सूतजी कहते हैं-ब्राह्मणगण! अब आपलोग भगवान् सूर्यकी प्रतिमाके निर्माणको विधि सुनिये। भगवान् सूर्यदेवको रथपर स्थित, सुन्दर नेत्रोंसे सुशोभित और दोनों हाथोंमें कमल धारण किये हुए बनाना चाहिये। उनके रथमें सात घोड़े और एक पहिया होनी चाहिये। उन्हें विचित्र मुकुटसे युक्त तथा कमलके मध्यवर्ती भागके समान लालवर्णका बनाना चाहिये। वे विविध आभूषणों से विभूषित दोनों भुजाओं में कमल धारण किये हों, वे कमल सदा लीलापूर्वक ऊपर कंधोंतक उठे हुए हों। उनका स्वरूप विशेषकर पैर दो वस्त्रोंसे आवृत हो। प्रायः चित्रोंमें भी उनकी प्रतिमा दो वस्त्रों से ढकी हुई प्रदर्शित की जानी चाहिये। उनके दोनों चरण तेजसे आवृत हों। मूर्तिके दोनों और दण्डी और पिङ्गल नामक दो प्रतीहारोंको रखना चाहिये। उन दोनों पार्श्ववर्ती पुरुषोंके हाथोंमें तलवार बनायी जानी चाहिये। उनके पार्श्वमें एक हाथमें लेखनी लिये हुए अविनाशी धाताकी मूर्ति हो । भगवान् भास्कर अनेकों देवगणोंसे युक्त हों। । इस प्रकार भगवान् सूर्यकी प्रतिमाका निर्माण करना चाहिये।सूर्यदेव के सारथि अरुण हैं जो कमलदलके सदृश लाल वर्णके हैं। उनके दोनों बगलमें चलते हुए लंबी गरदनवाले अक्ष हों। उन सातों अधोंको सर्पकी रस्सीसे बाँधकर लगामयुक्त रखाना चाहिये। सूर्य मूर्तिको हाथोंमें कमल लिये | हुए कमलपर या वाहनपर स्थित रखना चाहिये ॥ 1-8 ॥
अब मैं सभी प्रकारके अभीष्ट फलोंको देनेवाले अग्निकी प्रतिमाका स्वरूप बतला रहा हूँ। अग्निको प्रतिमा कनकके समान उदीप्त कान्तिवाली बनानी चाहिये। वह अर्धचन्द्राकार आसनपर स्थित हो उनका मुख उदयकालीन सूर्यको भौति दिखाना चाहिये। अग्निदेवको यज्ञोपवीत तथा लम्बी दाढ़ीसे युक्त बनाना चाहिये। उनके बायें हाथमें कमण्डलु और दाहिने हाथमें रुद्राक्षकी माला हो। उनका वाहन बकरा ज्वालामण्डलसे विभूषित और उज्ज्वल होना चाहिये। मस्तकपर (या मुखमें) सात जिह्वारूपिणी ज्वालाओंसे युक्त इस प्रतिमाको देवमन्दिर | अथवा अग्निकुण्डके मध्यमें स्थापित करना चाहिये। अब मैं यमराजकी प्रतिमाके निर्माणको विधि बतला रहा हूँ। उनके शरीरका रंग काले अंजनके समान हो। वे | दण्ड और पाश धारण करनेवाले, ऐश्वर्ययुक्त और विशाल महिषपर आरूढ़ हों अथवा सिंहासनासीन हों। उनके नेत्र प्रदीप्त अग्निके समान हों। उनके चारों ओर महिप, चित्रगुप्त, विकराल अनुचरवर्ग, मनोहर आकृतिवाले देवताओं तथा विकृत असुरोंकी प्रतिमाओंको भी प्रदर्शित करना चाहिये। अब में लोकपाल राक्षसेन्द्र निर्ऋतिकी प्रतिमाको निर्माण विधि बतला रहा हूँ। वे मनुष्यपर आरूढ़ विशालकाय, राक्षससमूहोंसे घिरे हुए और हाथमें तलवार लिये हुए हों उनका वर्ण अत्यन्त नील और कज्जलगिरिके समान दिखायी पड़ता हो। उन्हें पालकीपर सवार और पीले आभूषणोंसे विभूषित बनाना चाहिये। अब में महाबली वरुणकी प्रतिमाका वर्णन करता हूँ। वे हाथमें पाश धारण किये हुए स्फटिकमणि और शङ्खके समान वेत कान्तिसे युक्त, उज्ज्वल हार और वस्त्रसे विभूषित, झप (बड़ी मछली ) पर आसीन, शान्त मुद्रासे सम्पन्न तथा बाजूबन्द और किरीटसे सुशोभित हों। अब मैं वायुदेवकी प्रतिमाका स्वरूप बतला रहा हूँ। उन्हें धूम्र वर्णसे युक्त, मृगपर आसीन चित्र-विचित्र वस्त्रधारी, शान्त, युवावस्था से सम्पन्न, तिरछी भाँहोंसे युक्त, वरदमुद्रा और ध्वज पताकासे विभूषित बनाना चाहिये ।। 