इस प्रकार सूर्य और चन्द्रमाकी गति तथा सभी ग्रहोंके गतिचारकी सारी दिव्य कथाको सुनकर शौनकादि ऋषिगण लोमहर्षणके पुत्र सूतजीसे बोले ॥ 1 ॥
ऋषियोंने पूछा- वक्ताओंमें श्रेष्ठ सूतजी! ये ग्रह, नक्षत्र आदि ज्योतिर्गण तिर्यग्व्यूहमें निबद्ध हो सूर्यमण्डलमें किस प्रकार घूमते हैं? ये सभी परस्पर मिलकर घूमते हैं अथवा पृथक्-पृथक् ? इन्हें कोई घुमाता है या ये स्वयं घूमते हैं? हमें इस रहस्यको जाननेकी विशेष उत्कण्ठा है, अतः आप इसका वर्णन कीजिये ॥ 2-3॥
सूतजी कहते हैं-ऋषियो! यह विषय प्राणियोंको मोहमें डाल देनेवाला है; क्योंकि यह प्रत्यक्षरूपसे दृश्य होनेपर भी प्रजाओंको मोहित कर देता है। मैं इसका वर्णन कर रहा हूँ, सुनिये !आकाशमण्डलमें जो यह (चौदह) नक्षत्रोंके मध्य में स्थित शिशुमार नामक चक्र है वही उत्तानपादका पुत्र ध्रुव है, जो (उस चक्रमें) मेंढीके समान है। वह ध्रुव स्वयं भ्रमण करता हुआ ग्रहोंके साथ सूर्य और चन्द्रमाको भी घुमाता है। नक्षत्रगण भी चक्रको भाँति घूमते हुए ध्रुवके पीछे-पीछे चलते हैं जो ज्योतिर्गण वायुमय बन्धनद्वारा ध्रुवमें निबद्ध है, यह ध्रुवके मानसिक संकल्पसे ही घूमता है। उन ज्योतिर्गणोंके भेद, योग, कालका निश्चय, अस्त, उदय, उत्पात, उत्तरायण एवं दक्षिणायनमें गमन, विषुवत् रेखापर स्थिति और ग्रहोंके वर्ण आदि सभी कार्य ध्रुवकी प्रेरणासे होते हैं। (भगणके नीचे मेघ हैं।) जिनसे जीवोंकी उत्पत्ति होती है, उन मेघोंको जीमूत कहते हैं। वे मेघ यहाँसे एक योजन दूर आवह नामक दूसरी वायुके आश्रयपर टिके हुए हैं। उनमें कुछ विकार उत्पन्न हो जानेपर वे ही वृष्टि करते हैं, जो महावृष्टि कही जाती है। पूर्वकालमें महान् ओजस्वी इन्द्रने प्राणियोंके कल्याणकी भावनासे स्वच्छन्दचारी एवं समृद्धिशाली पर्वतोंके पंखोंको काट डाला था। उन पंखों से उत्पन्न हुए मेथोंको पुष्करावर्तक कहते हैं। पर्वतोंके पंखोंका नाम पुष्कर था, वे बहुत बड़े-बड़े और जलसे भी परिपूर्ण थे, इसी कारण वे मेघ भी पुष्करावर्तक नामसे कहे गये हैं। ये अनेकों प्रकारके रूप धारण करनेवाले, महान् भयंकर गर्जनासे युक्त, कल्पान्तके समय वृष्टि करनेवाले, कल्पान्तकी अग्रिके प्रशामक, अमृतयुक्त और कल्प अर्थात् प्रलयके साधक हैं । ll 4-14 ।।
वे वायुके आधारपर चलते-फिरते हैं। इस अण्डके विदीर्ण होनेपर उससे जो प्राकृतिक कपाल निकले थे और जिसमें सामर्थ्यशाली स्वयं चतुर्मुख ब्रह्मा उत्पन्न हुए थे, उन्हीं अण्डकपालोंको सभी मेघोंके रूपमें बतलाया जाता है। उन सभी मेघोंको समानरूपसे तृप्त करनेवाला धूम है। उनमें पर्जन्य नामक मेघ सबसे श्रेष्ठ है। इसके अतिरिक्त ऐरावत, वामन, अज्ञन आदि चार दिग्गज हैं। हाथी, पर्वत, मेघ और सर्प इन सबका कुल एक है जो दो भागों में विभक्त हो गया है परंतु इनकी योनि (उत्पत्ति स्थान) एक ही है, जो जल नामसे कही जातीहै। पर्जन्य मेघ और