सूतजी कहते हैं-ऋषियो देवयोगसे महाराज पुरुरवा उसी पर्वतराजके परम सुरम्य प्रदेशमें पहुँच गये, जो अन्य मनुष्योंके लिये अगम्य था। जहाँसे नदियोंमें श्रेष्ठ ऐरावती निकली हुई थी, वह देश मेघके समान श्यामल था तथा अनेकों प्रकारके वृक्षसमूहोंसे घिरा हुआ था। वहाँ शाल (साख), ताल (ताड़), तमाल, कर्णिकार (कनेर), शामल (सेमल), न्यग्रोध (बरगद), अश्वत्थ (पीपल), शिरीष (सिरसा), शिंशपा (सीसम), श्लेष्मातक (लहसोड़ा), आमलक (आमला), हरीतक (हरै), विभीतक (बहेड़ा), भूर्ज (भोजपत्र), मुजक (मूंज), बाणवृक्ष (साखूका एक भेद), सप्तच्छद (छितवन), महानिम्ब (बकाइन ), नीम, निर्गुण्डी (सिंदुवार या शेफाली), हरिद्रुम (दारूहल्दी), विशाल वृक्ष देवदारु, कालेयक (अगर), पद्मक (पद्याख), चन्दन, बेल, कैथ, लाल चन्दन, आम्रात (एकलता), अरिष्टक (रीठा), अक्षोट (पीलू या अखरोट), अब्दक (नागरमोथा), अर्जुन, सुन्दर पुष्पवाले हस्तिकर्ण (पलाश), खिले हुए फूलोंसे युक्त कोविदार (कचनार), प्राचीनामलक (पुराने आमलकके वृक्ष) धनक (धनेश), मराटक (बाजरा), खजूर, नारियल, प्रियाल (पियार, इसके फलोंकी गिरी चिरौंजी होती है), आम्रातक (आमड़ा), इद (हिंगोट), तन्तुमाल (पटुआ), सुन्दर धक्के वृक्ष, काश्मरी, शालपर्णी, जातीफल (जायफल), पूगफल (सुपारी), कटुफल (कायफर), इलायचीको लताओंके फल, मन्दार, कोविदार (कचनार), किंशुक (पलाश), कुसुमांशुक (एक प्रकारका अशोक), यवास ( जवासा), शमी, तुलसी, बेंत, जलमें उगनेवाले बेंत, हलके तथा गाढ़े लाल रंगवाले नारंगीके वृक्ष, हिंगु और प्रियङ्गु (बड़ी पीपर) के वृक्ष भरे पड़े थे ।॥ 1-10॥
साथ ही लाल अशोक, अशोक, आकल (अकरकरा ), अविचारक, मुचुकुन्द, कुन्द, आटरूप (अडूसा), परुषक (फालसा), किरात (चिरायता), किंकिरात (बबूल), केतकी, सफेद केतकी, शौभाजन (सहिजन), अञ्जन, कलिंग (सिरसा), निकोटक (अंकोल), सुवर्णके-से चमकीले सुन्दर वल्कलसे युक्त विजयसाल के वृक्ष असना, कामदेव के बागोंके से आकारवाले सुन्दर आपके वृक्ष| पीली जूही, सफेद जूही, मालती, चम्पाके समूह, तुम्बर (एक प्रकारकी धनिया), अतुम्बर, मोच (केला या सेमल), लोच (गोरखमुण्डी), लकुच (बड़हर), तिल तथा कमलके फूल, कामियोंको प्रिय लगनेवाले पुष्पाङ्कुरों (कुड्मलों) तथा प्रफुल्ल पुष्पोंसे युक्त चव्य (चाब नामक वृक्ष), बकुल (मौलसिरी), पारिभद्र (फरहद), हरिद्रक, धाराकदम्ब (कदम्बका एक भेद), कुटज (कुरैया), | पर्वतशिखरोंपर उगनेवाले कदम्ब, आदित्यमुस्तक (मदार), कुम्भ (गुग्गुलका वृक्ष), कामदेवका प्रिय कुङ्कुम (केसर), कटुफल (कायफर), बेर, दीपककी भाँति अत्यन्त चमकीले कदम्ब, लाल रंगके पाली ( पालीवत)-के वन, श्वेत अनार, चम्पाके वृक्ष, बन्धूक (दुपहरिया), सबन्धूक (तिलका पौधा), कुञ्जोंके समूह, लाल गुलाबके कुसुम, मल्लिका, करवीरक (कनेर), कुरबक (लाल कटसरैया), हिमवर, जम्बू (छोटी जामुन या कठजामुन), नृपजम्बू (बड़ी जामुन), बिजौरा, कपूर, गुरु, अगुरु, बिम्ब (एक फल), प्रतिबिम्ब और संतानक वृक्ष (कल्पवृक्ष) वितानकी तरह फैले हुए थे ॥ 11-20 ॥ गुग्गुलवृक्ष, हिंताल, श्वेत ईख, केतकी, कनेर, अशोक,
