सूतजी कहते हैं-ऋषियो। सूर्यका वह रथ प्रत्येक मासमें क्रमशः देवताओंद्वारा अधिष्ठित रहता है। इस प्रकार वह बहुत-से ऋषियों, गन्धवों, अप्सराओं, ग्रामणियों सर्पों और राक्षसोंके साथ सूर्यको वहन करता है। ये सभी देवगण दो-दो मासके क्रमसे सूर्यके निकट निवास करतेहैं धाता और अर्यमा दो देव, प्रजापति पुलस्त्य और प्रजापति पुलह दो ऋषि, वासुकि और संकीर्ण दो नाग, गायकोंमें श्रेष्ठ तुम्बुरु और नारद दो गन्धर्व, क्रतुस्थला और पुञ्जिकस्थला दो अप्सराएँ, रथकृत् और रथीजा दो ग्रामणी, हेति और प्रहेति दो राक्षस-इन सबका दल चैत्र और वैशाखमासमें सूर्यके रथपर निवास करता है। ग्रीष्म ऋतुके ज्येष्ठ और आषाढ़मासमें मित्र और वरुण देवता, अत्रि और वसिष्ठ ऋषि, तक्षक और रम्भक नाग, मेनका और सहजन्या अप्सरा, हाहा और हूहू गन्धर्व, रथन्तर और रथकृत् ग्रामणी, पुरुषाद और वध राक्षस ये सभी सूर्यके निकट रहते हैं। इसी प्रकार श्रावण और भाद्रपद मासमें इन्द्र और विवस्वान् देवता, अङ्गिरा और भृगु ऋषि, एलापत्र और शंखपाल नामक नाग, विश्वावसु और सुषेण गन्धर्व, प्रात और रथ नामक ग्रामणी, प्रम्लोचा | और निम्लोचन्ती अप्सरा तथा हेति और व्याघ्र राक्षस ये सभी सूर्यके रथपर निवास करते हैं ॥ 1-12 ॥
शरद ऋतु भी दो मासतक देवगण सूर्यके निकट वास करते हैं। पर्जन्य और पूषा देवता, भरद्वाज और गौतम ऋषि, चित्रसेन और सुरुचि गन्धर्व, शुभ लक्षणोंवाली विश्वामी और मृताची अप्सराएँ ऐरावत और सुप्रसिद्ध धनजय नाग, सेनजित् और सेनानायक सुषेण ग्रामणी, आप और वात नामक दो राक्षस ये सभी आश्विन और कार्तिकमासमें सूर्यके रथपर अधिरोहण करते हैं। हेमन्त ऋतुके दो महीने मार्गशीर्ष और पौष में अंश और भग देवता, कश्यप और क्रतु ऋषि, महापद्म और कर्कोटक नाग गानविद्यामें निपुण चित्रसेन और पूर्णाबु गन्धर्व, पूर्वचिति और उर्वशी अप्सरा, तक्षाव और अरिष्टनेमि नामक सेनापति एवं ग्रामणी,विद्युत् और सूर्य नामक दो उग्र राक्षस- ये सभी सूर्यके निकट वास करते हैं। तत्पश्चात् शिशिर ऋतु के माघ और फाल्गुनमासोंमें त्वष्टा और विष्णु देवता, जमदग्नि और विश्वामित्र ऋषि, कद्रूके पुत्र कम्बल और अश्वतर नाग, धृतराष्ट्र और सूर्यवर्चा गन्धर्व, तिलोत्तमा और मनोहारिणी रम्भा देवी अप्सरा, महाबली ऋतजित् और सत्यजित् ग्रामणी, ब्रह्मोपेत और यज्ञोपेत राक्षस ये सभी सूर्यके रथपर अधिरूढ़ होते हैं। इस प्रकार प्रत्येक दो मासके अन्तरसे ये सभी क्रमशः सूर्यके निकट निवास करते हैं ।। 13-24 ॥
