सूतजी कहते हैं-ऋषियो। इसके बाद अब में सूर्य और चन्द्रमाको गतिका वर्णन कर रहा हूँ। ये सूर्य और चन्द्रमा सातों द्वीपों एवं सातों समुद्रोंके विस्तारको तथा समग्र भूतलके अर्धभागको और उसके बाहरके अन्य प्रदेशोंको ये अपने प्रकाशसे उद्भासित करते हैं। ये विश्वको अन्तिम सीमातक प्रकाश फैलाते हैं। तुलना परिभ्रमणके प्रमाणको लेकर ही विद्वान् लोग आकाशकी करते हैं। सूर्य सामान्यतः तीनों लोकोंमें शीघ्रतापूर्वक भ्रमण करते हैं। 'अन्' धातु रक्षण और प्रकाशार्थक है। प्रकाश फैलाने तथा प्राणियोंकी रक्षा करनेके कारण सूर्यको 'रवि' कहा जाता है। पुनः सूर्यः और चन्द्रमाका प्रमाण बतला रहा हूँ। महनीय होने के कारण पृथ्वीके लिये 'मही' शब्दका प्रयोग किया जाता | है। अब भारतवर्षका तथा सूर्य मण्डलके व्यासका परिमाण योजनोंमें बतला रहा हूँ, उसे सुनिये। सूर्य मण्डलका परिमाण नौ हजार योजन है। इस मण्डलमें परिणाह (घेरा) विस्तारसे तिगुना अर्थात् सत्ताईस हजार योजन है। व्यास और मण्डलको दृष्टिसे भी सूर्यसे चन्द्रमा बहुत छोटे हैं। पुनः सातों द्वीपों और समुद्रासहित पृथ्वीमण्डलके विस्तारका प्रमाण, जिन्हें विद्वानोंने पुराणोंमें बतलाया है, (योजनोंकी संख्या में) बतला रहा हूँ ॥ 1-9 ॥
पूर्वकालमें जो पुराणोंके ज्ञाता हो चुके हैं, वे भी आजकलके पुराणोंके तुल्य ही थे पूर्वकालके विद्व एवं आधुनिक विद्वान् दोनोंके मत इस विषय में समान हैं। अतः वर्तमानकालिक विद्वानोंके अनुसार भूतलका परिमाण बतला रहा हूँ। आधुनिक विद्वानोंने दिव्यलोककी स्थितिको भी पृथ्वीमण्डलके बराबर हो माना है। समूची | पृथ्वी पचास करोड़ जनमें विस्तृत मानी गयी है।||उसका आधा भाग मेरुपर्वतके उत्तरोत्तर फैला हुआ है और मेरुपर्वतके मध्यभागमें वह चारों ओर एक करोड़ योजन विस्तारवाली कही जाती हैं। इसी तरह पृथ्वीके अर्धभागका विस्तार नवासो लाख पचास हजार योजन बतलाया जाता है। अब योजनके परिमाणसे पृथ्वीके | समूचे विस्तारको सुनिये इसका विस्तार चारों दिशाओं में तीन करोड़ योजन माना गया है। यही सातों द्वोपों और समुद्रोंसे घिरी हुई पृथ्वीका विस्तार है। पृथ्वीका आन्तरिक मण्डल बाह्य मण्डलसे तिगुना अधिक है। इस प्रकार उसका परिमाण ग्यारह करोड़ सैंतीस लाख योजन माना गया है। यही पृथ्वीके आन्तरिक मण्डलको गणना की गयी है। आकाश मण्डलमें जितने तारागणको स्थिति है, उतना ही समग्र पृथ्वीमण्डलका विस्तार माना गया है। इस प्रकार पृथ्वीमण्डलके परिमाणके बराबर आकाशमण्डल भी है। अब ज्योतिर्गणके प्रचारको बात सुनिये। मेरुपर्वतको पूर्व दिशामें मानसोत्तर पर्वत शिखरपर वस्वौकसारा नामकी महेन्द्रको पुण्यमयी नगरी है, जो सुवर्णसे