मत्स्यभगवान्ने कहा- राजन्! इसी प्रकार एक दूसरा व्रत बतलाता हूँ, जो समस्त मनोवाञ्छित फलोंको देनेवाला है। उसका नाम है- 'सौभाग्यशयन'। इसे पुराणोंके विद्वान् ही जानते हैं। पूर्वकालमें जब भूलक, भुवर्लोक, स्वर्लोक तथा महर्लोक आदि सम्पूर्ण लोक दग्ध हो गये, तब समस्त प्राणियोंका सौभाग्य एकत्रित हो गया। वह वैकुण्ठलोकमें जाकर भगवान् श्रीविष्णुके वक्षःस्थलमें स्थित हो गया। तदनन्तर दीर्घकालके पश्चात् जब पुनः सृष्टि रचनाका समय आया, तब प्रकृति और पुरुषसे युक्त सम्पूर्ण लोकोंके अहंकारसे आवृत हो जानेपर श्रीब्रह्माजी तथा भगवान् श्रीविष्णुमें स्पर्धा जाग्रत् हुई। उस समय एक पीले रंगकी (अथवा शिवलिङ्गके आकारकी) अत्यन्त भयंकर अग्निज्वाला प्रकट हुई। उससे भगवान्का वक्षःस्थल तप उठा, जिससे वह सौभाग्यपुञ्ज वहाँसे गलित हो गया। श्रीविष्णुके वक्षःस्थलका आश्रय लेकर स्थित वह सौभाग्य अभी रसरूप होकर धरतीपर गिरने भी न पाया था कि ब्रह्माजीके बुद्धिमान् | पुत्र दक्षने उसे आकाशमें ही रोककर पी लिया। दक्षके पीते ही वह अद्भुत रूप और लावण्य प्रदान करनेवाला सिद्ध हुआ। ब्रह्म-पुत्र दक्षका बल और तेज बढ़ गया। उनके पीनेसे बचा हुआ जो अंश पृथ्वीपर गिर पड़ा, वह आठ भागों में बँट गया। उनमेंसे सात भागोंसे सात सौभाग्यदायिनी ओषधियाँ उत्पन्न हुई, जिनके नाम इस | प्रकार हैं- ईख, रसराज (पारा), निष्पाव (सेम), राजधान्य (शालि या अगहनी), गोक्षीर (क्षीरजीरक), कुसुम्भ (कुसुम नामक) पुष्प, कुङ्कुम (केसर) तथा आठवाँ पदार्थ नमक है। इन आको सौभाग्याष्टक कहते हैं ॥ 1- 9॥योग और ज्ञानके तत्वको जाननेवाले ब्रह्मपुत्र दक्षने पूर्वकालमें जिस सौभाग्य रसका पान किया था, उसके अंशसे उन्हें एक कन्या उत्पन्न हुई, जिसे सती नामसे अभिहित किया जाता है। अपनी सुन्दरतासे तीनों लोकोंको पराजित कर देनेके कारण वह कन्या लोकमें ललिता के नामसे भी प्रसिद्ध है। पिनाकधारी भगवान् शंकरने उस त्रिभुवनसुन्दरी देवीके साथ विवाह किया। सती तीनों लोकोंकी सौभाग्यरूपा हैं। वे भोग और मोक्ष प्रदान करनेवाली हैं। उनकी भक्तिपूर्वक आराधना करके नर या नारी क्या नहीं प्राप्त कर सकती ॥ 10-12 ॥
मनुजीने पूछा- जनार्दन ! जगद्धात्री सतीकी आराधना कैसे की जाती है ? जगन्नाथ! उसके लिये जो विधान हो, वह सब मुझे बतानेकी कृपा कीजिये ॥ 13 ॥
