मनुने पूछा- द्रव्य और मन्त्रोंको विधियोंके ज्ञाता (पूर्ण वेदविद्) भगवन्! सूर्य एवं चन्द्रके ग्रहणके अवसरपर स्नानकी जैसी विधि बतलायी गयी है, उसे मैं सुनना चाहता हूँ ॥ 1 ॥
मत्स्यभगवान्ने कहा— (राजन्!) जिस पुरुषकी राशिपर ग्रहणका प्लावन (लगना) होता है, उसके लिये मन्त्र और औषधके विधानपूर्वक स्नान बतला रहा हूँ। ऐसे मनुष्यको चाहिये कि चन्द्र ग्रहणके अवसरपर चार ब्राह्मणोंद्वारा स्वस्तिवाचन कराकर श्वेत पुष्प और चन्दन आदिसे उनकी पूजा करे। ग्रहणके पूर्व ही औषध आदिको एकत्र कर ले। फिर छिद्ररहित चार कलशोंकी, उनमें समुद्रकी भावना करके स्थापना करे। फिर उनमें सप्तमृत्तिका— हाथीसार, घुड़शाल, वल्मीक (बल्मोट दियाँड़), नदीके संगम, सरोवर, गोशाला और राजद्वारसे मिट्टी लाकर डाल दे। तत्पश्चात् उन कलशोंमें पञ्चगव्य, शुद्ध मुक्ताफल, गोरोचन, कमल, शङ्ख, पञ्चरत्र, स्फटिक, श्वेत चन्दन, तीर्थ-जल, सरसों, राजदन्त (एक ओषधिविशेष), कुमुद (कोइयाँ), खस, गुग्गुल - यह सब डालकर उन कलशोंपर देवताओंका आवाहन करे। (आवाहनका मन्त्र इस प्रकार है) यजमानके पापको नष्ट करनेवाले सभी समुद्र, नदियाँ, नद और जलप्रद तीर्थ यहाँ पधारें।' (इसके बाद प्रार्थना करे) 'जो देवताओंके स्वामी माने गये हैं तथा जिनके एक हजार नेत्र हैं, वे वज्रधारी इन्द्रदेव मेरी ग्रहणजन्य पीडाको दूर करें। जो समस्त देवताओंके मुखस्वरूप, सात ज्वालाओंसे युक्त और अतुल कान्तिवाले हैं, वे अग्निदेव चन्द्र ग्रहणसे उत्पन्न हुई मेरी पीडाका विनाश करें। जो समस्त प्राणियोंके कर्मोंके साक्षी हैं तथा महिष जिनका वाहन है, वे धर्मस्वरूप | यम चन्द्र ग्रहणसे उद्भूत हुई मेरी पीडाको मिटायें।जो राक्षसगणोंके अधीश्वर, साक्षात् प्रलयाग्रिके सदृश भयानक, खड्गधारी और अत्यन्त भयंकर हैं, वे निर्ऋति ग्रहणजन्य पीडाको दूर करें। जो नागपाश धारण करनेवाले हैं तथा मकर जिनका वाहन है वे जलाधीश्वर साक्षात् वरुणदेव मेरी चन्द्र ग्रहणजनित पीडाको नष्ट करें। जो प्राणरूपसे समस्त प्राणियोंकी रक्षा करते हैं, (तीव्रगामी) कृष्णमृग जिनका प्रिय वाहन है, वे वायुदेव मेरी चन्द्रग्रहणसे उत्पन्न हुई पीडाका विनाश करें' ।। 2-14 ll
'जो (नव) निधियोंके * स्वामी तथा खड्ग, त्रिशूल और गदा धारण करनेवाले हैं, वे कुबेरदेव चन्द्र-ग्रहणसे उत्पन्न होनेवाले मेरे पापको नष्ट करें। जिनका ललाट चन्द्रमासे सुशोभित है, वृषभ जिनका वाहन है, जो पिनाक नामक धनुष (या त्रिशूलको) धारण करनेवाले हैं वे देवाधिदेव शंकर मेरी चन्द्र ग्रहणजन्य पीडाका विनाश करें। ब्रह्मा, विष्णु और सूर्यसहित त्रिलोकीमें जितने स्थावर-जङ्गम प्राणी हैं वे सभी मेरे (चन्द्र ग्रहणजन्य) पापको भस्म कर दें।' इस प्रकार देवताओंको आमन्त्रित कर व्रती ऋग्वेद, यजुर्वेद और सामवेदके मन्त्रोंकी ध्वनिके साथ-साथ उन उपकरणयुक्त कलशोंके जलसे स्वयं अभिषेक करे। फिर श्वेत पुष्पोंकी माला, चन्दन, वस्त्र और गोदानद्वारा उन ब्राह्मणोंकी तथा इष्ट देवताओंकी पूजा करे। तत्पश्चात् वे द्विजवर उन्हीं मन्त्रोंको | वस्त्र-पट्ट अथवा कमल-दलपर अङ्कित करें, फिर पञ्चरत्न से युक्त करवाको यजमानके सिरपर रख दें। उस समय यजमान पूर्वाभिमुख हो अपने इष्टदेवकी पूजा कर उन्हें नमस्कार करते हुए ग्रहण-कालकी वेलाको व्यतीत करे। चन्द्र ग्रहणके निवृत्त हो जानेपर माङ्गलिक कार्य कर गोदान करे और उस (मन्त्रद्वारा अङ्कित) पट्टको स्नानादिसे शुद्ध हुए ब्राह्मणको दान कर दे ॥15- 21 ॥
जो मानव इस उपर्युक्त विधिके अनुसार ग्रहणका स्नान करता है, उसे न तो ग्रहणजन्य पीडा होती है और न उसके बन्धुजनोंका विनाश ही होता है, अपितु उसेपुनरागमनरहित परम सिद्धि प्राप्त हो जाती है। सूर्य ग्रहणमें मन्त्रोंमें सदा सूर्यका नाम उच्चारण करना चाहिये। इसके अतिरिक्त चन्द्र ग्रहण एवं सूर्य ग्रहण- दोनों अवसरोंपर सूर्यके निमित्त पद्मराग मणि और निशापति चन्द्रमाके निमित्त एक सुन्दर कपिला गौका दान करनेका विधान है। जो मनुष्य इस ( ग्रहणस्त्रानकी विधि) को नित्य सुनता अथवा दूसरेको श्रवण कराता है वह सम्पूर्ण पापोंसे | मुक्त होकर इन्द्रलोकमें प्रतिष्ठित होता है ॥ 22-25 ॥