चारों वृद्ध दिग्गज हेमन्त ऋतु अन्नको वृद्धिके लिये शीतसे उत्पन्न हुए तुषारकी वर्षा करते हैं। परिवह नामक छठी वायु इनका आश्रय है। यह ऐश्वर्यशाली पवन आकाशगामिनी गङ्गाको, जो दिव्य अमृतरूपी जलसे परिपूर्ण, पुण्यमयी तथा त्रिपथगा नामसे विख्यात है, धारण करता है, गङ्गासे निकले हुए जलको दिग्गज अपने मोटे-मोटे शुण्डोंसे फुहारेके रूपमें छोड़ते हैं उसे नौहार (कुहासा) कहते हैं। दक्षिण पार्श्वमें जो पर्वत है, वह हेमकूट नामसे प्रसिद्ध है वह हिमालय पर्वतके उत्तर और दक्षिण- दोनों दिशाओंमें फैला हुआ है। वहाँ पुण्ड नामक एक प्रसिद्ध नगर है। उसी नगर में वह तुषारसे उत्पन्न हुई वर्षा होती है। तदनन्तर हिमवान् पर्वतसे उद्भूत हुई वायु वहाँ उत्पन्न हुए शीकरोंको अपने साथ ले आती है और बड़े वेगसे उस महान् गिरिको सींचती हुई उसका अतिक्रमण करके इभास्य नामक वर्षमें निकल जाती है। तत्पश्चात् प्राणियोंकी वृद्धिके लिये वहाँ शेष वृष्टि होती है। पहले जिन दो वर्षोंका वर्णन किया गया है, उनमें अच्छी तरह वृष्टि होती है। इस प्रकार मैंने मेघों तथा उनसे उत्पन्न हुई सारी वृष्टिका वर्णन कर दिया ।। 15-263 ॥
सूर्य ही सब प्रकारकी वृष्टियोंके मूल कारण कहे जाते हैं। इस लोकमें वर्षा, धूप, हिम, रात्रि, दिन, दोनों संध्याएँ और शुभ एवं अशुभ कर्मोंके फल ध्रुवसे प्रवर्तित होते हैं। ध्रुवद्वारा अधिष्ठित जलको सूर्य ग्रहण करते हैं। जल सभी प्राणियोंके शरीरोंमें परमाणुरूपसे स्थित है। इसी कारण स्थावरजङ्गम सभी प्राणियोंके शरीरोंके जलाये जानेपर उनमेंसे वह जल धुएँके रूपमें | बाहर निकलता है। उसी भूमसे बादल बनते हैं, इसलिये धूमको अभ्रमय स्थान कहा जाता है। सूर्य अपनी तेजोमयी किरणोंद्वारा सभी लोक (स्थानों) से जल ग्रहण करते हैं। इसी प्रकार से ही किरणें वायुके संयोगसे समुद्रसे भी जल खींचती हैं। तदनन्तर सूर्य ऋतुओंके अनुसार समय-समयपर जलको परिवर्तित कर अपनी श्वेत किरणोंद्वारा वह शुद्ध जल को देते हैं तब वायुद्वारा प्रेरित हुआ वह मेपस्थित जल वर्षाके रूपमें भूतलपर गिरता है। | इस प्रकार सूर्य सभी प्राणियोंकी समृद्धिके निमित्त छः महीनेतक वर्षा करते हैं। उस समय वायुके आघात से मेघनिर्घोष भी होता है (बिजली भी चमकती है।) ये बिजलियाँ अग्निसे प्रादुर्भूत बतलायी जाती हैं।'मिह सेचने' अर्थात् 'मिह' धातु सेचन अथवा मेहनके अर्थमें प्रयुक्त होती है, इसलिये 'मिह'- धातुसे मेघ शब्द निष्पन्न होता है। इसी प्रकार 'अपो विभ्रति' या "न भ्रश्यन्ते आपो यस्मात् जिससे जल नहीं गिरते, उसे अन्ध्र या अभ्र कहते हैं। इस तरह ध्रुवद्वारा अधिकृत सूर्य वृष्टिसर्गकी सृष्टि करते हैं। पुनः ध्रुवद्वारा नियुक्त वायु उस वृष्टिका संहार करती है। नक्षत्रमण्डल सूर्यमण्डलसे निवृत्त होकर विचरण करता है और जब विचरण समाप्त हो जाता है, तब ध्रुवद्वारा अधिष्ठित सूर्यमें प्रविष्ट हो जाता है ॥। 27-363 ॥