चक्रमर्दन (चकवड़), पीलु, धातकी (धव), घने चिलबिल, तिन्तिडीक (इमली), लोध, विडंग, क्षीरिकाद्रुम (खिरनी), अश्मन्तक (लहसोड़ा), काल (रक्तचित्र नामका एक वृक्ष), जम्बीर, श्वेतक (वरुण या वरना नामक एक वृक्षविशेष), भल्लातक (भिलावा), इन्द्रयव, वल्गुज (सोमराजी नामसे प्रसिद्ध), सिन्दुवार, करमर्द (करौंदा), कासमर्द (कसौंदी), अविष्टक (मिर्च), वरिष्टक (हुरहुर), रुद्राक्षके वृक्ष, अंगूरकी लता, सप्तपर्ण, पुत्रजीवक (पतजुग), कंकोलक (शीतलचीनी), लौंग, त्वग्द्रुम (दालचीनी) और पारिजातके वृक्ष लहलहा रहे थे। कहीं पिप्पली (पीपर) तथा कहीं नागवल्लीकी लताएँ फैली हुई थीं। कहीं काली मिर्च और नवमल्लिकाकी लताओंके कुञ्ज बने हुए थे। कहीं अंगूर और माधवीकी लताओंके मण्डप शोभा पा रहे थे। कहीं फलोंसे लदी हुई नीले रंगके फूलोंवाली लताएँ, कहीं कुम्हड़े तथा कद्दूकी लताएँ और कहीं घुँघुची, परवल, करैला एवं कर्कोटकी (पीतघोषा ) की लताएँ शोभा दे रही थीं। कहीं बैगन और भटकटैयाके फल,मूली जड़वाले शक तथा अनेकों प्रकारके काँटेदार वृक्ष शोभा पा रहे थे। कहीं श्वेत कमल, कंदविदारी, रुरूट (एक फलदार वृक्ष), स्वादुकण्टक, (सफेद पिडालु), भाण्डीर (एक प्रकारका वट), बिसार (बिदारकन्द), राजजम्बूकः (बड़ी जामुन), वालुक (एक प्रकारका आँवला), सुवर्चला (सूर्यमुखी) तथा सभी प्रकारके सरसोंके पौधे भी विद्यमान थे। काकोली (कंकोल), क्षीरकाकोली (कंकोलका एक भेद), छत्रा (छत्ता), अतिच्छत्रा (तालमखाना), कासमर्दी (अडूसा), कन्दल (केलेका एक भेद), काण्डक (करेला), क्षीरशाक (दूधी), कालशाक (करेम) नामक शाकों, सेमको लताओं तथा सभी प्रकारके अन्नोंके पौधोंसे वह सारा प्रदेश सुशोभित हो रहा था ।। 21-32 ॥
नरेश्वर ! वहाँ आयु, यश और बल प्रदान करनेवाली, वृद्धावस्था और मृत्युके भयको दूर करनेवाली, भूख प्यासके कष्टकी विनाशिका एवं सौभाग्यप्रदायिनी सारी ओषधियाँ चित्र-विचित्ररूपमें देदीप्यमान हो रही थीं। वहाँ बाँसकी लताएँ फैली थीं तथा पोले बाँस हवाके संघर्षसे शब्द कर रहे थे। चन्द्रमाके समान उज्ज्वल कास पुष्पों, सरपत, कुश और ईखके परम मनोहर रमणीय झाड़ियों तथा मनोरम एवं दुर्लभ कपास और मालतीके वृक्षों अथवा लताओंसे वह वन्य प्रदेश सुशोभित हो रहा था। वहाँ मनको चुरा लेनेवाले उत्तम जातिके केलेके वृक्ष भी लहलहा रहे थे। कोई-कोई प्रदेश मरकतमणिके तुल्य हरी-हरी घासोंसे हरे-भरे थे। कहाँ कुङ्कुम और इरा (एक प्रकारकी नशोली मीठी लता) - के पुष्प बिखरे हुए थे। कहीं तगर, अतिविषा (अतीस नामकी जहरीली औषधि), जटामासी और गुग्गुलकी भीनी सुगन्ध फैल रही थी। कहीं कनेरके पुष्पों, भूमिपर फैली हुई लताओंके फूलों, जम्बीर वृक्षों और घासोंसे भूमि सुहावनी लग रही थी, जिसपर तोते विचर रहे थे। कहीं शृङ्गवेर (अदरख ), अजमोदा, कुबेरक (तुनि) और प्रियालक (छोटी पियार) के वृक्ष शोभा पा रहे थे तो कहीं अनेकों रंगोंके सुगन्धित कमलोंके पुष्प खिले हुए थे। उनमें कुछ पुष्प उगते हुए सूर्यके समान लाल, कुछ सूर्य सरीखे चमकीले एवं चन्द्रमाके से उज्वल थे, कुछ सुवर्ण-सदृश पोतोज्वल, कुछ अलसीके पुष्पके समान नीले तथा कुछ तोतेके पंखके सदृश हरे थे। इस प्रकार वहाँको भूमि इन पाँचों रंगोंवाले तथा अन्यान्य रंग-बिरंगे स्थलपुष्पोंसे आच्छादित थी।