ऋषियोंने पूछा-तत्त्वज्ञ सूतजी! अब आप हम लोगोंसे सम्पूर्ण सूर्यवंश तथा चन्द्रवंशका क्रमशः यथार्थ रूपसे वर्णन कीजिये ॥ 1 ॥
सूतजी कहते हैं-ऋषियो। पूर्वकालमें महर्षि कश्यपसे अदितिको विवस्वान् (सूर्य) पुत्ररूपमें उत्पन्न हुए थे। उनकी संज्ञा, राज्ञी तथा प्रभा नामकी तीन पत्रियाँ थीं। इनमें रेवतकी कन्या राज्ञीने रैवत नामक पुत्रको तथा प्रभाने प्रभात नामक पुत्रको उत्पन्न किया। संज्ञा त्वाष्ट्र (विश्वकर्मा) की पुत्री थी। उसने वैवस्वत मनु और यम नामक दो पुत्र एवं यमुना नामकी एक कन्याको उत्पन्न किया। इनमें यम और यमुना जुड़वे पैदा हुए थे। कुछ समयके पश्चात् जब सुन्दरी त्वाष्ट्री (संज्ञा) विवस्वान्के तेजोमय रूपको सहन न कर सकी, तब उसने अपने शरीरसे अपने ही रूपके समान एक अनिन्द्यसुन्दरी नारीको उत्पन्न किया। वह 'छाया' नामसे प्रसिद्ध हुई। उस छायाको अपने सामने खड़ी देखकर संज्ञाने उससे कहा-'वरानने छाये! तुम हमारे पतिदेवकी सेवा करना, साथ ही मेरी संतानोंका माताके समान स्नेहसे पालन-पोषण करना।" तब बहुत अच्छा, ऐसा ही होगा'- कहकर वह सुव्रता पतिकी सेवाभावनासे विवस्वान्देवके निकट गयी। इधर विवस्वान्देव भी 'यह संज्ञा ही है'- ऐसा समझकर छायाके साथ आदरपूर्वक पूर्ववत् व्यवहार करते रहे। यथासमय उन्होंने उसके गर्भसे मनुके समान रूपवाले एक पुत्रको उत्पन्न किया। ये वैवस्वत मनुके सवर्ण (रूप-रंगवाला) होनेके कारण 'सावर्णि' नामसे प्रसिद्ध हुए। तदुपरान्त सूर्यने "यह संज्ञा ही है- ऐसा मानकर छायाके गर्भसे क्रमशः एक शनि नामका पुत्र और तपती एवं विष्टि नामको दो कन्याओंको भी उत्पन्न किया। छाया अपने पुत्र मनुके प्रति अन्य संतानोंसे अधिक स्नेह रखती थी। उसके इस व्यवहारको संज्ञा नन्दन मनु तो सहन कर लेते थे, परंतु यम (एक दिन सहन न होनेके कारण) क्रुद्ध हो उठे और अपने दाहिने पैरको उठाकर छायाको मारनेकी धमकी देने लगे। तब छायाने यमको शाप देते हुए कहा- 'तुम्हारे इस एक पैरको कीड़े काट खायेंगे और इससे पीब एवंरुधिर टपकता रहेगा।' इस शापको सुनकर अमर्षसे भरे ह यम पिताके पास जाकर निवेदन करते हुए बोले- 'देव क्रुद्ध हुई माताने मुझे अकारण ही शाप दे दिया है। विभो ! बालचापल्यके | कारण मैंने एक बार अपना दाहिना पैर कुछ ऊपर उठा दिया था, (इस तुच्छ अपराधपर) भाई मनुके मना करनेपर भी उसने मुझे ऐसा शाप दे दिया है। चूँकि इसने हमपर शापद्वारा प्रहार किया है इसलिये यह हम लोगोंकी माता नहीं प्रतीत होती (अपितु बनावटी माता है)।' यह सुनकर विवस्वान्देवने | पुनः यमसे कहा 'महाबुद्धे! मैं क्या करूँ? अपनी मूर्खता के कारण किसको दुःख नहीं भोगना पड़ता अथवा (जन्मान्तरीय शुभाशुभ कर्मपरम्परका फलभोग अनिवार्य है। यह नियम तो शिवजीपर भी लागू है, फिर अन्य प्राणियोंके लिये तो कहना ही क्या है। इसलिये बेटा! मैं तुम्हें यह एक मुर्गा (या मोर) दे रहा हूँ, जो पैरमें पड़े हुए कीड़ोंको खा जायगा और उससे निकलते हुए मजा (पीच) एवं खूनको भी दूर कर देगा' ॥2- 17 ॥
