ऋषियोंने पूछा- सूतजी! अब हमलोग दानवराज हिरण्यकशिपुका वध तथा भगवान् नरसिंहके पापविनाशक माहात्म्यको सुनना चाहते हैं (आप उसे हमें सुनाइये ) ॥ 1 ॥
सूतजी कहते हैं- विप्रवरो। पूर्वकालमें कृतयुगमें दैत्योंके आदि पुरुष सामर्थ्यशाली हिरण्यकशिपुने महान् तप किया। उसने स्नान और मौनका व्रत | धारण करके ग्यारह हजार वर्षोंतक जलमें निवास किया।तब उसके मन:संयम, इन्द्रियनिग्रह, ब्रह्मचर्य, तपस्या और नियमपालनसे ब्रह्मा प्रसन्न हो गये। तत्पश्चात् स्वयं भगवान् ब्रह्मा सूर्यके समान तेजस्वी एवं चमकीले विमानपर, जिसमें हंस जुते हुए थे, सवार होकर आदित्यों, वसुओं, साध्यों, मरुद्रणों, देवताओं, रुद्रों, विश्वेदेवों, यक्षों, राक्षसों नागों दिशाओं, विदिशाओं, नदियों, सागरों, नक्षत्रों, मुहूर्ती, आकाशचारी महान् ग्रहों, देवगणों, ब्रह्मर्षियों, सिद्धों, सप्तर्षियों, पुण्यकर्मा राजर्षियों, गन्धवों और अप्सराओंके गणोंके साथ वहाँ आये। तदुपरान्त सम्पूर्ण देवताओंसे घिरे हुए ब्रह्मवेत्ताओंमें श्रेष्ठ चराचरगुरु श्रीमान् ब्रह्मा उस दैत्यसे इस प्रकार बोले- 'सुव्रत ! तुम जैसे भक्तकी इस तपस्यासे मैं प्रसन्न हूँ। तुम्हारा कल्याण हो। अब तुम यथेष्ट वर माँग लो और अपना मनोरथ सिद्ध करो' ॥ 2-10॥
हिरण्यकशिपु बोला- देवसत्तम! देवता, असुर गन्धर्व, यक्ष, नाग, राक्षस, मनुष्य अथवा पिशाच-ये कोई भी मुझे न मार सकें। प्रपितामह! ऋषिगण अपने शापद्वारा मुझे अभिशप्त न कर सकें। न अस्त्रसे, न शस्त्रसे, न पर्वतसे, न वृक्षसे, न शुष्क पदार्थसे, न गीले पदार्थसे, न दिनमें, न रातमें— अर्थात् कभी भी अथवा किसीसे भी मेरी मृत्यु न हो। मैं ही सूर्य, चन्द्रमा, वायु, अग्नि, जल, आकाश, नक्षत्र, दसों दिशाएँ, क्रोध, काम, वरुण, इन्द्र, यम, धनाध्यक्ष कुबेर और किम्पुरुषका अधीश्वर यक्ष हो जाऊँ। यदि आप मुझपर प्रसन्न हैं तो मैं यही वर माँग रहा हूँ ॥ 11-15 ॥
ब्रह्माने कहा तात ! मैंने तुम्हें इन दिव्य एवं अद्भुत वरदानोंको प्रदान कर दिया। वत्स! तुम सदा सभी मनोरथोंको प्राप्त करते रहोगे, इसमें संशय नहीं है। ऐसा कहकर भगवान् ब्रा आकाशमार्ग से ब्रह्मर्षियों द्वारा सेवित अपने वैराज नामक निवासस्थानको चले गये। तदनन्तर ऋषियोंसहित देवता, नाग और गन्धर्व इस प्रकारके वरप्रदानकी बात सुनते ही पितामहके पास | पहुँचे (और बोले ) ॥ 16-18 ॥