सुसज्जित है। पुनः मेरुकी दक्षिण दिशामें मानसपर्वतके पृष्ठभागपर संयमनी पुरी है, जिसमें सूर्यके पुत्र यमराज निवास करते हैं। पुनः मेरुकी पश्चिम दिशामें मानसपर्वतके शिखरपर बुद्धिमान् वरुणको सुखा नामकी रमणीव पुरी है। मेरुको उत्तर दिशामें मानसपर्वतके शिखरपर महेन्द्रपुरीके समान चन्द्रदेवकी विभावरी पुरी है उसी मानसोत्तर पर्वतके पृष्ठभागको चारों दिशाओं में लोकपालगण धर्मकी व्यवस्था और लोकोंकी रक्षा करनेके लिये स्थित हैं। दक्षिणायनके समय सूर्य उन लोकपालोंसे ऊपर होकर भ्रमण करते हैं ।। 10-25 ॥
दक्षिण दिशाका आश्रय लेनेपर सूर्यकी जैसी गति होती है, उसे सुनिये दक्षिणायनकालमें सूर्य छोड़े गये बाणकी तरह शीघ्रगतिसे चलते हैं। वे ज्योतिक्षकको सदा साथ लिये रहते हैं। (इस प्रकार भ्रमण करते हुए) जिस समय सूर्य अमरावती पुरीमें पहुंचते हैं, उस समय वे गगनमण्डलके मध्यभागमें रहते हैं अर्थात् मध्याह होता है उसी समय वे राजपुरो उदित होते हुए और विभावरी नगरीमें अस्त होते. हुए दीखते हैं तथा सुखा नगरीमें आधी रात होती है।इसी प्रकार जब सूर्य मध्याह्नकालमें यमराजकी संयमनी पुरीमें पहुँचते हैं, तब वरुणकी सुखानगरीमें उगते हुए और महेन्द्रकी वस्वौकसारा (अमरावती) पुरीमें अस्त होते हुए दीखते हैं तथा विभावरी पुरीमें आधी रात होती है। जब दोपहरके समय सूर्य वरुणकी सुखानगरी में पहुँचते हैं, तब चन्द्रदेवकी पुरी विभावरीमें उदय होते हैं। जब सूर्य महेन्द्रकी अमरावतीपुरीमें उदय होते हैं, तब वरुणको सुखानगरीमें अस्त होते (दीखते हैं और संयमनीपुरीमें आधी रात होती है। इस प्रकार सूर्य अलातचक्र (जलती बनेठी) की भाँति बड़ी शीघ्रतासे चक्कर लगाते हैं॥ 26-32 ॥
इस प्रकार स्वयं भ्रमण करते हुए सूर्य नक्षत्रोंको भी भ्रमण कराते हैं। वे चारों दक्षिणान्त पार्श्व भागों में चलते रहते हैं। उदय और अस्तके समय वे पुनः-पुनः उदय और अस्त होते रहते हैं और पूर्वाह एवं अपराह्नमें दो-दो देवपुरियोंमें तथा मध्याह्नके समय एक पुरीमें पहुँचते हैं। इस प्रकार सूर्य उदय होकर अपनी बढ़ती हुई तेजस्विनी किरणोंसे दोपहरके समय तपते हैं और उसके बाद धीरे-धीरे ह्रासको प्राप्त होती हुई उन्हीं किरणोंके साथ अस्त हो जाते हैं। सूर्यके इसी उदय और अस्तसे पूर्व और पश्चिम दिशाका ज्ञान होता है। यों तो सूर्य जैसे पूर्व दिशामें तपते हैं, उसी तरह पश्चिम तथा पार्श्वभाग (उत्तर और दक्षिण) में भी प्रकाश फैलाते हैं, परंतु उन दिशाओंमें जहाँ सूर्यका उदय दीखता है, वही उदय स्थान कहलाता है तथा जिस दिशामें सूर्य अदृश्य हो जाते हैं, उसे अस्त-स्थान कहते हैं। मेरुपर्वत सभी पर्वतोंसे उत्तर तथा लोकालोक