सावित्रीने कहा- देवश्रेष्ठ। सत्पुरुषोंके साथ समागम होनेपर कैसा परिश्रम ? और कैसा दुःख? आप जैसे महनुभाकसमीप मुझे किसी प्रकारकी भी ग्लानि नहीं है। चाहे साधु प्रकृतिके हों या असाधु प्रकृतिके, सभीके निर्वाहक सदा सत्पुरुष ही होते हैं, किंतु असत्पुरुष न तो सज्जनोंके काम आ सकते हैं, न असत्पुरुषोंके हो और न स्वयं अपना ही कल्याण कर सकते हैं। विष, अग्नि, सर्प तथा शस्त्रसे लोगोंको उतना भय नहीं होता, जितना अकारण जगत्से वैर करनेवाले दुष्टोंसे होता है। जैसे सत्पुरुष अपने प्राणोंका विसर्जन करके भी परोपकार करते हैं, उसी प्रकार दुर्जन भी अपने प्राणोंका परित्याग कर दूसरेको कष्ट देनेमें तत्पर रहते हैं। जिस परलोककी प्राप्तिके लिये सत्पुरुष अपने प्राणोंको भी तृणके समान त्याग देते हैं, उसी परलोककी परायी हानिमें निरत रहनेवाले दुर्जन कुछ भी चिन्ता नहीं करते। स्वयं जगदूरु ब्रह्माने सभी प्राणि-समूहों में असत्प्राणियोंके निग्रहके लिये राजाको नियुक्त किया है। राजा सर्वदा पुरुषोंकी परीक्षा करे। जो सज्जन हों, उनका आदर करे और दुष्टोंको दण्ड दे। जो ऐसा करता है, वह सभी लोकविजेता राजाओं में श्रेष्ठ है। सत्पुरुषोंको सम्मान देने तथा दुष्टोंका निग्रह करनेके कारण ही वह राजा है। स्वर्ग प्राप्तिकी इच्छा करनेवाले राजाको इन दोनों कार्योंका पालन करना चाहिये। जगतीपते। राजाओंके लिये सत्पुरुषोंके परिपालन तथा दुष्टोंके नियमनके अतिरिक्त दूसरा कोई राजधर्म संसारमें नहीं है। उन राजाओं द्वारा भी जो दुष्ट शासित नहीं किये जा सकते, ऐसे दुर्जनोंके शासक आप हैं, इसी कारण आप मुझे सभी देवताओंसे | अधिक महत्त्वशाली देवता प्रतीत हो रहे हैं। यह जगत् सत्पुरुषोंद्वारा धारण किया जाता है तथा आप उन सत्पुरुषोंके अग्रणी हैं, इसलिये देव! आपके पीछे चलते। हुए मुझे कुछ भी क्लेश नहीं है। ll 1-11॥यमराज बोले- विशालाक्षि! तुम्हारे इन धर्मयुक्त वचनोंसे मैं प्रसन्न हूँ, अतः सत्यवान् के प्राणोंके अतिरिक्त दूसरा वर माँग लो, देर न करो ॥ 12 ॥
सावित्रीने कहा- विभो। मैं सौ सहोदर भाइयोंकी अभिलाषिणी हूँ। मेरे पिता पुत्रहीन हैं, अतः वे पुत्रलाभसे प्रसन्न हों। तब यमराजने सावित्रीसे कहा- 'अनिन्दिते। तुम जैसे आयी हो, वैसे ही लौट जाओ तथा अपने पतिके और्ध्वदैहिक क्रियाओंके लिये यह करो। अब यह दूसरे लोकमें चला गया है, अत: तुम इसके पीछे नहीं चल सकती। चूंकि तुम पतिव्रता हो, अतः दो घड़ीतक और मेरे साथ चल सकती हो। भद्रे सत्यवान्ने गुरुजनोंकी शुश्रूषा कर महान् पुण्य अर्जित किया है, अतः मैं स्वयं इसे ले जा रहा हूँ। सुन्दरि ! विद्वान् पुरुषको माता, पिता तथा गुरुकी सेवामें सदा तत्पर रहना चाहिये। सत्यवान्ने वनमें इन तीनोंको अपनी शुश्रूषासे प्रसन्न किया है। शुभे। इसके साथ तुमने भी स्वर्गको जीत लिया है। शुभे मनुष्य तपस्या, ब्रह्मचर्य तथा अग्नि और गुरुकी शुश्रूषासे स्वर्गको प्राप्तः करते हैं, अतः विशेषरूपसे ब्राह्मणको आचार्य, पिता, माता तथा बड़े भाईका कभी अपमान नहीं करना चाहिये; क्योंकि आचार्य ब्रह्माका, पिता प्रजापतिका, माता पृथ्वीका और भाई अपना ही स्वरूप है। मनुष्यके जन्मके समय माता और पिता जो कष्ट सहन करते हैं, उसका बदला सैकड़ों वर्षोंमें भी नहीं चुकाया जा सकता। अतः मनुष्यको माता, पिता तथा आचार्यका सर्वदा प्रिय कार्य करना चाहिये; क्योंकि इन तीनोंके संतुष्ट होनेपर सभी तपस्याएँ सम्पन्न हो जाती हैं। इन तीनोंकी शुश्रूषा परम तपस्या कही गयी है, अतः उनको आज्ञाके बिना किसी अन्य धर्मका आचरण नहीं करना चाहिये। वे ही तीनों लोक हैं, वे ही तीनों आश्रम हैं, वे ही तीनों वेद हैं तथा तीनों अग्नियाँ भी वे ही कहलाते है। पिता गार्हपत्याग्नि, माता दक्षिणाग्नि तथा गुरु आहवनीयाग्नि है ये तीनों अग्नियाँ सर्वश्रेष्ठ है।जो गृहस्थ इन तीनों गुरुजनोंकी सेवामें कभी असावधानी नहीं करता, वह तीनों लोकोंको जीत लेता है और अपने शरीरसे देवताओंके समान देदीप्यमान होते हुए स्वर्गमें | आनन्दका अनुभव करता है। भद्रे! तुम्हारा काम पूरा गया, अब तुम लौट जाओ। तुम्हारे द्वारा कही हुई वे सारी बातें पूर्ण होंगी। इस प्रकार हमारे पीछे आनेसे मेरे कार्यमें विघ्न पड़ता है और तुम्हें भी कष्ट हो रहा है, इसीलिये मैं || इस समय तुमसे ऐसा कह रहा हूँ ॥13 - 28 ll