देवताओंने कहा— भगवन् ! आपके इस वरप्रदानसे तो वह असुर हमलोगोंका वध कर डालेगा। अतः प्रभो! कृपा कीजिये और शीघ्र ही उसके वधका भी उपाय सोचिये भगवन्! आप स्वयं सम्पूर्ण प्राणियोंके आदिक स्वामी, हव्य एवं कव्यके स्रष्टा, अव्यक्तप्रकृति और सर्वज्ञ हैं। देवताओंके समस्त लोकोंके लिये हितकारक ऐसे वचनको सुनकर प्रजापति ब्रह्माने अपने परम शीतल वचनरूपी जलसे देवताओंको संसिक्त एवं आश्वस्त करते हुए बोले- 'देवगण! उसे अपनी तपस्याका फल तो अवश्य ही मिलना चाहिये। हाँ, तपस्याके पुण्यफलके समाप्त हो जानेपर भगवान् विष्णु उसका वध करेंगे।' कमलजन्मा ब्रह्माकी वह बात सुनकर सभी देवता हर्षपूर्वक अपने-अपने दिव्य स्थानोंको लौट गये ॥ 19 - 23 ॥
उधर वर प्राप्त होते ही उस वरदानसे गर्वित हुआ दैत्यराज हिरण्यकशिपु सभी प्रजाओंको कष्ट देना प्रारम्भ किया। उस दानवने आश्रमोंमें जाकर उन महान् भाग्यशाली मुनियोंको, जो उत्तम व्रतका पालन करनेवाले, सत्यधर्म परायण और जितेन्द्रिय थे, धर्षित कर दिया। उस महान् असुरने त्रिभुवनमें स्थित सभी देवताओंको पराजित कर दिया। तब वह दानव त्रिलोकीको अपने अधीन करके स्वर्गमें निवास करने लगा। इस प्रकार कालधर्मकी प्रेरणासे जब उसने वरदानके मदसे उन्मत्त हो दैत्योंको यज्ञभागका अधिकारी बनाया और देवताओंको उनके समुचित यज्ञभागोंसे वञ्चित कर दिया, तब आदित्यगण, साध्यगण, विश्वेदेव वसुगण, इन्द्रसहित देवगण, यक्ष, सिद्धगण और महर्षिगण- ये सभी उन महाबली विष्णुकी शरण में गये, जो शरणदाता, देवाधिदेव यज्ञमूर्ति वसुदेवके पुत्र और अविनाशी हैं ll 24- 29 ।।
देवताओंने कहा- महाभाग्यशाली नारायण! हम सभी देवता आपको शरणमें आये हुए हैं, आप हमारी रक्षा कीजिये। प्रभो! आप दैत्यराज हिरण्यकशिपुका वध कीजिये सुरोत्तम! आप ही हमलोगोंके परम पालक हैं, आप ही हमलोगोंके सर्वोत्कृष्ट गुरु हैं और आप ही हम ब्रह्मा आदि देवताओंके परम देव हैं । ll 30-31 ॥
भगवान् विष्णुने कहा- देवताओ! तुमलोग भय छोड़ दो। मैं तुमलोगोंको अभयदान दे रहा हूँ। पहलेकी तरह पुनः तुमलोगों का शीघ्र ही स्वर्गपर अधिकार हो जायगा।मैं सेनासहित उस दानवराज दैत्यका, जो वरदानकी | प्राप्तिसे गर्वीला और देवेश्वरोंके लिये अवध्य हो गया है, वध करूँगा। ऐसा कहकर महाबाहु भगवान् विष्णुने देवेश्वरोंको विदा कर दिया और स्वयं शीघ्रतापूर्वक ओंकारको (सहायकरूपमें) साथ लेकर हिरण्यकशिपुके वधका विचार करने लगे। तदनन्तर जो सर्वव्यापक, अविनाशी, परमेश्वर, सूर्यके समान तेजस्वी और दूसरे चन्द्रमाके से कान्तिमान् थे, वे भगवान् श्रीहरि ओंकारको साथ लेकर हिरण्यकशिपुके