9-19॥अब मैं कुबेरकी प्रतिमा वर्णन कर रहा हूँ। वे दो कुण्डलोंसे अलंकृत, तोंदयुक्त, विशालकाय, आठ निधियोंसे संयुक्त, बहुतेरे गुह्यकोंसे घिरे हुए, धन व्यय करनेके लिये उद्यत करोंसे युक्त, केयूर और हारसे विभूषित, श्वेत वस्त्रधारी, वरदमुद्रा, गदा और मुकुटसे विभूषित तथा पालकीपर सवार हों। इस प्रकार उनकी प्रतिमा निर्मित | करानी चाहिये। अब मैं सामर्थ्यशाली ईशानदेवकी प्रतिमाका वर्णन कर रहा हूँ। उनके शरीरकी कान्ति तथा नेत्र श्वेत हों वे सामर्थ्यशाली देव तीन नेत्रोंसे युक्त तथा हाथमें त्रिशूल लिये हुए वृषभपर आरूढ़ हों। अब मैं मातृकाओंकी प्रतिमाओंका लक्षण आनुपूर्वी यथार्थरूपसे बता रहा हूँ। ब्रह्माणीकी प्रतिमाको ब्रह्माजीके समान चार मुख, चार भुजाएँ, अक्षसूत्र और कमण्डलुसे विभूषित तथा हंसपर आसीन बनानी चाहिये। इसी प्रकार भगवान् महेश्वरके अनुरूप माहेश्वरीकी प्रतिमा मानी गयी है। वे जटा मुकुटसे अलंकृत, वृषभासीन, मस्तकपर चन्द्रमासे विभूषित, क्रमश: कपाल, शूल, खट्वाङ्ग' और वरमुद्रासे सुशोभित चार भुजाओंसे सम्पन्न हों कौमारीकी प्रतिमा स्वामिकार्तिकेयके समान निर्मित करानी चाहिये। वे श्रेष्ठ मयूरपर सवार, लाल वस्त्रसे सुशोभित, शूल और शक्ति धारण करनेवाली, हार और केयूरसे विभूषित तथा मुर्गा लिये हुए हों। वैष्णवीकी मूर्ति विष्णुभगवान् के समान हो। वे गरुड़पर आसीन हों, उनके चार भुजाएँ हों, जिनमें क्रमशः शङ्ख, चक्र, गदा और वरद मुद्रा हो। अथवा वे एक बालकसे युक्त सिंहासनपर बैठी हुई हों। अब मैं वाराहीकी प्रतिमाका प्रकार बतलाता हूँ। वे देवी महिषपर बैठी हुई वराहके समान रहती हैं। उनके सिरपर चामर | झलता रहना चाहिये। वे हाथोंमें गदा और चक्र लिये हुए बड़े-बड़े दानवोंके विनाशके लिये संनद्ध रहती हैं। इन्द्राणीको इन्द्रके समान वज्र, शूल, गदा धारण किये हुए हाथीपर विराजमान बनाना चाहिये। वे देवी बहुत-से नेत्रोंसे युक्त, तप्त सुवर्णके समान कान्तिमती और दिव्य आभरणोंसे भूषित रहती हैं ॥ 20-32 ॥
अब मैं भगवती योगेश्वरी चामुण्डाकी प्रतिमाका वर्णन करता हूँ। वे तीखी तलवार, लम्बी जिह्ना, ऊपर | उठे केश तथा हड्डियोंके टुकड़ोंसे विभूषित रहती हैं।उन्हें विकराल दाड़ोंसे युक्त मुखवाली, दुर्बल उदरसे युक्त, कपालोंकी माला धारण किये और मुण्ड -मालाओंसे विभूषित बनाना चाहिये। उनके बायें हाथमें खोपड़ीसे युक्त एवं रक्त और मांससे पूर्ण खप्पर और दाहिने हाथमें शक्ति हो। वे गृध या काकपर बैठी हों। उनका शरीर मांसरहित, उदर भीतर घुसा और मुख अत्यन्त भीषण हो। उन्हें तीन नेत्रोंसे सम्पन्न घण्टा लिये हुए व्याघ्र चर्मसे सुशोभित या निर्वस्व बनाना चाहिये। उसी प्रकार कालिकाको | कपाल धारण किये हुए गधेपर सवार बनाना चाहिये। वे लाल पुष्पोंके आभरणोंसे विभूषित तथा झाडको ध्वजसे युक्त हों। इन मातृकाओंके समीप सर्वदा गणेशको प्रतिमा भी रखनी चाहिये तथा मातृकाओंके आगे जटाधारी, हाथोंमें वीणा और त्रिशूल लिये हुए वृषभारूढ़ भगवान् वीरेश्वरको स्थापित करना चाहिये ॥ 33-39 ॥