पर्वत दक्षिण दिशामें स्थित है, इसलिये सूर्यके बहुत दूर हो जाने तथा पृथ्वीकी छायासे आवृत होनेके कारण उनकी किरणें अवरुद्ध हो जाती हैं, इसी कारण सूर्य रातमें नहीं दीख पड़ते। इस प्रकार एक लाख किरणोंसे सुशोभित सूर्य जब पुष्करद्वीपके मध्यभागमें पहुँचते हैं, तब वहाँ ऊँचाईपर स्थित होनेके कारण दीख पड़ते हैं। सूर्य एक मुहूर्त (दो घड़ी) में पृथ्वीके तीरों भागतक पहुँच जाते हैं। उनको गतिका प्रमाण योजने हजारोंको गणनामें सुनिये। सूर्यकी एक मुहूर्तकी गतिका परिमाण एकतीस लाख पचास हजार योजनसे भी अधिक बतलाया जाता है। ll 33-423 ॥
इसी क्रमसे जब सूर्य दक्षिण दिशामें जाते हैं. तब वहाँ छ: महीनेतक भ्रमण करनेके पश्चात् पुनः) सातवें मासमें उत्तर दिशाकी ओर लौटते हैं। दक्षिणायन के समय सूर्य पुष्करखोपके मध्य भ्रमण करते हैं।मानसोत्तर और मेरु पर्वत बीचमें पुष्करद्वीपसे तिगुना अन्तर है। अब दक्षिण दिशामें सूर्यकी गतिका परिमाण सुनिये। यह (दक्षिणायन) मण्डल नौ करोड़ पैंतालीस लाख योजन विस्तृत बतलाया गया है। यह सूर्यकी एक दिन-रातकी गति है। दक्षिणायनसे निवृत्त होकर जब सूर्य खगोलीय विषुववृत्त और क्रान्तिवृत्तका कटान (बिन्दु) स्थानपर स्थित होते हैं, तब वे क्षीरसागरकी उत्तर दिशामें भ्रमण करते हैं। अब विषुवन्मण्डलका परिमाण योजनों सुनिये। वह विषुवन्मण्डल तीन करोड़ इक्कीस लाख योजनके परिमाणवाला है। श्रवणनक्षत्रमें जब सूर्य उत्तर दिशामें चले जाते हैं, तब वे गोमेदद्वीपके बादवाले द्वीपकी उत्तर दिशामें भ्रमण करते हैं। अब उत्तर | दिशाके मण्डलका तथा दक्षिण और उत्तरके मध्यभागका प्रमाण क्रमशः सुनिये। इनके मध्यमें जरद्रव, उत्तरमें ऐरावत और दक्षिणमें वैश्वानर नामक स्थान सिद्धान्ततः निर्दिष्ट किये गये हैं। उत्तर दिशामें सूर्यके मार्गको नागवीथी तथा | दक्षिणदिशाके मार्गको अजवीथी कहते है ।। 43-52 3 ॥
दोनों आषाढ़ अर्थात् पूर्वाषाढ़, उत्तराषाढ़ और मूल ये तीनों अजवीची है। अभिजित् श्रयण और स्वाती ये तीनों नागवीथी हैं। अश्विनी, भरणी और कृत्तिका ये तीनों नागवीथी नामसे प्रसिद्ध हैं। रोहिणी, आर्द्रा और मृगशिरा भी नागवीथी कहलाते हैं। पुष्य, श्लेषा और पुनर्वसु-ये तीनों ऐरावती वीथी कहे जाते हैं। ये तीनों वीथियाँ उत्तर | दिशाका मार्ग कहलाती हैं। पूर्वाफाल्गुनी, उत्तराफाल्गुनी और मया ये तीनों 'आर्यभी' बोधी है। पूर्वभाद्रपद, उत्तरभाद्रपद और रेवती- ये तीनों 'गोवीथी' नामसे पुकारे जाते हैं। श्रवण, धनिष्थ और शतभिषा— ये तीनों ' जरद्रववीथी' हैं। ये तीनों वीथियाँ मध्यम मार्ग कहलाती हैं। हस्त, चित्रा और स्वाती ये तीनों 'अजवीथी' कहलाते हैं। ज्येष्ठा, विशाखा