स्थानपर गये। उस समय वे आधा मनुष्यका और आधा सिंहका शरीर धारण कर नरसिंहरूपसे स्थित हो हाथसे हाथ मल रहे थे। तदनन्तर उन्होंने हिरण्यकशिपुकी चमकती हुई दिव्य सभा देखी, जो विस्तृत, अत्यन्त रुचिर, मनको लुभानेवाली और सम्पूर्ण अभिलषित पदार्थोंसे युक्त थी। सौ योजनके विस्तारमें फैली हुई वह सभा पचास योजन लम्बी और पाँच योजन चौड़ी थी। वह स्वेच्छानुसार आकाशमें उड़नेवाली तथा बुढ़ापा, शोक और थकावटसे रहित, निश्चल, कल्याणकारिणी, सुखदायिनी और परम रमणीय थी। उसमें अट्टालिकाओंसे युक्त भवन बने थे और वह तेजसे प्रज्वलित सी हो रही थी॥ 32-40 ॥ उसके भीतर जलाशय थे। वह फल पुष्प प्रदान करनेवाले दिव्य रत्नमय वृक्षोंसे संयुक्त थी। उसे विश्वकर्माने बनाया था। वह नीले, पीले, श्वेत, श्याम, कृष्ण और लोहित रंगके आवरणों और सैकड़ों मंजरियों से युक्त गुल्मोंसे आच्छादित होनेके कारण श्वेत बादलकी तरह उड़ती हुई-सी दीख रही थी। उसमेंसे किरणें फूट रही थीं। वह चमकीली और दिव्य गन्धसे युक्त होनेके कारण मनोरम थी। वह सर्वथा सुखदायिनी थी। उसमें दुःख, सर्दी और धूपका नाम निशान नहीं था। उसमें पहुँचकर दानवोंको भूख-प्यास और ग्लानिकी प्राप्ति नहीं होती थी। वह चित्र-विचित्र रंगवाले एवं अत्यन्त चमकीले नाना प्रकारके खम्भोंसे युक्त थी, परंतु उन खम्भोंपर आधारित नहीं थी। वहाँ रात नहीं होती थी, अपितु निरन्तर दिन ही बना रहता था। वह अपनी प्रभासे सूर्य, चन्द्रमा और अग्निका तिरस्कार कर रही थी तथा स्वर्गलोकमें स्थित होकर अनेकों सूर्योको उद्भासित करती हुई-सी उद्दीस हो रही थी।सभी प्रकारके मनोरथ, चाहे वे दिव्य हों या मानुष, सब-के-सब वहाँ प्रचुरमात्रामें उपलब्ध थे। वहाँ असंख्य प्रकारके अधिक-से-अधिक रसीले भक्ष्य एवं भोज्य पदार्थ और पुण्यगन्धमवी मालाएं सुलभ थीं वहाँके वृक्ष नित्य पुष्प और फल देनेवाले थे । वहाँका जल गर्मीमें शीतल और सर्दीमें उष्ण रहता था। वहाँ नदियों और सरोवरोंके तटपर बड़ी-बड़ी शाखाओंवाले वृक्ष लगे थे, जिनके अग्रभागमें पुष्प खिले हुए थे और जो लाल-लाल पल्लवों और अङ्कुरोंसे सुशोभित एवं लतारूपी वितानसे आच्छादित थे। भगवान् नृसिंह वहाँ ऐसे अनेकों प्रकारके वृक्ष देखे, जो सुगन्धित पुष्पों और रसदार फलोंसे लदे हुए थे। वहाँ यत्र-तत्र सरोवर भी थे, जिनमें न तो अत्यन्त शीतल और न गरम जल भरा रहता था । 41-50 ॥
