सूतजी कहते हैं ऋथियो! तदनन्तर अपरिमित पराक्रमी राजा मनुने भगवान् मत्स्यसे पतिव्रता स्त्रियोंके माहात्म्य तथा तत्सम्बन्धी कथाके विषयमें प्रश्न किया ॥ 1 ॥
मनुजीने पूछा- (प्रभो!) पतिव्रता स्त्रियोंमें कौन श्रेष्ठ है? किस स्त्रीने मृत्युको पराजित किया है ? तथा मनुष्योंको सदा किस (सती नारी) का नामोच्चारण करना चाहिये? आप अब मुझसे सभी पापोंको नष्ट करनेवाली इस कथाका वर्णन कीजिये ॥ 2 ॥
मत्स्यभगवान्ने कहा- धर्मज्ञ धर्मराज भी पतिव्रता त्रियोंके प्रतिकूल कोई व्यवहार नहीं कर सकते; क्योंकि वे उनके लिये भी सर्वदा सम्माननीय हैं। इस विषयमें मैं तुमसे पापको नष्ट करनेवाली वैसी कथाका वर्णन कर रहा हूँ कि किस प्रकार पतिव्रता स्त्रीने मृत्युके पाशमें सड़े हुए अपने पतिको बन्धनमुक्त कराया था। प्राचीन समयमें मद्रदेश (वर्तमान स्यालकोट जनपद) में शाकलवंशी अश्वपति नामक एक राजा थे। उनके कोई पुत्र नहीं था।तब ब्राह्मणों के निर्देशपर ये पुत्रकी कामनाये सभी कामनाओंको पूर्ण करनेवाली सावित्रीकी आराधना करने लगे। वे प्रतिदिन सैकड़ों ब्राह्मणों के साथ सावित्रीदेवीकी प्रसन्नताके लिये सफेद सरसोंका हवन करते थे। दस महोना बीत जानेपर चतुर्थी तिथिको सावित्री (गायत्री) देवीने राजाको दर्शन दिया ॥ 3-7 ॥
सावित्रीने कहा- राजन् ! तुम मेरे नित्य भक्त हो, अतः मैं तुम्हें कन्या प्रदान करूँगी। मेरी कृपासे तुम्हें मेरी दी हुई सर्वाङ्गसुन्दरी कन्या प्राप्त होगी। राजन्। चरणोंमें पड़े हुए राजासे इतना कहकर वह देवी आकाशमें बिजलीको भाँति अदृश्य हो गयी। नरेश। व्य राजाकी मालती नामकी पतिव्रता पत्नी थी। समय आनेपर उसने सावित्रीके समान रूपवाली एक कन्याको जन्म दिया। तब राजाने ब्राह्मणोंसे कहा— तपके द्वारा आवाहन किये जानेपर सावित्रीने इसे मुझे दिया है तथा यह सावित्रीके समान रूपवाली है, अतः इसका नाम सावित्री होगा। नृपश्रेष्ठ ! तब उन ब्राह्मणोंने उस कन्याका सावित्री नाम रख दिया। समयानुसार सावित्री युवती हुई, तब पिताने उसका सत्यवान्के लिये वाग्दान कर दिया। इसी बीच नारदने उस उद्दीप्त तेजस्वी राजासे कहा कि 'उस राजकुमारकी आयु एक ही वर्षमें समाप्त हो जायगी' (नारदजीकी वाणी सुनकर ) यद्यपि राजाके मनमें चिन्ता तो हुई, पर यह विचारकर कि 'कन्यादान एक ही बार किया जाता है' उन्होंने अपनी कन्या सावित्रीको द्युमत्सेनके सुन्दर पुत्र सत्यवान्को प्रदान कर दिया। सावित्री भी पतिको पाकर अपने भवनमें नारदकी अशुभ वाणी सुनकर दुःखित मनसे काल व्यतीत करने लगी। वह वनमें सास- श्वसुर तथा पतिदेवकी बड़ी शुश्रूषा करती थी किंतु राजा द्युमत्सेन अपने राज्यसे च्युत हो गये थे तथा पत्नीसहित अन्धा होनेके कारण वैसी गुणवती राजपुत्रीको पुत्रवधू रूपमें प्राप्तकर संतुष्ट नहीं थे। 'आजसे चौथे दिन सत्यवान् मर जायगा ऐसा ब्राह्मणोंके मुखसे सुनकर धर्मपरायणा राजपुत्री सावित्रीने श्वशुरसे आज्ञा लेकर त्रिरात्र व्रतका अनुष्ठान किया। चौथा दिन आनेपर जब सत्यवान्ने लकड़ी, पुष्प एवं फलको टोहमें जंगलकी ओर प्रस्थान किया, तब याचनाभङ्गसे डरती हुई सावित्री भी सास श्वशुरकी आज्ञा लेकर दुखित उनसे पति के साथ उस भयंकर जंगलमें गयी। (नारदके वचनका ध्यान कर) चित्तमें अतिशय कष्ट रहनेपर भीउसने अपने इस महान् भयको अपने पतिसे व्यक्त नहीं किया, किंतु मन बहलाव के लिये वनमें छोटे-बड़े वृक्षोंके बारेमें पतिसे झूठ-मूठ पूछ-ताछ करती रही। शूरवीर सत्यवान् उस भयंकर वनमें विशाल वृक्षों, पक्षियों एवं पशुओंके दलको दिखला-दिखलाकर थकी हुई एवं कमलके समान विशाल नेत्रोंवाली राजकुमारी सावित्रीको आश्वासन देता रहा ।। 8- 21 ॥