और अनुराधाये 'मृगवीथी' कहलाते हैं मूल, पूर्वाषाढ़ और उत्तराषाढ़-ये 'वैश्वानर' वीथी हैं। ये तीनों वीथियाँ दक्षिण-मार्गमें बतलायी गयी हैं। अब उत्तर और दक्षिण- दोनों दिशाओंका अन्तर योजनोंमें बतला रहा हूँ। इन दोनों दिशाओंका अन्तर एकतीस लाख तीन हजार छः सौ योजन बतलाया जाता है। अब उत्तरायण और दक्षिणायन-कालमें दोनों दिशाओं और दोनों रेखाओंकाअन्तर योजनोंमें परिगणित करके बतला रहा हूँ, सुनिये। उनमें एकसे दूसरीका अन्तर एकहत्तर लाख पचीस हजार योजन है। सूर्य दोनों दिशाओं और रेखाओंके बाहरी और भीतरी भागमें चक्कर लगाते हैं। यह सूर्यमण्डल सदा उत्तरायणमें मण्डलोंके भीतर और दक्षिणायनमें बाहरसे चक्कर लगाता है। उत्तर दिशामें विचरते हुए सूर्य एक सौ अस्सी मण्डलोंके भीतरसे गुजरते हुए उन्हें पार करते हैं ll 53-66 ॥
अब मण्डलका प्रमाण योजनोंकी गणनामें सुनिये। इसका परिमाण अठारह हजार अट्ठावन योजन बतलाया जाता है। इस मण्डलका व्यास तिरछा जानना चाहिये। सूर्य दिनभर कुम्हारके चाककी तरह नाभिमण्डलपर चक्कर लगाते हैं। सूर्यकी भाँति चन्द्रमा भी वैसा ही भ्रमण करते हैं। उसी प्रकार दक्षिणायनमें भी सूर्य चाककी तरह शीघ्रतापूर्वक चलते हुए उसे पार करते हैं। इसी कारण वे इतनी विस्तृत भूमिको थोड़े ही समयमें पार कर जाते हैं। दक्षिणायनके समय सूर्य साढ़े तेरह नक्षत्रोंके मण्डलको शीघ्रतापूर्वक मध्यभागसे गुजरते हुए बारह मुहूतोंमें पार करते हैं, किंतु रातके समय उन्हीं नक्षत्रोंको पार करने में उन्हें अठारह मुहूर्त लगता है। जैसे कुम्हारके चाकके मध्यभागमें स्थित वस्तुकी गति मन्द हो जाती है, वैसे ही उत्तरायणके समय सूर्य मन्दगति से चलते हैं। इसी कारण थोड़ी-सी भूमि पार करनेमें उन्हें अधिक समय लगाना पड़ता है। उत्तरायणके समय सूर्य दिनके अठारह मुदूतोंमें तेरह नक्षत्रोंके मध्य में विचरते हैं, किंतु रातमें उन्हीं नक्षत्रोंको पार करनेमें उन्हें बारह मुहूर्त लगते हैं। वह चक्र उन दोनों गतियोंसे मन्दतर गतिमें घूमता है। चाकके मध्यभागमें रखे हुए मृत्पिण्डकी तरह ध्रुव भी उस चक्रके मध्य में स्थित होकर घूमते रहते हैं। ध्रुव तीस मुहूर्त अर्थात् दिन-रातभरमें दोनों दिशाओंके मध्यवर्ती मण्डलोंमें भ्रमण करते हैं ।। 67-76 ।।
उत्तरायणके समय दिनमें सूर्यको गति मन्द और रात्रिके समय उन्हीं सूर्यको गति तेज बली गयी है। उसी तरह दक्षिणायन-कालमें सूर्यकी गति दिनमें तेज और रात्रिमें मन्द कही गयी है।