भगवान् नृसिंहने उसकी सभा में सभी पुण्यक्षेत्रोंको भी देखा, जो सुगन्धयुक्त कमल, श्वेत कमल, लाल कमल, नील कमल और कुमुदिनी आदि पुष्पोंसे तथा अत्यन्त सुन्दर काली चोंच और काले पैरोंवाले हंसों, परमप्रिय लगनेवाले राजहंसों, बतखों, चक्रवाकों, सारसों, कराँकुलों एवं स्फटिककी-सी कान्तिवाले निर्मल और पीले पंखोंसे सुशोभित अन्यान्य पक्षियोंसे आच्छादित थे। उनमें बहुत से हंस कूज रहे थे और सर्वत्र सारसोंकी बोली सुनायी पड़ती थी। भगवान् नृसिंहने पर्वत शिखरोंपर पुष्पोंसे लदी हुई अनेकों प्रकारकी लताओंको भी देखा, जो सुन्दर मंजरियोंसे सुशोभित थी और जिनसे मनोरम गन्ध फैल रही थी। उस सभामें केतकी, अशोक, सरल (चीड़), पुन्नाग, तिलक, अर्जुन, आम, नीम, प्रस्थपुष्प, कदम्ब, बकुल, धव, प्रियंगु, पाटल, शाल्मली, हरिद्रक, साल, ताल, तमाल, मनोरम चम्पक, विद्रुम तथा प्रज्वलित अग्निकी-सी कान्तिवाले अन्यान्य वृक्ष फूलोंसे लदे हुए शोभा पा रहे थे। वहाँ अर्जुन और अशोकके से वर्णवाले मोटी-मोटी डालों एवं सुन्दर शाखाओंसे युक्त बहुत-से चित्रक (रेंड या तिलक) के वृक्ष थे, जिनकी ऊँचाई अनेकों तालवृक्षों के बराबर थी। वहाँ वरुण, वत्सनाभ, कटहल, चन्दन, सुन्दर पुष्पोंसे युक्त नीप, नीम, पीपल, तिन्दुक, पारिजात, लोध्र मल्लिका, भद्रदारु, आमला, जामुन, बड़हर, शैलबालुक,खजूर, नारियल, हरीतक, विभीतक, कालीयक, दुकाल, हाँग, पारियात्रक, मन्दार, कुन्द, लक्त, पतंग, कुटन लाल कुरण्टक, अगुरु, कदम्ब, सुन्दर अनार, बिजौरा नींबू, सप्तपर्ण, बेल, भँवरोंसे घिरे हुए अशोक, अनेकों गुल्मों और लताओंसे आच्छादित तमाल, महुआ और सप्तपर्ण आदि बहुत से वृक्ष तटपर उगे हुए थे। ll 51-65 ॥
वहाँ पत्र, पुष्प और फलसे सुशोभित अनेकों प्रकारकी लताएँ फैली हुई थीं। ये तथा इनके अतिरिक्त अन्यान्य बहुत से जंगली वृक्ष नाना प्रकारके पुष्पों और फलोंसे लदे हुए चारों और शोभा पा रहे थे। चकोर, शतपत्र (कठफोड़वा), मतवाली कोयल और मैना एक पुष्पित वृक्षके पल्लवसे उड़कर दूसरे पुष्पित महान् वृक्षपर बैठ रही थीं। वहाँ रक्त, पीत और अरुण वर्णवाले बहुतेरे पक्षी वृक्षोंके शिखरोंपर बैठे थे तथा चकोर प्रसन्न मनसे परस्पर एक-दूसरेकी ओर देख रहे थे। उसी सभामें उस समय दैत्यराज हिरण्यकशिपु सूर्यके समान चमकीले | एवं दिव्य बिछौनोंसे आच्छादित एक दस नल्व प्रमाणवाले रमणीय दिव्य सिंहासनपर आसीन था। वह विचित्र ढंगके आभूषणों और वस्त्रोंसे सुसज्जित तथा हजारों स्त्रियोंसे घिरा हुआ था। उसके कुण्डल बहुमूल्य मणियों और होरेकी प्रभासे उद्भासित हो रहे थे। ऐसे उद्दीप्त कुण्डलोंसे विभूषित दैत्यराज हिरण्यकशिपु यहाँ विराजमान था। उस समय दिव्य गन्धसे युक्त परम सुखदायिनी वायु चल रही थी। परिचारकगण महादैत्य हिरण्यकशिपुकी सेवामें जुटे हुए थे। गन्धर्वश्रेष्ठ दिव्य तानद्वारा गीत अलाप रहे थे ll 66-73 ॥