अब मैं लक्ष्मीकी प्रतिमाका प्रकार बतला रहा हूँ। ये नवीन अवस्थामें स्थित नवयौवनसम्पन्न, उन्नत कपोलसे युक्त, लाल ओष्ठोंवाली, तिरछी भाँहोंसे युक्त तथा मणिनिर्मित कुण्डलोंसे विभूषित हो उनका मुखमण्डल सुन्दर और सिर सिंदूरभरे माँगसे विभूषित हो वे प स्वस्तिक और शहुसे तथा घुंघराले बालोंसे सुशोभित हों उनके शरीरमें चोली बँधी हो और दोनों भुजाएँ हाथीके शुण्डादण्डकी भाँति स्थूल तथा केयूर और कङ्कणसे विभूषित हों उनके बायें हाथमें कमल और दाहिने हाथमें श्रीफल होना चाहिये। उनको शरीरकान्ति तपाये हुए स्वर्णके समान गौर वर्णकी हो। वे करधनीसे विभूषित, विविध आभूषणोंसे सम्पन्न तथा सुन्दर साड़ीसे सुसज्जित हों। उनके पार्श्वमें चंवर धारण करनेवाली स्त्रियोंकी प्रतिमाएँ निर्मित करनी चाहिये। वे पद्मसिंहासनपर पद्मासन से स्थित हों। उन्हें दो हाथी शुण्डमें गडुए लिये हुए लगातार स्नान करा रहे हों तथा दो अन्य हाथी भी उनपर घटद्वारा जल छोड़ रहे हों। उस समय लोकेश्वरों, गन्धर्वों और
यक्षोंद्वारा उनकी स्तुति की जा रही हो ll 40–46 ॥ इसी प्रकार यक्षिणीकी प्रतिमा सिद्धों तथा असुरोंद्वारा सेवित बनानी चाहिये। उसके दोनों ओर दो कलश और तोरणमें देवताओं, दानवों और नागोंकी प्रतिमा रखनी चाहिये, जो खड्ग और ढाल धारण किये हुए हों।नीचेकी ओर उन नागोंका प्राकृतिक शरीर और नाभिसे ऊपर मनुष्यकी आकृति रहनी चाहिये। सिरपर बराबरीसे दिखायी पड़नेवाले दो जिह्वाओंसे युक्त बहुत-से फण | बनाने चाहिये। पिशाच, राक्षस, भूत और बेताल जातियोंके लोगोंको भी बनाना चाहिये, वे सभी मांसरहित, विकृत रूपवाले और भयंकर हों क्षेत्रपालकी प्रतिमा जटाओंसे युक्त, विकृत मुखवाली, नग्न, श्रृंगालों और कुत्तोंसे सेवित बनानी चाहिये। उसका सिर केशोंसे आच्छादित हो। उसके बायें हाथमें कपाल और दाहिने हाथमें असुरविनाशिनी शक्ति होनी चाहिये। अब इसके बाद मैं दो भुजाओंवाले कामदेवकी प्रतिमाका वर्णन कर रहा हूँ। उनकी एक और अश्वमुख मकरध्वजकी रचना करनी चाहिये। उसके दाहिने हाथमें पुष्प बाण और बायें हाथमें पुष्यमय धनुष होना चाहिये। उनकी दाहिनी ओर भोजनकी सामग्रियोंसे युक्त प्रीतिकी तथा बायीं ओर रतिकी प्रतिमा शय्यासन एवं सारस पक्षीसे युक्त होनी चाहिये। उनके बगलमें वस्तु, नगाड़ तथा कामलोलुप गधा होना चाहिये प्रतिमाके एक बगलमें जलसे पूर्ण बावली तथा नन्दनवन हो। इस तरह ऐश्वर्यशाली कामदेवको परम सुन्दर बनाना चाहिये। प्रतिमाकी मुद्रा कुछ वक्र कुछ विस्मययुक्त और कुछ मुस्कराती हुई हो। ब्राह्मणो! मैंने संक्षेपमें यह प्रतिमाओंका लक्षण बतलाया है। इनका विस्तारपूर्वक वर्णन तो बृहस्पति भी नहीं कर सकते ।। 40–57॥