इस प्रकार अपनी विशेष गतिसे रात-दिनका विभाजन करते हुए सूर्य दक्षिण दिशामें अजवीथीसे गुजरते हुए लोकालोक पर्वतकी उत्तर दिशामें पहुंचते हैं। वहाँ लोक संतानक और वैश्वानर नामक पर्वतोंके बाहरी मार्गसे चलते हुए वे पुष्करद्वीपपर पहुँचते हैं। वहाँ सूर्यकी प्रभातकालिकी प्रभा होती है। इस मार्गक पार्श्वभाग में लोकालोक पर्वत पड़ता है, जो दस हजार योजन ऊँचा है। यह पर्वत | मण्डलाकार है और इसका एक भाग प्रकाशयुक्त एवं दूसरा भाग तिमिराच्छा रहता है। इस लोकालोक पर्वतके भीतर सूर्य, चन्द्रमा, नक्षत्र और तारागणोंके साथ सभी ग्रह प्रकाशित होते हैं। इस प्रकार जहाँतक प्रकाश होता है, उतनेको ही लोक माना गया है और शेष भाग निरालोक (तमसा है। 'लोक' धातुका अर्थ दर्शन अर्थात् आलोकन है, इसलिये जो आलोक दृष्टिपथसे दूर है, वह अनालोकता है। सूर्य परिभ्रमण करते हुए जिस समय लोकपर्व (प्रकाशित और अप्रकाशित प्रदेशकी संधि) पर पहुँचते हैं, उस समयको संध्या कहते हैं। उप:काल और व्युष्टिमें अन्तर है। ब्राह्मणोंने उषःकालको रात्रिमें और व्युष्टिको दिनमें परिगणित किया है ।। 77-85 ॥
तीस कलाका एक मुहूर्त होता है और एक दिनमें पंद्रह मुहूर्त होते हैं। जिस प्रकार अहर्गणके हिसाब से दिनोंको ह्रास वृद्धि होती है, उसी तरह संध्याके मुहूर्तमें भी हास वृद्धि माने गये हैं। तीन-तीन मुहूर्तोंके हिसाब से दिनके पाँच भाग माने गये हैं। सूर्योदय होनेके पश्चात् तीन मुहूर्तता काल प्रातःकाल कहा जाता है। उस प्रातः कालके व्यतीत होनेपर तीन मुहूर्ततकका समय संगवकाल कहलाता है। उस | संगवकालके बाद तीन मुहूर्ततक मध्याह नामसे अभिहित होता है। उस मध्याह्नकालके बादका समय अपराह्न कहा जाता है। इसका भी समय विद्वानोंने तीन मुहूर्त ही माना है। अपराह्नके बीत जाने के बादका काल सायं कहलाता है। इस प्रकार पंद्रह मुहूतोंका दिन तीन तीन मुहूर्तोंके हिसाब से पाँच भागोंमें विभक्त है। इसी प्रकार (रातमें भी 15 मुहूर्त होती है) दोनों विषुवोंमें (ठीक) पंद्रह मुहूर्तका दिन होता है-शरद और वसन्त ऋतुओं मध्य (मेष-तुलासंक्रान्ति) - का समय विषुव कहलाता है. उत्तरायणमें दिन रात्रिको दक्षिणायनमें रात्रि दिनकोग्रसती है। जहाँतक सूर्यका प्रकाश पहुँचता है, उसे लोक कहते हैं और उस लोकके बाद जो तमसाच्छा प्रदेश है, उसे अलोक कहा जाता है। इसी लोक और अलेक मध्यमें स्थित (लोकालोक) पर्वतपर चारों लोकपाल महाप्रलयपर्यन्त निवास करते हैं। उनके नाम है- वैराज सुधाना प्रजापति कर्दन, पर्जन्य हिरण्यरोमा और राजस केतुमान्। ये सभी लोकपाल सुख-दुःख आदि इन्द्र अभिमान, आलस्य और परिग्रहसे रहित होकर लोकालोकके चारों दिशाओं में स्थित हैं ll 86 - 96 ll
