपूर्वक अग्रिकार्य सम्पन्न करे। तदुपरान्त हमें कुल लिये हुए प्रशान्तचित्तसे गुणकारी दाल, शाक | आदिसे युक्त विविध प्रकारके खाद्य पदार्थोंको अपने दोनोंहाथोंसे लाकर पूर्णरूपसे परिवेषण करे (परोसे)। पदार्थोंमें दही, दूध और शकरमिश्रित अन्न तथा गोघृत, गोदुग्ध और खीर आदि जो कुछ पितरोंके निमित्त दिया जाता है, वह अक्षय बतलाया गया है। पितरलोग गृहस्थोंके प्रथम देवता हैं, इसलिये श्राद्धके अवसरपर पितृसम्बन्धी सूक्तोंका स्वाध्याय (पाठ), सम्पूर्ण पुराण, ब्रह्मा, विष्णु, सूर्य और रुद्रके विभिन्न प्रकारके सूक्त, इन्द्र, अग्रि और सोमके पवित्र सूक्त, बृहद्रथन्तर, रौहिणसहित ज्येष्ठ साम, शान्तिकाध्याय, मधुब्राह्मण और मण्डलब्राह्मण आदि तथा इसी प्रकारके अन्यान्य प्रीतिवर्धक सूक्तों या स्तोत्रोंका स्वयं अथवा ब्राह्मणोंद्वारा पाठ करना करवाना चाहिये ll 18-39 ॥
राजन्! उन ब्राह्मणोंके भोजन कर चुकनेपर उनके भोजनके संनिकट ही सभी वर्णोंके लिये नियत किये हुए अन्न आदि पदार्थोंको लाकर उन्हें जलसे परिपूर्ण कर | भोजन करनेवालोंके समक्ष ही यह कहते हुए पृथ्वीपर बिखेर दे-'मेरे कुलमें (मृत्युके पश्चात्) जिन जीवोंका अग्नि-संस्कार हुआ हो अथवा जिनका अग्नि-संस्कार नहीं भी हुआ हो, वे सभी पृथ्वीपर बिखेरे हुए इस अन्नसे तृप्त हों और परम गतिको प्राप्त हों। जिनकी न माता है, न | जिनके पिता या भाई-बन्धु हैं, न तो जिनकी गोत्र-शुद्धि | हुई है तथा जिनके पास अन्न भी नहीं है, उनकी तृप्तिके निमित्त मैंने भूतलपर यह अन्न छींट दिया है, अतः वे भी (मेरे पितरोंकी भाँति सुखभोगके लिये उत्तम लोकों में जायें। इसी प्रकार जो कुलवधुएँ बिना संस्कृत हुए ही मृत्युको प्राप्त हो गयी हैं अथवा जिनका परिवारवालोंने | परित्याग कर दिया है, उनके लिये कुश-मूलमें लगा हुआ तथा विकिराया बचा हुआ उच्छिष्ट भाग हो हिस्सा है।' तदनन्तर ब्राह्मणोंको तृप्त जानकर एक बार उनके हाथोंपर जल डाल | दे। फिर गोवर, गोमूत्र और जलसे लिपी हुई भूमिपरकुशको विधिपूर्वक दक्षिणाभिमुखा दे तबार्ता पिता के नाम और गोत्रका उच्चारण करके पहले (कुशॉपर) अवनेजन दे (पिण्डकी वेदीपर कुशसे जल छिड़के), फिर पितृ यज्ञकी भाँति सभी प्रकारके अन्नोंसे बने हुए पिण्डौको उन कुशोंपर रख दे पुनः गन्ध, पुष्प आदिये पिण्ड - पूजा करके उनपर प्रत्यवनेजनका जल छोड़े और बायाँ घुटना टेककर बायें हाथसे प्रदक्षिणा करे फिर कुश हाथमें लेकर विधिपूर्वक पितृकार्य सम्पन्न करे। बुद्धिमान् श्राद्धकर्ताको पूर्वोक्त विधिके अनुसार दीप जलाना एवं | पुष्पोंद्वारा पूजन करना चाहिये। तत्पश्चात् ब्राह्मणोंके आचमन कर लेनेपर स्वयं भी आचमन करके उनके हाथोंपर एक एक बार जल, पुष्प, अक्षत और तिलसहित अक्षय्योदक | डालकर यथाशक्ति उन्हें दक्षिणा दे। पुनः कंजूसी छोड़कर पितरोंको प्रसन्न करते हुए गौ, पृथ्वी, सोना, वस्त्र, सुन्दर शय्याएँ तथा जो वस्तु अपने तथा पिताको अभीष्ट रही हो, वह सब ब्राह्मणोंको दान करना चाहिये। तदुपरान्त स्वधाका | उच्चारण करके विद्वान् श्राद्धकर्ता पूर्वाभिमुख हो विश्वेदेवोंकों जल प्रदान करके उनसे आशीर्वाद ग्रहण करे। उस समय ब्राह्मणोंसे कहे-'हमारे पितर सौम्य हों।' पुनः ब्राह्मण लोग कहें- 'सन्तु हों' ॥ 40 - 53 ll