वह वनस्थली देखनेवालेकी दृष्टिको आनन्ददायक एवं चन्द्रमा सरीखे उज्ज्वल कुमुद पुष्पों तथा अग्रिकी शिखाके सदृश एवं हाथीके मुखमें संलग्न उज्ज्वल उत्पल, नीले उत्पल, कहार, गुंजातक (घुघुची), कसेरुक (कसेरा), शृङ्गाटक (सिंघाड़), कमलनाल, करट (कुसुम्भ) तथा चाँदीके समान उज्ज्वल उत्पलोंसे सुशोभित थी। इस प्रकार वह प्रदेश | जल-कमल एवं स्थलकमल तथा मूल, फल और पुष्पोंसे विशेष शोभायमान था। नरेश्वर ! वहाँ मुनियोंके खानेयोग्य अनेकों प्रकारके नीवार (तिनी) भी उगे हुए थे॥33-45 ॥
नरेन्द्र (यहाँतक कि) नागलोक, स्वर्गलोक, मृत्युलोक, जलप्रा स्थान तथा वनमें उत्पन्न होनेवाला ऐसा कोई भी अनाज, धान्य, शाक, फल, मूल, कन्द और फूल नहीं था, जो वहाँ विद्यमान न हो अर्थात् सभी प्राप्य थे । वहाँके वृक्ष ऋतुओंके अनुकूल सदा फूलों और फलोंसे लदे रहते थे। मद्रेश्वर पुरुरवाने अपनी तपस्याके प्रभावसे उस वनप्रान्तको देखा। राजाको वहाँ अनेकों प्रकारके रूप-रंगवाले पक्षी भी दीख पड़े जैसे मोर, शतपत्र (कठफोरवा), कलविंक (गौरैया), कोयल, कादम्बक (कलहंस), हंस, कोयष्टि (जलकुक्कुट), खंजरीट (खिड़रिच), कुरर (कराँकुल), कालकूट (जलकौआ), लोभी खट्वाङ्ग (पक्षिविशेष), गोश्वेदक (हारिल), कुम्भ (डोम कौआ), धार्तराष्ट्र (काली चोंच और काले पैरोंवाले हंस), तोते, बगुले, निष्ठुर चक्रवाक, कटाकू (कर्कश ध्वनि करनेवाले विशेष पक्षी), टिटिहिरी, भट (तीतर), पुत्रप्रिय (शरभ), लोहपृष्ठ (श्वेत चील्ह), गोच (चरसा), गिरिवर्तक (बतख), कबूतर, कमल (सारस), मैना, जीवजीवक (चकोर), लवा, वर्तक (बटेर), वार्ताक (बटेरोंकी एक जाति), रक्तवर्त्म (मुर्गा), प्रभद्रक (हंसका एक भेद), ताम्रचूड (लाल शिखावाले मुर्गे), स्वर्णचूड (स्वर्ग-सदृश शिखावाले मुर्गे), सामान्य मुर्गे, काष्ठकुकुट (मुर्गेका एक भेद), कपिञ्जल ( पपीहा), कलविंक (गौरैया), कुङ्कुमचूड (केसर सरीखी शिखावाले पक्षी), भृङ्गराज (पक्षिविशेष), सीरपाद (बड़ा सारस), भूलिंग (भूमिमें रहनेवाले पक्षी), डिण्डिम (हारिल पक्षीकी एक जाति), नव (काक), मञ्जुलीतक (चील्हकी जातिविशेष), दात्यूह (जलकाक), भारद्वाज (भरदूल) तथा चाप (नीलकण्ठ)- इन्हें तथा इनके अतिरिक्त अन्यान्य बहुत-से मनोहर पचिसमूहोंको राजाने देखा ll 46 - 55 llइसी प्रकार राजाको वहाँ विभिन्न रूप-रंगवाले जंगली जीव भी देखनेको मिले। जैसे-हिरन, बारहसिंथे बाघ, सिंह, शेर, चीता, शरभ (अष्टपदी), भेड़िया, रोछ, तरक्षु (लकड़ा), बहुत-से लाङ्गली वानर, सामान्य वानर, वायु सरीखे वेगशाली