पिताद्वारा इस प्रकार कहे जानेपर महायशस्वी यमके मनमें विराग उत्पन्न हो गया। वे गोकर्णतीर्थमें जाकर फल, पत्ता और वायुक्का आहार करते हुए कठोर तपस्यामें संलग्न हो गये। इस प्रकार वे बीस हजार वर्षोंतक महादेवजीकी आराधना करते रहे। कुछ समयके पश्चात् त्रिशूलधारी महादेव उनकी तपस्यासे सन्तुष्ट होकर प्रकट हुए। तब यमने उनसे वररूपमें लोकपालत्व, पितरोंका आधिपत्य और जगत्के धर्म-अधर्मका निर्णायक पद प्राप्त करनेकी इच्छा व्यक्त की। महादेवजीने उन्हें सभी वरदान दे दिये। निष्याप शौनक इस प्रकार यमको शूलपाणि भगवान् शंकरसे लोकपालत्व, पितरोंका आधिपत्य और धर्माधर्मके निर्णायक पदकी प्राप्ति हुई है। इधर विवस्वान् संज्ञाकी उस कर्मचेष्टको जानकर त्वष्टा (विश्वकर्मा) के निकट गये और क्रुद्ध होकर उनसे सारा वृत्तान्त कह सुनाये। द्विजवरो ! तब त्वष्टाने सान्त्वनापूर्वक विवस्वानसे कहा- 'भगवन्! अन्धकारका विनाश करनेवाले आपके प्रचण्ड तेजको न सहन करनेके कारण संज्ञा घोड़ीका रूप धारण करके यहाँ मेरे समीप अवश्य आयी थी, परंतु दिवाकर! मैंने उसे यह कहते हुए (घरमें घुसनेसे) मना कर दिया- 'चूँकि तू | अपने पतिदेवको जानकारीके बिना छिपकर यहाँ मेरे पास आयी है, इसलिये मेरे भवनमें प्रवेश नहीं कर सकती।' इस प्रकार मेरे निषेध करनेपर आपके और मेरे- दोनों स्थान निराश होकर वह अनिन्दिता संज्ञा मरुदेशको चली गयी और यहाँ उसी घोड़ी-रूपसे हो भूतलपर स्थित है।इसलिये 'दिवाकर! यदि मैं आपका अनुग्रह-भाजन हूँ तो आप मुझपर प्रसन्न हो जाइये (और मेरी एक प्रार्थना स्वीकार कीजिये)। प्रभो! मैं आपके इस असह्य तेजको (खरादनेवाले) यन्त्रपर चढ़ाकर कुछ कम कर दूंगा। इस प्रकार आपके रूपको लोगोंके लिये आनन्ददायक बना दूँगा।' सूर्यद्वारा उनकी प्रार्थना स्वीकार कर लिये जानेपर त्वष्टाने सूर्यको अपने (खराद) यन्त्रपर बैठाकर उनके कुछ तेजको छाँटकर अलग कर दिया। उस छाँटे हुए तेजसे उन्होंने विष्णुके सुदर्शनचक्रका भगवान् रुद्रके त्रिशूलका और दैत्यों एवं दानवोंका संहार करनेवाले इन्द्रके वज्रका निर्माण किया। इस प्रकार त्वष्टाने पैरोंके अतिरिक्त सूर्यके सहस्र किरणोंवाले रूपको अनुपम सौन्दर्यशाली बना दिया। उस समय वे सूर्यके पैरोंके तेजको देखने में समर्थ न हो सके (इसलिये वह तेज ज्यों-का त्यों बना ही रह गया)। अतः अर्चा-विग्रहों में भी कोई सूर्यके चरणोंका निर्माण नहीं करता) कराता। यदि कोई वैसा करता है तो उसे (मरनेपर) अत्यन्त निन्दित पापिष्ठ गति प्राप्त होती है तथा इस लोकमें वह दुःख भोगता हुआ कुष्ठरोगी हो जाता है। इसलिये धर्मात्मा मनुष्यको चित्रों | एवं मन्दिरोंमें कहीं भी बुद्धिमान् देवदेवेश्वर सूर्यके पैरोंको नहीं (बनाना) बनवाना चाहिये ॥ 18-33 ॥