(पुनः यजमान कहे) 'हमारे गोत्रकी वृद्धि हो तथा हमारे दाताओंकी अभिवृद्धि हो।' यो कहे जानेपर पुनः वे ब्राह्मण कहें— 'वैसा ही हो।' पुनः प्रार्थना करे- 'ये आशीर्वाद सत्य हों।' ब्राह्मणलोग कहें 'सन्तु (सत्य) हों'। पुनः उन ब्राह्मणोंसे स्वस्तिवाचन कराये और पिण्डोंको उठाकर भक्तिपूर्वक ग्रहबलि करे-यही धर्मकी मर्यादा है। जबतक निमन्त्रित ब्राह्मण विसर्जित किये जाते हैं, तबतक सभी वस्तुएँ उच्छिष्ट रहती हैं। कपटरहित एवं आस्तिक ब्राह्मणोंका जूठन और पितृकार्यमें भूमिपर बिखरे हुए अम नौकरों के भाग हैं—ऐसा कहा जाता है। नरेश्वर। पितरोंद्वारा व्यवस्थित यह तर्पणरूप कार्य पुत्रहीनों, पुत्रवानों तथा स्त्रियों के लिये भी है। तदनन्तर ब्राह्मणोंको आगे खड़ा करके जलपात्रको हाथमें लेकर 'वाजे वाजे'- यों कहते हुए कुशोक अग्रभागसे पितरोंका विसर्जन करे तथा बाहर जाकर पुत्र, स्त्री और भाई-बन्धुओंको साथ लेकर आठ पगतक उन | ब्राह्मणोंकि पीछे-पीछे चलकर उनकी प्रदक्षिणा करे।वहाँसे लौटकर अग्रिको प्रणाम करके मन्त्रोच्चारणपूर्वक उसका पर्युक्षण करे तथा वैश्वदेव और नित्य बलि प्रदान करे। वैश्वदेवबलि समाप्त कर लेनेके बाद अपने नौकर-चाकर, पुत्र, भाई-बन्धु और अतिथियोंके साथ सभी प्रकारके पितृ-सेवित (जिन्हें पहले पितरोंको समर्पित किया जा चुका है) पदार्थोंका भोजन करे। इस सामान्य पार्वण नामक श्राद्धको, जो सभी प्रकारके मनोवाञ्छित फलोंका प्रदाता है, उपनयन संस्कारसे | रहित व्यक्ति भी सभी पर्वोके अवसरपर कर सकता है। बुद्धिमान् पितृ भक्त पुरुष पत्नीरहित अवस्थामें तथा परदेशमें स्थित रहनेपर भी इस श्राद्धका विधान कर सकता है। शूद्रको भी पूर्वोक्त विधिके अनुसार मन्त्ररहित ही इस श्राद्धको करनेका अधिकार है। ऋषियो! अब तीसरे प्रकारके पार्वण श्राद्धको जो आभ्युदयिक वृद्धिश्राद्धके नामसे कहा जाता है, बतला रहा हूँ। यह श्राद्ध किसी उत्सव, हर्ष-संयोग, यज्ञ, विवाह आदिके शुभ अवसरपर किया जाता है ।। 54-65 ll
राजन्! इस श्राद्धमें प्रथमतः माताओंकी पूजा करके तत्पश्चात् पितरोंकी पूजा करनी चाहिये। तदनन्तर मातामह (नाना) और विश्वेदेवोंके पूजनका विधान है। आद्धक पूर्वाभिमुख हो प्रदक्षिणा करके दहरे, अक्षत, फल और जल आदि सामग्री समेत दूर्वा और कुशोंसे संयुक्त पिण्डौको समर्पित करे इस आभ्युदयिक श्राद्धमें 'सम्पन्नम्' इस मन्त्रका उच्चारण करके दोनों प्रकारके पितरोंको अर्घ्य प्रदान करे। उस समय वस्त्र, सुवर्ण आदि सामग्रियोंसे दो ब्राह्मणोंकी पूजा करनी चाहिये। तिलके स्थानपर 'नान्दी' शब्दके उच्चारणपूर्वक व्यवसे ही कार्य सम्पन्न करे और श्रेष्ठ विद्वान् ब्राह्मणोंद्वारा सभी प्रकारके माङ्गलिक सूक्तों अथवा स्तोत्रोंका पाठ कराये। इसी प्रकार इस सामान्य वृद्धिश्राद्ध में शूद्र भी सदा-सर्वदा नमस्काररूपी मन्त्रके उच्चारणसे तथा आमान दानसे (बिना पके हुए कच्चे अन्नके दानसे) कार्य सम्पन्न कर सकता है। शूद्रको विशेषरूपसे दानप्रधान ( दानमें तत्पर, दानशील) होना चाहिये; क्योंकि दानसे उसके सभी मनोरथोंकी पूर्ति हो जाती है-ऐसा सर्वसमर्थ | भगवान्ने कहा है ॥ 66-71 ।।