नन्दिकेश्वर बोले- नारदजी! स्नान किये बिना शरीरकी निर्मलता और भाव-शुद्धि नहीं प्राप्त होती, अतः मनकी विशुद्धिके लिये (सभी व्रतोंमें) सर्वप्रथम स्नानकाविधान है। कुएँ आदिसे निकाले हुए अथवा बिना निकाले हुए नदी-तालाब आदिके जलसे स्नान करना चाहिये। मन्त्रवेत्ता विद्वान् पुरुषको मूलमन्त्रद्वारा उस जलमें तीर्थकी कल्पना करनी चाहिये। | नमो नारायणाय'- यह मूलमन्त्र कहा गया है। मनुष्य पहले हाथमें कुश लिये हुए विधिपूर्वक आचमन कर ले. फिर जितेन्द्रिय एवं शुद्ध भावसे अपने चारों ओर चार हाथका चौकोर मण्डल बनाकर उसमें तीर्थकी कल्पना कर इन ( वक्ष्यमाण) मन्त्रोंद्वारा गङ्गाजीका आवाहन करे- 'देवि! तुम भगवान् विष्णुके चरणोंसे प्रकट हुई हो, वैष्णवी कही जाती हो और विष्णु ही तुम्हारे देवता हैं, अत: तुम जन्मसे लेकर मरणान्ततक होनेवाले पापसे हमारी रक्षा करो। जह्नुनन्दिनी! वायुदेवने स्वर्गलोक, मृत्युलोक और अन्तरिक्षलोक इन तीनों लोकोंमें जिन साढ़े तीन करोड़ तीर्थोंको बतलाया है, वे सभी तुम्हारे भीतर निवास करते हैं। देवोंमें तुम नन्दिनी और नलिनी नामसे प्रसिद्ध हो। इसके अतिरिक्त दक्षा, पृथ्वी, विहगा, विश्वकाया, अमृता, शिवा, विद्याधरी, सुप्रशान्ता विश्वप्रसादिनी, क्षेमा, जाह्नवी, शान्ता और शान्तिप्रदायिनी ये भी तुम्हारे ही नाम है।' खानके समय इन पुण्यमय नामोंका कीर्तन करना चाहिये, इससे त्रिपथगामिनी गङ्गा वहाँ उपस्थित हो जाती हैं।॥ 18 ॥ हाथोंको सम्पुटित करके सात बार इन नामोंका जप करनेके पश्चात् तीन, चार, पाँच अथवा सात बार जलको अपने मस्तकपर छिड़क ले। तत्पश्चात् विधिपूर्वक पृथ्वीको आमन्त्रित करके पहले शरीरमें मिट्टी लगाकर स्नान करना चाहिये। (आमन्त्रण मन्त्र इस प्रकार है) 'मृत्तिके! तुम अग्रिचयन, उख संभरणादिके समय अश्वके द्वारा शुद्ध की जाती हो, तुम (शिवके) रथ और वामन अवतारमें भगवान् विष्णुके पैरद्वारा भी आक्रान्त होकर शुद्ध हुई हो, सारा धन तुम्हारे ही भीतर वर्तमान है, इसलिये मेरे द्वारा जो कुछ भी पाप घटित हुए हैं उन सभीको हर लो। मृत्तिके। शतबाहु भगवान् विष्णुने श्यामवर्णका वराहरूप धारण कर तुम्हारा पातालसे उद्धार किया है, पुनः महर्षि कश्यपद्वारा आमन्त्रित होकर तुम ब्राह्मणोंको प्रदान की गयी हो, अतः मेरे अङ्गोंपर आरूढ़ होकर मेरे सारे पापको दूर कर दो। मृत्तिके! विश्वके सारे पदार्थ तो तुम्हारे भीतर ही स्थित है अतः तुम हमें पुष्टि प्रदान करो। सुव्रते! तुम समस्त जीवोंकी उत्पत्तिके लिये अरणिस्वरूपा हो, तुम्हेंनमस्कार है।' इस प्रकार मिट्टी लगाकर स्नान करनेके पश्चात् विधिपूर्वक आचमन करे। पुनः जलसे बाहर निकलकर दो श्वेत रंगके शुद्ध वस्त्र धारण करे। तत्पश्चात् त्रिलोकीको तृप्त करनेके लिये इस प्रकार तर्पण करना चाहिये। उस समय उपवीती होकर (जनेऊको जैसे पहनते हैं, बायें कंधेपर तथा दाहिने हाथके नीचे कर) सर्वप्रथम देवतर्पण करते हुए इन मन्त्रोंका उच्चारण करे- 'देव, यक्ष, नाग, गन्धर्व, अप्सरा, असुर, क्रूर सर्प, गरुड आदि पक्षी, वृक्ष, श्रृंगाल, अन्य | पक्षिगण तथा जो जीव वायु एवं जलके आधारपर जीवित रहनेवाले हैं, आकाशचारी हैं, निराधार हैं और जो जीव पाप एवं धर्ममें लगे हुए हैं, उन सबकी तृप्तिके लिये मैं यह जल दे रहा हूँ।' तदनन्तर निवीती हो जाय (जनेऊको मालाकार कर लें ) ॥ 9- 17 ॥