ये बारह ससक (देव, ऋषि, नाग, गन्धर्व, अप्सरा, ग्रामणी और राक्षस) गण अपने-अपने स्थानके अभिमानी देवता हैं। ये अपने तेजसे सूर्यके तेजको उत्कृष्ट कर देते हैं। वहाँ ऋषिगण स्वरचित वचनों स्तोत्रोंद्वारा सूर्यका स्तवन करते हैं तथा गन्धर्व और अप्सराएँ नाच-गानके द्वारा सूर्यकी उपासना करती हैं। सूत - विद्यामें निपुण यक्षगण (सूर्यके रथके अश्वोंकी) बागडोर संभालते हैं। सर्प सूर्यमण्डलमें इधर-उधर दौड़ते तथा राक्षसगण सूर्यका अनुगमन करते हैं। बालखिल्य नामक ऋषि उदयकालसे ही सूर्यको घेरकर अस्ताचलको ले जाते हैं। इन देवताओंका जैसा पराक्रम, तपोबल, योगवल, धर्म, तत्त्व और शारीरिक बल होता है, उसीके अनुसार उनके तेजसे समृद्ध हुए सूर्य तपते हैं। वे अपने तेजसे प्राणियोंके सभी अमङ्गलको दूर कर देते हैं तथा इन्हीं मङ्गलमय उपादानोंद्वारा मनुष्योंके पापका अपहरण करते हैं। ये सहायकगण अपनी ओर अभिमुख होनेवालोंके पापको नष्ट कर देते हैं और | अपने अनुचरोंसहित आकाशमण्डलमें सूर्यके साथ ही भ्रमण करते हैं। ये जप-तप करके सभी प्रजाओंको प्रसन्न रखते हुए उनकी रक्षा करते हैं और दयावश सभी प्राणियोंकी शुभ-कामना करते हैं। भूत, भविष्य और वर्तमानकालके इन स्थानाभिमानियोंका वह स्थान प्रत्येक मन्वन्तरमें वर्तमान रहता है। इस प्रकार दो-दो हिसाबसे उन सातों गणोंके चौदह देवता सूर्यके रथपर | निवास करते हैं और चौदों मन्वन्तरोंतक वर्तमान रहते हैं।इस प्रकार सूर्य ग्रीष्म, हेमन्त और वर्षा ऋतुओंमें क्रमशः अपनी किरणोंको परिवर्तित कर धूप, हिम और जलकी वर्षा करके देवताओं पितरों और मानवोंको भलीभाँति तृप्त करते हुए प्रतिदिन रात-दिन चलते रहते हैं। जो शुद्ध अमृत उत्तम वृष्टिके लिये सूर्यकी किरणोंमें सुरक्षित रहता है, उसे देवगण प्रत्येक मासमें चन्द्रमामें प्रविष्ट होनेपर शुक्ल एवं कृष्णपक्षमें दिनके क्रमसे काल-क्षयके अनुसार पीते हैं। सभी देवगण तथा पितर कव्यस्वरूप उस अमृत चन्द्रमाका पान करते हैं। मानवगण सूर्यकी किरणोंद्वारा पोषित, जलद्वारा परिवर्धित और वृष्टिद्वारा सिंचित ओषधियों और अन्नसे अपनी क्षुधा शान्त करते हैं। उस स्वाहारूप अमृतसे देवताओंकी तृप्ति पंद्रह दिनतक तथा उस स्वधारूप अमृतसे पितरोंकी तृप्ति एक महीनेतक होती है। मनुष्य अनरूप अमृतसे सर्वदा जीवन धारण करते हैं वह अमृत सूर्यकी किरणोंमें स्थित है, अतः सूर्य अपनी किरणोंद्वारा सबका पालन करते हैं ll 25 - 38 ॥