मत्स्यभगवान्ने कहा- जनप्रिय चैत्रमासके शुक्लपक्षको तृतीयाको दिनके पूर्वभागमें मनुष्य तिलमिश्रित जलसे स्नान करे। उस दिन परम सुन्दरी भगवती सतीका विश्वात्मा भगवान् शंकरके साथ वैवाहिक मन्त्रोंद्वारा विवाह हुआ था, अतः तृतीयाको सती देवीके साथ ही भगवान् शंकरका भी पूजन करे। पञ्चगव्य तथा चन्दनमिश्रित जलके द्वारा गौरी और भगवान् चन्द्रशेखरकी प्रतिमाको स्नान कराकर धूप, दीप, नैवेद्य तथा नाना प्रकारके फलोंद्वारा उन दोनोंकी पूजा करनी चाहिये 'पाटलायै नमोऽस्तु 'शिवाय नमः ' इन मन्त्रोंसे क्रमश: पार्वती और शिवके चरणोंका, 'जयायै नमः', 'शिवाय नमः' से दोनोंकी घुट्टियोंका, 'त्रिगुणाय रुद्राय नमः', 'भवान्यै नमः' से गुल्फोंका, 'भद्रेश्वराय नमः', 'विजयायै नमः 'से घुटनोंका 'हरिकेशाय नमः', 'वरदायै नमः' से ऊरुओंका, 'शङ्कराय नमः' 'ईशायै नमः' से दोनों कटिभागका 'कोटव्यै नमः', 'शूलिने नमः' से दोनों कुक्षिभागोंका, 'शूलपाणये नमः', 'मङ्गलायै नमः ' से उदरका पूजन करना चाहिये । 'सर्वात्मने नमः', 'ईशान्यै नमः' से दोनों स्तनोंकी,'वेदात्मने नमः', 'रुद्राण्यै नमः' से कण्ठकी, 'त्रिपुरघ्नाय नमः' 'अनन्तायै नमः ' से दोनों हाथोंकी पूजा करे ।। 14-22 ॥
फिर 'त्रिलोचनाय नमः', 'कालानलप्रियायै नमः' से बाँहोंका, 'सौभाग्यभवनाय नमः 'से आभूषणोंका नित्य पूजन करे। 'स्वाहास्वधायै नमः', 'ईश्वराय नमः ' से दोनोंके मुखमण्डलका 'अशोकमधुवासिन्यै नमः - इस मन्त्रसे ऐश्वर्य प्रदान करनेवाले ओठोंका, 'स्थाणवे नमः', 'चन्द्रमुखप्रियायै नमः 'से मुँहका, 'अर्धनारीश्वराय नमः', 'असिताङ्गयै नमः' से नसिकाका, 'उग्राय नमः', 'ललितायै नमः' से दोनों भौंहोंका, शर्वाय नमः', 'वासव्यै नमः' से केशोंका 'श्रीकण्ठनाथाय नमः' से केवल शिवके बालोंका पूजन करे तथा 'भीमोग्रसमरूपिण्यै नमः', 'सर्वात्मने नमः' से दोनोंके मस्तकोंका पूजन करे। इस प्रकार शिव और पार्वतीकी विधिवत् पूजा कर उनके आगे सौभाग्याष्टक रखे। निष्याव (सेम), कुसुम्भ क्षीरजीरक, रसराज, इ लवण, कुङ्कुम तथा राजधान्य- इन आठ वस्तुओंको देनेसे सौभाग्यकी प्राप्ति होती है. इसलिये इनकी 'सौभाग्याष्टक' संज्ञा है। शत्रुदमन! इस प्रकार शिवपार्वतीके आगे सब सामग्री निवेदन करके रातमें सिंघाड़ा खाकर अथवा शृङ्गोदक पान करके भूमिपर शयन करे। फिर सबेरे उठकर स्नान और जप करके पवित्र हो माला, वस्त्र और आभूषणोंके द्वारा ब्राह्मण-दम्पतिका पूजन करे। इसके बाद सौभाग्याष्टकसहित शिव और पार्वतीको सुवर्णमयी प्रतिमाओंको ललितादेवीकी प्रसन्नताके लिये ब्राह्मणको निवेदन करे ॥ 23- 31 ॥