त्वष्टाद्वारा संज्ञाका पता बतला दिये जानेपर वे देवेश्वर भगवान् सूर्य भूलोकमें जा पहुँचे। वहाँ उनके द्वारा संज्ञासे अश्विनीकुमारोंकी उत्पत्ति हुई यह एकदम तथ्य बात है। संज्ञाकी नासिकाके अग्रभागसे उत्पन्न होनेके कारण वे दोनों नासत्य और दस्र नामसे भी विख्यात हुए। कुछ दिनोंके पश्चात् अश्वरूपधारी सूर्यदेवको पहचानकर त्वाष्ट्री (संज्ञा) परम सन्तुष्ट हुई और हर्षपूर्ण चित्तसे पतिके साथ विमानपर बैठकर स्वर्गलोक (आकाश) को चली गयी छायी संतानोंमें) तपोधन साथ मनु आज भी सुमेरुगिरिपर विराजमान हैं शनिने अपनी तपस्याके प्रभावसे ग्रहोंकी समता प्राप्त की। बहुत दिनोंके बाद यमुना और पीये दोनों कन्याएँ नदीरूपमें | परिणत हो गयीं। उसी प्रकार भयंकर रूपवाली तीसरी कन्या विष्टि (भद्रा) काल (करण) रूपमें अवस्थित हुई। वैवस्वत मनुके दस महाबली पुत्र उत्पन्न हुए थे उनमें | इल ज्येष्ठ थे, जो पुत्रेष्टि यज्ञके फलस्वरूप पैदा हुए थे।शेष नौ पुत्रोंके नाम हैं- इक्ष्वाकु, कुशनाभ, अरिष्ट, नरिष्यन्त, करूप, शर्याति, पृषध और नाभाग। ये सब के-सब महान् बल-पराक्रमसे सम्पन्न एवं दिव्य पुरुष थे। वृद्धावस्था आनेपर परम धर्मात्मा महाराज मनु अपने ज्येष्ठ पुत्र इलको राज्यपर अभिषिक्त करके स्वयं तपस्या करनेके लिये महेन्द्रपर्वतके वनमें चले गये। तदनन्तर नये भूपाल इल दिग्विजय करनेकी इच्छासे इस पृथ्वीपर विचरण करने लगे। वे भूपालोंको पराजित करते हुए सभी द्वीपोंमें घूम रहे थे। इसी बीच प्रतापी इस घोड़ा दौड़ाते हुए शिवजीके उपवनके निकट जा पहुँचे। यह महान् उपवन कल्पद्रुम और लताओंसे भरा हुआ 'शरवण' नामसे प्रसिद्ध था। उस उपवनमें चन्द्रार्धको ललाटमें धारण करनेवाले देवेश्वर शम्भु उमाके साथ कीडा करते हैं। उन्होंने इस शरवणके विषयमें पहले ही उमाके साथ यह समय (शर्त) निर्धारित कर दिया था कि 'तुम्हारे इस दस योजन विस्तारवाले वनमें जो कोई भी पुरुषवाचक जीव प्रवेश करेगा, वह स्त्रीत्वको प्राप्त हो जायगा।' राजा इलको पहलेसे इस 'समय' (शर्त) के विषयमें जानकारी नहीं थी, अतः वे स्वच्छन्दगतिसे शरवणमें प्रविष्ट हुए। प्रवेश करते ही वे स्त्रीत्वको प्राप्त हो गये। उसी समय वह घोड़ा भी घोड़ीके रूपमें परिवर्तित हो गया। इलके शरीरसे सारा पुरुषत्व नष्ट हो गया। इस प्रकार स्त्री-रूप हो जानेपर राजाको परम विस्मय हुआ ॥ 34-47 ll