लोकालोक पर्वतका जो उत्तरी शिखर है, वह अगस्त्यशिखर कहलाता है। देवर्षिगण उसका सेवन करते है वह वैश्वानर मार्गसे बाहर है और पितृयाण मार्गके नामसे प्रसिद्ध है। उस पितृयाण मार्गपर प्रजाभिलाषी अग्निहोत्री तथा लोगोंको संतान प्रदान करनेवाले ऋषिगण निवास करते हैं। राजन्! लौकिक कामनाओंसे युक्त वे ऋषिगण अपने आशीर्वादके प्रयोगसे प्राणियोंद्वारा आरम्भ किये गये कर्मको सफल बनाते हैं। उनका मार्ग दक्षिणायनमें है वे प्रत्येक युगमें अपनी उग्र तपस्या तथा धर्मशास्त्रकी मर्यादाद्वारा मर्यादासे स्खलित हुए धर्मको पुनः स्थापना करते हैं। इनमें जो पहले उत्पन्न हुए थे, वे अपने से पीछे उत्पन्न होनेवालोंकि वरोंमें जन्म लेते हैं और पीछे उत्पन्न होनेवाले मृत्युके पश्चात् पूर्वजोंके गृहोंमें चले जाते हैं। इस प्रकार वे प्रलयपर्यन्त आवागमनके चक्कर में पड़े रहते हैं। इन क्रियानिष्ठ गृहस्थ ऋषियोंकी संख्या अठासी हजार है। ये सूर्य दक्षिण मार्गका आश्रय लेकर प्रलयपर्यन्त स्थित रहते हैं। उन्हें श्मशानकी शरण लेनी पड़ती है अर्थात् ये मृत्युभागी होते हैं। लोकव्यवहारकी रक्षा के लिये प्राणियोंद्वारा आरम्भ किये गये कमकी पूर्ति, इच्छा, द्वेषपरता, स्त्री सहवास तथा स्वेच्छापूर्वक सांसारिक विषयभोगोंका सेवन- इन्हीं कारणोंसे उन ऋषियोंकी इस लोकमें सिद्ध होते हुए भी श्मशानमें जाना पड़ता है । 97-105 ॥ द्वापरयुग प्रजाभिलाषी सात ऋषि इस मृत्युलोकमें उत्पन्न हुए थे, किंतु आगे चलकर उन्हें संततिसे घृणा हो गयी, जिससे उन्होंने मृत्युको जीत लिया। इन कवीता ऋषियोंकी संख्या अठासी हजार है। ये सूर्यके उत्तर
मार्गका आश्रय लेकर प्रलयपर्यन्त विद्यमान रहते हैं।वे लोक-कल्याणकर्ता, स्त्री-पुरुष सम्पर्करहित, ईर्ष्या, द्वेष आदिसे निवृत्त, प्राणियोंद्वारा आरम्भ किये गये कर्मोंके त्यागी तथा अन्यान्य कामसम्बन्धी वासनामय शब्दोंमें दोषदर्शी होते हैं। इन शुद्ध कारणोंसे सम्पन्न होनेके कारण उन्हें अमरताकी प्राप्ति हुई। प्रलयपर्यन्त स्थित रहनेवाले नैष्ठिक ऋषियोंका त्रिलोकीकी स्थितितक वर्तमान रहना अमरत्व कहलाता है। यह कामासक्त व्यक्तियोंको नहीं प्राप्त होता। ब्रह्महत्याजन्य पाप और अश्वमेधजन्य पुण्यसे ही इनमें अन्तर आता है। (भाव यह कि जैसे घोर पाप और महान् पुण्य प्रलयपर्यन्त जीवात्माके साथ लगे रहते हैं, बीचमें नष्ट नहीं होते, वैसे ही ऊर्ध्वरेताका शरीर भी तबतक स्थित रहता है।) सप्तर्षिमण्डलके ऊपर उत्तर दिशामें जहाँ ध्रुवका निवास है, वहीं भगवान् विष्णुका तीसरा दिव्य पद स्थित हुआ था, जो (अब भी) आकाशमें उद्भासित होता रहता है। भगवान् विष्णुके उस | परमपदको प्राप्त कर लेनेपर जीवोंको शोक नहीं करना पड़ता। इसलिये जिन्हें ध्रुवलोक प्राप्त करनेकी आकाङ्क्षा होती है, वे सदा धर्म-सम्पादनमें ही लगे रहते हैं ॥ 106- 113 ॥