मनो! इस प्रकार सम्पूर्ण सौभाग्यकी अभिलाषावाले मनुष्योंको एक वर्षतक प्रत्येक तृतीया तिथिको भक्तिपूर्वक विधिवत् पूजन करना चाहिये। केवल भोजन और दानके मन्त्रोंमें कुछ विशेषता है, उसे मुझसे सुनिये। चैत्रमासमें शृङ्गोदक, वैशाखमें गोबर जोश में मन्दारका पुष्प, आषाढमें बिल्वपत्र, श्रावणमें दही, भाद्रपदमें कुशोदक, आश्विनमासमें दूध, कार्तिकमें दही मिला हुआ घी, मार्गशीर्षमासमें गोमूत्र, पौषमें मृतमाघमें काला तिल और फाल्गुनमें पञ्चगव्यका प्राशन करना चाहिये तथा दानके समय ललिता, विजया, भद्रा, भवानी, कुमुदा, शिवा, वासुदेवी, गौरी, मङ्गला, कमला, सती और उमा प्रसन्न हों- ऐसा कीर्तन करे। मल्लिका, अशोक, कमल, कदम्ब, उत्पल (नीलकमल), मालती, कुब्जक, करवीर (कनेर), बाण (कचनार या काश), कुङ्कुम और सिन्दुवार - इनके पुष्प क्रमश: सभी मासोंमें उपयुक्त माने गये हैं। जपाकुसुम, कुसुम्भ कुसुम, मालती और शतपत्रिकाके पुष्प यदि मिल सकें तो प्रशस्त माने गये हैं, किंतु करवीर ( कनेर) पुष्प तो सदा सभी महीनों में ग्राह्य है। इस प्रकार एक वर्षतक इस व्रतका विधिपूर्वक अनुष्ठान कर पुरुष, स्त्री या कुमारी भक्तिके साथ शिवजीकी पूजा करे। व्रतकी समाप्तिके समय सम्पूर्ण सामग्रियोंसे युक्त शय्या दान करे। उस शय्यापर शिव-पार्वतीकी सुवर्णमयी प्रतिमा और स्वर्णनिर्मित गौके साथ बैलको स्थापित कर ब्राह्मणको दान करे ॥ 32- 42 ll
अन्यान्य ब्राह्मण-दम्पतियोंका भी वस्त्र, धान्य, अलंकार, गोदान और प्रचुर धनसे पूजन करना चाहिये। कृपणता छोड़कर दृढ़ निश्चयके साथ भगवान्का पूजन करे। जो मनुष्य इस प्रकार उत्तम सौभाग्यशयन नामक व्रतका भलीभाँति अनुष्ठान करता है, उसकी सभी कामनाएँ पूर्ण होती हैं। अथवा (यदि वह निष्कामभावसे इस व्रतको करता है तो) उसे नित्यपदकी प्राप्ति होती है। इस व्रतका आचरण करनेवाले पुरुषको एक फलका परित्याग कर देना चाहिये। राजन्! प्रतिमास इसका आचरण करनेवाला पुरुष यश और कीर्ति प्राप्त करता है। नरेश्वर (सौभाग्य-शयनका दान करनेवाला पुरुष) सौभाग्य, आरोग्य, सुन्दर रूप, आयु, वस्त्र, अलंकार और आभूषणोंसे नौ अरब तीन सौ वर्षोंतक वञ्चित नहीं होता। जो बारह, आठ या सात वर्षोंतक सौभाग्यशयन व्रतका अनुष्ठान करता है, वह श्रीकण्ठ (महादेव) के लोकमे देवगणोंद्वारा भलीभाँति पूजित होकर तीस कल्पोंतक निवास करता है। नरेश्वर। जो विवाहिता स्त्री या कुमारी इस व्रतका पालन करती है, वह भी | ललितादेवीके अनुग्रहसे लालित होकर पूर्वोक्त फलको प्राप्त करती है। जो इस व्रतकी कथाको श्रवण करता है अथवा दूसरोंको इसे करने की सलाह देता है, वह भी | विद्याधर होकर चिरकालतक स्वर्गलोकमें निवास करता है।जननाथ ! पूर्वकालमें कामदेवने, राजा शतधन्वाने, कार्तवीर्य अर्जुनने, वरुणदेवने तथा नन्दीने भी इस अद्भुत व्रतका अनुष्ठान किया था। इस प्रकार इस व्रतके अनुष्ठानसे जैसे उत्तम फलकी प्राप्ति होती है, उसके विषयमें और अधिक क्या कहा जाय ॥43 - 49 ॥