मत्स्यभगवान्ने कहा- राजन् ब्रह्माने समस्त प्राणियोंकी रक्षाके निमित्त दण्डका प्रयोग करनेके लिये देवताओंके अंशोंको लेकर राजाको सृष्टि की है। चूँकि तेजसे देदीप्यमान होनेके कारण कोई भी उसकी ओर देख नहीं सकता, इसीलिये राजा लोकमें सूर्यके समानप्रभावशाली होता है। जिस समय इसे देखनेसे लोग हर्षको प्राप्त होते हैं, उस समय वह नेत्रोंके लिये आनन्दकारी होनेके कारण चन्द्रमाके समान हो जाता है। जिस प्रकार यमराज समय आनेपर शत्रु-मित्र सबको दण्ड देते हैं, उसी तरह राजाको प्रजाके साथ व्यवहार करना चाहिये, यह यम व्रत है। जिस तरह वरुणद्वारा पाशसे बँधे हुए लोग दिखायी पड़ते हैं; उसी प्रकार पापाचरण करनेवालोंको पाशबद्ध करना चाहिये, यह वरुण व्रत है। जैसे मनुष्य पूर्ण चन्द्रको देखकर प्रसन्न होता है, उसी प्रकार जिसे देखकर प्रजा प्रसन्न होती है वह राजा चन्द्रमाके समान है ॥ 1-6 ॥
अग्नि-व्रतमें स्थित राजाको पापियों, दुष्ट सामन्तों तथा हिंसकोंके प्रति नित्य प्रतापशाली एवं तेजस्वी होना चाहिये। जिस प्रकार स्वयं पृथ्वी समस्त जीवोंको धारण करती है, उसी प्रकार राजा भी सम्पूर्ण प्राणियोंका पालन-पोषण करता है। यह पार्थिव व्रत है। राजाको इन्द्र, सूर्य, वायु, यम, वरुण, चन्द्रमा, अग्नि तथा पृथ्वीके तेजोव्रतका आचरण करना चाहिये। जिस प्रकार इन्द्र वर्षके चार महीनोंमें वृष्टि करते हैं, उसी प्रकार राजाको भी अपने राष्ट्रमें स्वेच्छापूर्वक दानवृष्टि करनी चाहिये, यह इन्द्र व्रत है। जिस प्रकार सूर्य आठ महीनेतक अपनी किरणोंसे जलका अपहरण करते हैं, उसी प्रकार राजाको भी नित्य राज्यसे कर ग्रहण करना चाहिये। यह सूर्य व्रत है जिस प्रकार मारुत सभी प्राणियों में प्रवेश करके विचरण करता है, उसी प्रकार राजाको भी गुप्तचरोंद्वारा सभी प्राणियोंमें प्रविष्ट होनेका विधान है। यह मारुत व्रत है ॥ 7-12 ॥