फिर भक्तिपूर्वक मनुष्यों तथा ब्रह्मपुत्र ऋषियोंके तर्पणका विधान है- 'सनक, सनन्दन, तीसरे सनातन, कपिल, आसुरि, बोडु तथा पञ्चशिख- ये सभी मेरे द्वारा दिये हुए जलसे सदा तृप्त हो जायें। तत्पश्चात् मरीचि, अत्रि, अङ्गिरा, पुलस्त्य, पुलह, क्रतु, प्रचेता, वसिष्ठ, भृगु और नारद- इन सभी देवर्षियों और ब्रह्मर्षियोंका अक्षत और जलसे तर्पण करनेका विधान है। तदनन्तर अपसव्य होकर (जनेऊको दाहिने कंधेपर रखकर) और बायें घुटनेको भूमिपर टेककर अग्रिष्वात्त, सौम्य, हविष्मान्, ऊष्मप, सुकाली, बर्हिषद् तथा अन्य आज्यप नामक पितरोंको भक्तिपूर्वक तिल, जल, चन्दन आदिसे तृप्त करना चाहिये । पुनः बुद्धिमान् मनुष्य हाथमें कुश लेकर यम, धर्मराज, मृत्यु, अन्तक, वैवस्वत, काल, सर्वभूतक्षय, औदुम्बर, दध्न, नील, परमेष्ठी, वृकोदर, चित्र और चित्रगुप्त- इन चौदह दिव्य पितरोंका विधिपूर्वक तर्पण करके इन्हें नमस्कार करे। तत्पश्चात् अपने पिता आदि तथा नाना आदिके नाम और गोत्रका उच्चारण कर भक्तिपूर्वक विधानके साथ तर्पण करनेके पश्चात् इस मन्त्रका उच्चारण करे—'जो लोग इस जन्ममें मेरे भाई-बन्धु रहे हों या इनके अतिरिक्त कुटुम्बमें पैदा हुए हों अथवा जन्मान्तर में भाई-बन्धु रहे हों तथा जो कोई भी मुझसे जलकी इच्छा रखते हों, वे सभी पूर्णतया तृप्त हो जायें ॥ 18- 26 llतदुपरान्त विधिपूर्वक आचमनकर अपने सामनेकी भूमिपर कमलका चित्र बनाकर अक्षत, पुष्प आदिसे सूर्यकी पूजा करे और प्रयत्नपूर्वक सूर्यके नामोंका कीर्तन करते हुए लाल चन्दनमिश्रित जलसे उन्हें अर्घ्य प्रदान करे। पुनः इस प्रकार प्रार्थना करे- 'सूर्यदेव ! आप विष्णुरूप हैं, आपको नमस्कार है। विष्णुके मुखस्वरूप आपको प्रणाम है। सहस्रकिरणधारी एवं समस्त तेजोंके धामको नित्य अभिवादन है। सर्वेश्वर ! दिव्य चन्दनसे विभूषित देव ! आप रुद्र (शिव) रूप हैं। आप सम्पूर्ण जीवोंके कल्याणकारक तथा उनके प्रति पुत्रवत् प्रेमभाव रखनेवाले हैं, आपको बारम्बार नमस्कार है। पद्मासन ! आप सदा कुण्डल और बाजूबंदसे सुसज्जित रहते हैं, आपको अभिवादन है। समस्त लोकोंके अधीश्वर आप सारे जगत्को उद्बुद्ध करनेवाले हैं, आपको नमस्कार है। सर्वत्र गमन करनेवाले सत्यदेव ! आप सम्पूर्ण प्राणियोंके सारे पुण्यों एवं पापोंको देखते रहते हैं, आपको प्रणाम है। भास्कर! मुझपर प्रसन्न हो जाइये। दिवाकर! आपको अभिवादन है। प्रभाकर! आपको नमस्कार है।' इस प्रकार प्रार्थना करनेके बाद तीन बार प्रदक्षिणा कर सूर्यको नमस्कार करे। पुनः ब्राह्मण, गौ और सुवर्णका स्पर्श करनेके पश्चात् अपने घर जाना चाहिये ॥ 27-32 ॥