इसके बाद अब सूर्यके रथकी रचना बतलायी जाती है। उसमें एक पहिया, पाँच अरे (अरगजे) और तीन नाभियाँ हैं उस चक्रकी नेमि (घेरे) में स्वर्णमयी आठ छोटी-छोटी पुडियाँ लगी हैं। ऐसे उद्दीत एवं शीघ्रगामी रथपर बैठकर सूर्य विचरण करते हैं। उस रथकी लम्बाई एक लाख योजन बतलायी जाती है। उसका ईषादण्ड (हरसा) रथके उपस्थ (मध्यभाग) से प्रमाणमें दुगुना है। ब्रह्माने किसी मुख्य प्रयोजनवश उस रथका निर्माण किया था उसका असङ्ग (वह रस्सी, जिससे घोड़े रथमें बँधे रहते हैं) दिव्य एवं स्वर्णमय है। उसमें पवनके समान शीघ्रगामी घोड़े जुते हुए हैं। चक्रके अनुकूल चलनेवाले छन्द ही उन मोड़ोंके रूपमें उपस्थित होते हैं। वह रथ वरुणके रथके लक्षणोंसे मिलता जुलता-सा है उसी रथसे सूर्य प्रतिदिन गगन मण्डलमें विचरते हैं। सूर्यके अङ्गों तथा रथके अवयवोंको समतामें क्रमशः कल्पना की गयी है। दिनको सूर्यके एक पहियेवाले रथकी नाभि कहा जाता है। वर्ष उसके अरे और छहों ऋतुएँ उसकी नेमि कहलाती हैं। रात्रि उसका वरूथ (कवच, बख्तर) और धूप ऊपर फहरानेवाला ध्वज है। चारों युग इसके धुरेके दोनों छोर हैं और कलाएँ आतंवाह कही गयी हैं। काष्ठा उसकी नासिका तथा क्षण उसके दो पल हैं। निमेषको इसका अनुकर्ष (रथका तला) और कलाको ईषा (हरसा) कहते हैं। उनके जुएके दोनों छोर अर्थ और काम कहलाते हैं । ll 37-453 ॥
गायत्री, त्रिष्टुप, जगती, अनुष्टुप् पति, बृहती और उष्णिक्-ये सातों छन्द सातों घोड़ोंके रूपमें हैं, जो वायु-वेगसे रथको वहन करते हैं।इस रथका चक्र अक्षमें बँधा हुआ है और वह अक्ष ध्रुवसे संलग्न है। इसलिये चक्रके साथ अक्ष और अक्षके साथ ध्रुव घूमता रहता है। इस प्रकार ध्रुवद्वारा प्रेरित अक्ष चक्रके साथ ही घूमता है। किसी मुख्य प्रयोजनवश ब्रह्माने इस रथका निर्माण किया है तथा इस प्रकारके अवयवोंके संयोगसे यह सूर्यका रथ सिद्ध हुआ है। इसी रथसे सूर्यदेव आकाशमण्डलमें भ्रमण करते हैं। उस रथके जुए और धुरेके छोर दाहिनी ओरसे घूमते हैं। जब वह रथ आकाशमें मण्डलाकार घूमता है, उस समय उसकी किरणें भी मण्डलाकार घूमती-सी दीख पड़ती हैं। यह मण्डल कुम्हारके चाककी भाँति चारों दिशाओंमें घूमता है। उस रथकी दोनों युगाक्षकोटि और वातोर्मिके चारों दिशाओंमें मण्डलाकार घूमते समय उस रथकी किरणें बढ़ जाती हैं और दक्षिणायनमें घट जाती हैं। वे दोनों किरणें रथकी युगाक्षकोटि में बँधी हुई हैं और वे ध्रुवमें निबद्ध हैं। ये सूर्यसे भी सम्बद्ध हैं। ध्रुव जब उन दोनों किरणोंको खींचते हैं, तब सूर्य मण्डलके अन्तर्गत ही भ्रमण करते हैं। उस समय सूर्य दोनों दिशाओंके एक सौ अस्सी मण्डलोंमें चक्कर लगाते हैं। पुनः जब ध्रुव दोनों किरणोंको छोड़ देते हैं, तब सूर्य मण्डलोंके बाह्य भागमें घूमने लगते हैं। उस समय वे मण्डलोंको उद्वेष्टित करते हुए बड़े वेगसे चलते हैं ॥ 46-58 ॥