सूतजी कहते हैं-ऋषियो! ऐरावती नदीके जलका स्पर्श करके बहती हुई वायुके स्पर्शसे राजा पुरूरवाकी थकावट दूर हो गयी थी। वे उस पुण्यमयी नदीको देखते हुए आगे बढ़ रहे थे इतनेमें उन्हें महान पर्वत हिमवान् दृष्टिगोचर हुआ। वह बहुत-से पीलापन लिये हुए उज्वल वर्णवाले गगनचुम्बी शिखरोंसे युक्त था। वहाँ मङ्गलमयी सिद्ध-गतिके बिना पक्षियोंका भी संचार कठिन था अर्थात् वहाँ केवल सिद्धलोग ही जा सकते थे। वहाँ नदियोंके प्रवाहसे उत्पन्न हुआ महान् घर्धर शब्द चारों ओर गूंज रहा था, जिसके कारण दूसरा कोई शब्द सुनायी ही नहीं पड़ता था। वह शीतल जलसे परिपूर्ण एवं अत्यन्त मनोरम था। उसने देवदारुके नीले वनोंको अधोवस्त्रके स्थानपर और मेघोंको उत्तरीय वस्त्रके रूपमें धारण कर रखा था। ऐसे हिमालय पर्वतको राजा पुरूरवाने देखा उसने कहीं तो श्वेत बादलोंकी पगड़ी बाँध रखी थी और कहीं सूर्य एवं चन्द्रमा उसके मुकुट सरीखे दीख रहे थे। उसका सारा अङ्ग तो बर्फसे आच्छादित था, किंतु उसमें कहीं-कहीं गेरू आदि धातुएँ भी मिली हुई थीं, जिससे वह ऐसा प्रतीत हो रहा था, मानो श्वेत चन्दनसे लिपटे हुए शरीरपर पाँचों अङ्गलियोंकी छाप लगा दी गयी हो। यह ग्रीष्म ऋतुमें भी शीतलता प्रदान कर रहा था तथा बड़ी-बड़ी शिलाओंसे युक्त होनेके कारण अगम्य था। कहीं-कहीं अप्सराओंके महावरयुक्त चरणोंसे चिह्नित था, कहीं तो सूर्यको किरणका स्पर्श हो रहा था, किंतु कहीं घोर अन्धकारसे आच्छादित था, कहीं भयानक गुफाओंके मुखोंमें जल गिर रहा था, जो ऐसा लगता था मानो वह अधिक-से-अधिक जल पी रहा हो। कहीं क्रीडा करते हुए यूथ के यूथ विद्याधरोंसे सुशोभित था, कहीं किंनरोंके प्रधान गणोंद्वारा गान हो रहा था, कहीं गन्धर्वों एवं अप्सराओंकी आपानभूमि (मधुशाला) में गिरे हुए कल्पवृक्ष आदि वृक्षोंके दिव्य पुष्पोंसे सुशोभित था और वहीं गन्धवकी शयन करके उठ जानेके पश्चात् मर्दित हुई शय्याओंके बिखरे हुए पुष्पोंसे आच्छादित होनेके कारण अत्यन्त मनोरम लग रहा था। कहीं ऐसे प्रदेश थे, जहाँ वायुकी पहुँच नहीं थी, किंतु वे हरी घासोंसे सुशोभित थे तथा उनपर फूल बिखरे हुए थे, जिससे | वह अत्यन्त रुचिर एवं सुन्दर लग रहा था ॥ 1-11 ॥वह पर्वत तपस्वियोंका आश्रयस्थान तथा कामीजनोंके लिये अत्यन्त दुर्लभ था, उसपर मृग आदि वन्य पशु स्वच्छन्द विचरण करते थे, उसके विशाल वृक्षोंको हाथियोंने भिन्न-भिन्न कर दिया था, जहाँ सिंहकी गर्जनासे भयभीत हुए हाथियोंके दल व्याकुल होकर भयंकर चिग्घाड़ कर रहे थे, जिससे उनमें शान्ति नहीं दीख रही थी, जिसके तटवर्ती प्रदेश निकुञ्जों और तपस्वियोंसे अलंकृत थे, जिससे उत्पन्न हुए रत्नोंसे त्रिलोकी अलंकृत होती है, वासुकि आदि बड़े-बड़े नागों के आश्रयस्थान, सत्पुरुषोंद्वारा सेवित तथा रत्नसम्पत्तियोंसे परिपूर्ण उस पर्वतको कोई सत्पुरुष ही देख सकता है। जहाँ तपस्वीलोग थोड़े ही तपसे सिद्धि प्राप्त कर लेते हैं, जिसके दर्शनमात्र से सारा पाप नष्ट हो जाता है, जिसके किन्हीं किन्हीं स्थलोंपर वायुद्वारा लाये गये बड़े-बड़े झरनोंके गिरनेसे उत्पन्न हुए छोटे-छोटे झरनोंके जलसे पर्वतीय प्रदेश तृप्त होते हैं। कहीं उसके ऊँचे-ऊंचे शिखर जलसे आप्लावित थे तथा कहाँ सूर्यके तापसे संतप्त होनेके कारण अगम्य थे। वहाँ केवल मनसे ही जाया जा सकता था; जो कहीं-कहीं देवदास्के विशाल वृक्षोंकी शाखा प्रशाखाओंसे घनीभूत हुए तथा कहीं बाँसोंकी झुरमुटरूपी वनोंके आकारसे युक्त प्रदेशोंसे सुशोभित था। कहीं छत्तेके समान बड़े-बड़े शिखर बर्फ से आच्छादित थे, कहीं सैकड़ों झरने झर रहे थे, कहीं जलके गिरनेसे उत्पन्न हुए शब्दोंसे ही जलकी प्रतीति होती थी, कहीं गुफाएँ बर्फ से ढकी हुई थीं। इस प्रकार सुन्दर नितम्बरूपी भूमिसे युक्त उस हिमालय पर्वतको देखकर महानुभाव मद्रेश्वर पुरूरवा हर्षपूर्वक वहाँ (अपने मनोऽनुकूल स्थानकी खोज करते हुए) घूमने लगे। तब उन्हें एक स्थान प्राप्त हुआ। ll 12 - 21 ॥