इस प्रकार सूर्य अपने एक पहियेवाले रथसे शीघ्रतापूर्वक गमन करते हैं। दिनके व्यतीत हो जानेपर भी वे उन सात अश्वोंद्वारा चलते ही रहते हैं। हरे रंगवाले घोड़े सूर्यको वहन करते हैं। सूर्य अपनी किरणोंद्वारा हजारों प्रकारसे जल खींचते हैं। पुनः हरे रंगवाले मोड़ोंद्वारा वहन किये जाते हुए वे ही सूर्य उस जलको बरसाते हैं। इस तरह सूर्य अपने एक पहियेवाले रथसे दिनके क्रमानुसार मण्डलके बाहर और भीतर होते हुए सात-सातके क्रमसे सातों समुद्रों में दिन-रात वेगपूर्वक घूमते रहते हैं। जहाँ वह चक्र पहुँचता है, वहीं उनकी स्थिति मानी जाती है। उनके रथके (समुद्रसे उत्पन्न श्यामकर्ण) अश्व छन्दः स्वरूप, स्वेच्छानुसार रूप धारण करनेवाले, एक ही बार जुते हुए इच्छानुरूप गमन करनेवाले और मनके समान शीघ्रगामी हैं। उनके शरीरका रंग हरा और पीला है। उन्हें थकावट नहीं होती। वे शक्तिशाली और ब्रह्मवादी हैं। वे कल्पके आरम्भमें रथमें जोते जाते हैं और प्रलय पर्यन्त उस रथको वहन करते हैं। इस प्रकार वालखिल्य ऋषियोंद्वारा समावृत सूर्य रात-दिन भ्रमण करते रहते हैं।उस समय महर्षिगण स्वरचित वचनोंद्वारा सूर्यकी स्तुति करते हैं। गन्धर्वों और अप्सराओंका समुदाय नाच-गानद्वारा सूर्यको सेवा करता है। दिनके स्वामी सूर्य पक्षियोंक समान वेगशाली अधोंद्वारा सदा भ्रमण कराये जाते हुए नक्षत्रसम्बन्धिनी वीथियोंका आश्रय लेकर भ्रमण करते हैं। इसी प्रकार चन्द्रमा भी चक्कर लगाते हैं। इनकी भी हास वृद्धि और किरणें सूर्यके समान ही बतलायी गयी हैं। चन्द्रमाका रथ तीन पहियेका है और उसमें दोनों ओर घोड़े जुते रहते हैं। घोड़े-सारथि और हारसे सुशोभित तथा तीन पहियोंसे युक्त रथके साथ चन्द्रदेव (समुद्र मन्थनके समय) जलके मध्यसे प्रकट हुए थे। उसमें श्वेत रंगवाले तथा दस उत्तम घोड़े जुते हुए थे। वे अश्व दिव्य, अनुपम और मनके समान वेगशाली हैं। वे एक बार उस रथमें जोत दिये जानेपर युगप्रलयपर्यन्त उस रथको वहन करते हैं। उस रथमें जुते हुए चक्षुःश्रवानामक घोड़े चन्द्रमाको वहन करते हैं, उनके नेत्र और कान भी श्वेत रंगके हैं। वे सभी शङ्खके समान उज्ज्वल एक ही रंगके हैं। चन्द्रमाके उन दस अधोंका नाम अज, त्रिपथ, वृष, वाजी, नर, हय, अंशुमान् सप्तधातु, हंस और व्योममृग है। इस प्रकार के अश्व युगप्रलयपर्यन्त चन्द्रदेवको वहन करते हैं। चन्द्रमा पितरोंसहित | देवताओंद्वारा घिरे हुए गमन करते हैं ।। 39-523 ।।