खरगोश, लोमड़ी, वनबिलाव बिलाव, मतवाले हाथी, भैंसे, नीलगाय, बैल, चमर (सुरा गाय), सृमर (बालमृग), श्वेत रंगके गधे, भेंड़, भेटू मृग कुने, नीले एवं गाढ़े नीले रंगवाले भयानक मृगमातृक (कस्तूरी मृग), बड़ी-बड़ी दाड़ों एवं रोमोंसे युक्त शरभ (अष्टपदी), क्रौंच पक्षीके आकारवाले शम्बर (सावर मृग), भयानक कृतमाल (एक प्रकारका हिरन), काली पूँछोंकले तोरण (सियार), ऊँट, गंडे, सूअर, घोड़े, खच्चर, गधे आदि जीवोंको उस वनमें परस्पर विरुद्धस्वभाववाले होनेपर भी द्वेषरहित होकर निवास करते देखकर मद्रेश्वर पुरूरवा विस्मयविमुग्ध हो गये। राजन्। पूर्वकालमें उसी स्थानपर महर्षि अत्रिका पुण्यमय आश्रम था। उन ऋषिकी कृपासे वह प्रदेश स्थावर जङ्गम प्राणियोंसे भरा हुआ अत्यन्त सुहावना था और वहाँ हिंसक जीव भी परस्पर एक-दूसरेकी हिंसा नहीं करते थे । ll 56- 63 ॥
महर्षि अत्रिने उस आश्रममें ऐसा उत्तम वातावरण बना दिया था कि वहाँके सभी मांसभोजी जीव दूध और फलका ही आहार करते थे। राजन्! मद्रेश्वरने पर्वतके उसी नितम्बप्रदेश (निचले भाग) में अपना निवास स्थान बनाया। वहाँ सब ओर कहीं भैंसों तो कहाँ बकरियोंके स्तनोंसे अमृतके समान स्वादिष्ट दिव्य दूध झरता रहता था, जिससे वहाँको शिलाएँ भीतर-बाहर- सब ओर दूध एवं दहीसे सराबोर रहती थीं। यह देखकर भूपाल पुरूरवाको परम हर्ष प्राप्त हुआ। वहाँ दिव्य सरोवर थे तथा निर्मल जलसे भरी हुई नदियाँ बह रही थीं। नालियोंमें कहीं गरम तो कहीं शीतल जल वह रहा था उस पर्वतकी कन्दराएँ पग-पगपर सेवन करने योग्य थीं। उस आश्रमके चारों ओर पाँच योजनके धेरेमें हिमपात नहीं होता था। उस सुन्दर पर्वतके शिखरके नीचे उपत्यका (मैदानी भूमि) नहीं थी (जिसके कारण वह प्रदेश जनशून्य था)। राजन्! वहाँ उस पर्वतराजका एक पीले रंगका शिखर है, जिसपर बादल संगठित होकर सदा हिमकी वर्षा किया करते हैं।वहीं एक दूसरा शिखर भी है, उस सुन्दर शिखरपर जलसे बोझिल हुए बादल बड़ी-बड़ी शिलाओंके साथ नित्य बरसते रहते हैं। जहाँ वह मनको लुभानेवाला आश्रम स्थित है, वहाँकी पृथ्वी कामनाओंको पूर्ण करनेवाली है। प्रधान देवताओंके उपयोगमें आनेके कारण वहाँके वृक्षोंके फल भी सफलताको प्राप्त करते रहते हैं । वह श्रेष्ठ आश्रम सदा भ्रमरोंकी गुंजारसे गुंजायमान एवं देवाङ्गनाओंसे सुसेवित तथा उस पर्वतके प्रहरीकी तरह सम्पूर्ण पापोंका विनाशक था। नरेश्वर ! एक स्थानसे दूसरे स्थानपर क्रीडा करते हुए बन्दरोंने वहाँकी बर्फराशिको चाँदनीके समान उज्ज्वल बना दिया था। वह आश्रम चारों ओरसे हिमाच्छादित कन्दराओं और कँकरीले पथरीले मार्गोंसे घिरा हुआ था, इसलिये वह मनुष्योंके लिये सदा अगम्य था । पूर्वजन्मकी आराधनाके प्रभावसे युक्त महाराज पुरूरवा देवाधिदेव भगवान्की कृपासे उस आश्रमपर पहुँचे थे। वह आश्रम थकावटको दूर करनेवाला, मनोहर, मनोमोहक पुष्पोंसे अलंकृत, स्वयं महर्षिद्वारा सुन्दररूपमें निर्मित, मङ्गलमय एवं शुभकारक था, उसे मद्रराज पुरूरवाने देखा ॥64–77॥