उस समय विश्वाची, सहजन्या, सुविख्यात प्रम्लोचा, दिव्या सौरभेय, समीची, पुंजिकस्थली मिश्रकेशी भा पवित्र मुसकानवाली चित्रलेखा, चारुकेशी, घृताची, मेनका तथा तथा अन्य हजारों नाचने-गाने निपुण अस समाली दैत्यराज हिरण्यकशिपुको सेवामें उपस्थित थीं।अनुपम कर्म करनेवाले सामर्थ्यशाली हिरण्यकशिपुके वहाँ विराजमान होनेपर वरप्राप्तिवाले सैकड़ों-हजारों दैत्य उसकी सेवा करते रहते थे। बलि, विरोचन, भूमि पुत्र नरक, प्रह्लाद, विप्रचित्ति, महान् असुर स्वबल, गविष्ठ, सुरहन्ता, दुःखहन्ता, सुनामा, असुरश्रेष्ठ सुमति, घटोदर, महापार्श्व, क्रथन, पिठर, विश्वरूप, सुरूप, महाबली दशग्रीव, वाली, महान् असुर मेघवासा, घटास्य, अकम्पन, प्रजन और इन्द्रतापन- ये तथा इनके अतिरिक्त अन्य बहुत-से दैत्यों एवं दानवोंके समुदाय महान् आत्मबलसे सम्पन्न एवं सामर्थ्यशाली हिरण्यकशिपुकी सेवा कर रहे थे। उन सभीके कानोंमें चमकीले कुण्डल झलमला रहे थे और गलेमें माला शोभा पा रही थी। वे सभी बोलनेमें निपुण तथा सदा व्रतका पालन करनेवाले थे। वे सभी शूरवीर, वरदानसे सम्पन्न, मृत्युरहित और दिव्य वस्त्रोंसे विभूषित थे। वे | अग्निके समान चमकीले विविध प्रकारके विमानोंसे सम्पन्न थे। उनके शरीर आभूषणोंसे विभूषित थे। उनकी भुजाओंपर विचित्र केयूर बँधा हुआ था और उनके शरीर महेन्द्रके | समान सुन्दर थे। इस प्रकार वे दैत्य सब तरहसे हिरण्यकशिपुकी | उपासना कर रहे थे। उस दिव्य सभामें बैठनेवाले सभी असुर पर्वतके समान विशालकाय थे। उनका शरीर स्वर्णके समान चमकीला था और उनकी कान्ति सूर्यके समान थी। महान् आत्मबलसे सम्पन्न उस दैत्यसिंह हिरण्यकशिपुका जैसा ऐश्वर्य था, वैसा न कभी देखा गया था और न सुना ही गया था ।। 74-87 ॥ महाबाहु
जिसमें सुवर्ण और चाँदीकी सुन्दर वेदिकाएँ बनी थीं, रत्नजटित होनेके कारण जिसकी गलियाँ अत्यन्त मनोहर लग रही थीं और जो सुन्दर ढंगसे बनाये गये रत्नोंके झरोखोंसे सुशोभित थी। उस सभामें भगवान् नृसिंहने दितिनन्दन हिरण्यकशिपुको देखा, उसका शरीर स्वर्णनिर्मित विमल हारसे विभूषित था, वह सूर्यकी उत्कट प्रभाके समान उद्दीप्त हो रहा था और उसकी सैकड़ों-हजारों दैत्य सेवा कर रहे थे। ll 88-89 ।।