शुक्लपक्ष प्रारम्भमें सूर्यके परभागमें स्थित होनेपर चन्द्रमाका परभाग दिनके क्रमसे पूर्ण होता है। उस समय (देवताओंद्वारा अमृत) पी लेनेसे क्षीण हुए चन्द्रमाको सूर्य एक ही बारमें पूर्ण कर देते हैं। इस प्रकार पंद्रह दिनोंतक देवताओंद्वारा चूसे गये चन्द्रमाके एक-एक भागको सूर्य अपनी एक ही किरणद्वारा दिनके क्रमसे परिपूर्ण करते रहते हैं। सूर्यकी सुषुम्ना नामक किरणद्वारा परिवर्धित चन्द्रमाको कलाएँ शुक्लपक्षमें वृद्धिको प्राप्त होती हैं तथा कृष्णपक्षमें क्षीण हो जाती हैं। पुनः शुक्लपक्षमें वे बढ़ती जाती हैं। इस प्रकार सूर्यके पराक्रमसे चन्द्रमाका शरीर वृद्धिगत होता है और धीरे-धीरे पूर्णिमा तिथिको पूर्ण होकर सम्पूर्ण मण्डल वर्णका दिखायी पड़ता है। इस प्रकार शुक्लपक्षमें दिन के क्रमसे चन्द्रमा वृद्धिको प्राप्त होते हैं। तदनन्तर जलके सारभूत एवं रसमात्रात्मक चन्द्रमाके मधु-सदृश जलमय अमृतको देवगण कृष्णपक्षकी द्वितीयासे लेकर चतुर्दशी तिथितक पान करते हैं। पंद्रह दिन सूर्यके तेजसे सञ्चित किये हुए अमृतको खानेके लिये पूर्णिमा तिथिको चन्द्रमाके निकट आये हुए देवगणपितरों और ऋषियोंके साथ एक राततक चन्द्रमाकी उपासना करते हैं। कृष्णपक्ष प्रारम्भमें सूर्यके सम्मुख उपस्थित चन्द्रमाका मन पान की जाती हुई कलाओंके क्रमसे अत्यन्त क्षीण हो जाता है। उस समय तैंतीस हजार तीन सौ तैंतीस देवता चन्द्रमाकी अमृतकलाको पीते हैं। | इस प्रकार पान किये जाते हुए चन्द्रमाको वे कृष्णपक्षीय कलाएँ (शुक्लपक्षमें) बढ़ती हैं और शुक्लपक्षीय कलाएँ (कृष्णपक्ष) घटती हैं। पुनः कृष्णपक्षीय कलाएँ बढ़ती हैं। (यही शुक्लपक्ष और कृष्णपक्षमें बढ़ने-घटनेका क्रम है।) ।। 53-633॥
इस प्रकार दिनके क्रमसे देवगण पंद्रह दिनतक चन्द्रमाके अमृतका पान करते हैं और अमावास्या तिथिको वे वहाँसे चले जाते हैं। तब पितृगण अमावास्या तिथिमें चन्द्रमाके पास आते हैं। तदनन्तर चन्द्रमाके पंद्रहवें भागके कुछ शेष रहनेपर वे पितर दूसरे दिन अपराह्न के समय उन सभी अवशिष्ट कलाओंको केवल दो कला समयतक ही पान करते हैं। अमावास्यातक पंद्रह दिन पर्यन्त चन्द्रमाकी किरणोंसे निकलते हुए स्वधारूपी अमृतका पानकर पितृगण अमर हो जाते हैं। वे सभी पितर सौम्य, बर्हिषद्, अग्निष्वात्त और काव्य नामसे कहे गये हैं। पाँच वर्षके कार्यकालवाले जो पितर हैं, जिन्हें द्विजगण काव्य कहते हैं, वर्ष हैं। सौम्य नामक पितरोंको पक्ष ऋतु जानना चाहिये। दो बर्हिषद् और अग्रिष्वात्तको मास—ये दोनों पितृलोकमें निवास करनेवाले द्विज हैं। पूर्णिमा तिथिको पितरोंद्वारा पान की जाती हुई कलाका जितना अंश क्षीण होता है, वह पंद्रहवाँ भाग है। अमावास्याके बाद चन्द्रमाका रिक्त भाग पूर्ण होता है। चन्द्रमाकी वृद्धि और क्षय दोनों पक्षोंके प्रारम्भमें ही माना गया है, उसे सोलहवीं कला कहते हैं। इस प्रकार चन्द्रमाकी क्षय वृद्धि सूर्यके निमित्तसे ही होती है । ll 64-72 ॥