वह नारी इला नामसे प्रख्यात हुई। उसका रूप बड़ा सुन्दर था। उसके नेत्र कमलदलके समान बड़े बड़े थे उसके मुखको कान्ति पूर्णिमाके चन्द्रमाके सदृश थी। उसका शरीर हलका था। उसके नेत्र चकित से दीख रहे थे। उसके बाहुमूल उन्नत और भुजाएँ लम्बी थीं तथा बाल नीले एवं घुंघराले थे। उसके शरीरके रोएँ सूक्ष्म और दाँत अत्यन्त मनोहर थे। वह मृदु और गम्भीर स्वरसे बोलनेवाली थी। उसके शरीरका रंग श्याम-गौरमिश्रित था। वह हंस और हस्तीकी-सी चालसे चल रही थी। उसकी दोनों भौंहें धनुषके आकारके सदृश थीं। वह छोटे एवं ताँबेके समान लाल नखाडुरोंसे विभूषित थी। इस प्रकार वह सुन्दरी 'नारी' उस वनमें भ्रमण करती हुई सोचने लगी कि इस घोर वनमें कौन मेरा पिता अथवा भाई है तथा कौन मेरी माता है। मैं किस पतिके हाथमें समर्पित की गयी हूँ अर्थात् कौन मेरा पति है। इस भूतलपर मुझे कितने दिनोंतक रहना पड़ेगा!' इस प्रकार वह चिन्तन कर ही रही थी कि इसी बीच सोम-पुत्र बुधने उसे देख लिया और वे उसे प्राप्त करनेके लिये प्रयत्न करने लगे।उस समय बुधने एक विशिष्ट वेष-भूषावाले दण्डीका रूप धारण कर लिया। उनके हाथोंमें कमण्डलु और पुस्तक शोभा पा रहे थे। उन्होंने बाँसके डंडेमें अनेकों पवित्र वस्तुओंको बाँध रखा था। वे ब्रह्मचारी वेषमें लम्बी-मोटी शिखा धारण किये हुए थे। समिधा, पुष्प, कुश और जल लिये हुए वटुकोंके साथ वे वेदका पाठ कर रहे थे। वे अपनेको ऐसा प्रकट कर रहे थे मानो उस वनमें किसी वस्तुकी खोज कर रहे हों। इस प्रकार उस वनके बहिर्भागमें वृक्षसमूहोंके झुरमुटमें बैठकर वे उस इलाको बुलाने लगे। इलाके निकट आनेपर वे अकस्मात् चकपकाये हुएकी भाँति उलाहना देते हुए उससे बोले— 'सुन्दरि ! अग्रिहोत्र आदि सेवा-शुश्रूषाका परित्याग करके तुम मेरे घरसे कहाँ चली आयी हो ?' यह सुनकर इलाने कहा— 'तपोधन! मैं अपनेको, आपको, पतिको और कुलको इन सभीको भूल गयी हूँ, अतः निष्पाप ! आप अपने और मेरे कुलका परिचय दीजिये।' इलाके इस प्रकार पूछनेपर बुधने उस सुन्दरीसे कहा 'वरवर्णिनि तुम इला हो और मैं बहुत-सी विद्याओंका ज्ञाता बुध नामसे प्रसिद्ध मैं तेजस्वी कुलमें उत्पन्न हुआ हूँ और मेरे पिता ब्राह्मणोंके अधिपति हैं।' बुधके इस कथनपर विश्वास करके इला बुधके उस भवनमें प्रविष्ट हुई, जिसमें रत्नोंके खम्भे लगे थे तथा जिसका निर्माण दिव्य मायाके द्वारा हुआ था। उस भवनमें पहुँचकर इला अपनेको कृतार्थ मानने लगी। (वह कहने लगी) 'कैसा सुन्दर चरित्र है। कैसा अद्भुत रूप है! कितना प्रचुर धन है! कैसा ऊँचा कुल है तथा मेरा और मेरे पतिदेवका कैसा अनुपम सौन्दर्य है!' तदनन्तर वह इला बुधके साथ बहुत समयतक उस सम्पूर्ण भोग सामग्रियोंसे सम्पन्न घरमें उसी प्रकार सुखसे रहने लगी, जैसे इन्द्रभवनमें हो ॥ 48- 66 ll