मत्स्यभगवान्ने कहा—अब मैं परम श्रेष्ठ सुवर्णमय अश्वके दानकी विधि बतला रहा हूँ, जिसके प्रदानसे मनुष्य भुवनमें अनन्त फलको प्राप्त करता है। किसी | पुण्यतिथिके आनेपर तुलापुरुष-दानकी तरह पुण्याहवाचन | कर लोकपालोंका आवाहन करें। फिर ऋत्विज्, मण्डप, पूजन सामग्री, भूषण, आच्छादन आदिका संग्रह करे । बुद्धिमान् यजमान यदि स्वल्पवित्तवाला हो तो उसे यह हिरण्याश्व-यज्ञ एकाग्नि-विधिकी तरह करना चाहिये। उसे अपनी शक्तिके अनुरूप तीन पलसे ऊपर एक हजार पलतकके सोनेका अश्व बनवाना चाहिये और उसे रेशमी वस्त्रसे आच्छादितकर वेदीके ऊपर फैलाये गये काले मृगचर्मपर रखी हुई तिल-राशिपर स्थापित करना चाहिये। उसके निकट पादुका, जूता, छाता, चमर, आसन और पात्र तथा जलसे भरे हुए आठ कलश, पुष्प माला, ईख और फल भी रखनेका विधान है। उसी प्रकार वहाँ स्वर्णनिर्मित सूर्य-प्रतिमासे युक्त सभी सामग्रियोंके सहित शय्या भी स्थापित करे।तदनन्तर वेदज्ञ ब्राह्मणोंद्वारा सर्वोपधिमिश्रित जलसे स्नान लेकर कराये जानेके बाद यजमान अञ्जलिमें पुष्प मन्त्रका उच्चारण करे- 'सभी देवोंके स्वामी आपको नमस्कार है। वेदोंके लानेके लिये इच्छुक देव ! आप अश्वरूपसे इस संसार सागरसे मेरी रक्षा कीजिये। भास्कर! चूँकि आप ही छन्दोरूपसे सात भागों में विभक्त होकर सभी लोकोंको उद्भासित करते हैं, अतः सनातन! मेरी रक्षा कीजिये ॥ 1-9॥
इस प्रकार कहकर उस अश्वको गुरुको दान कर दे। इस दानको देनेसे पापके नष्ट हो जानेके कारण वह मनुष्य भगवान् सूर्यके अक्षयलोकको प्राप्त करता है। पुनः अपनी आर्थिक शक्तिके अनुकूल गौओंद्वारा सभी ऋत्विजोंको भी पूजा करे तत्पश्चात् धान्यसहित समस्त सामग्रियोंको तथा सम्पूर्ण सामग्रीसहित शय्याको गुरुको निवेदित कर दे। तदुपरान्त वह तैलरहित अन्नका भोजन करे और भोजनके बाद पुराणोंका श्रवण करे। नरेन्द्र! जो मनुष्य पुण्यदिन आनेपर इस हिरण्याश्व विधिको सम्पन्न करता है वह पापोंसे मुक्त हो सिद्धोंद्वारा पूजित होता हुआ मुरारिके पुर वैकुण्ठको प्राप्त करता है। जो मनुष्य इस सुवर्णाश्वके दानकी विधिको पढ़ता है, वह सभी पापोंसे मुक्त होकर अश्वमेध यज्ञके फलका भागी होता है और सुवर्णमय विमानद्वारा सूर्यके लोकको जाता है तथा जो इस दानको देखता है, वह देवाङ्गनाओंद्वारा पूजित होता है। जो अल्पवित्त पुरुष हिरण्याश्व दानकी इस विधिको सुनता या स्मरण करता है अथवा लोकमें इसका अभिनन्दन करता है, वह भी पापोंके नष्ट हो जानेसे विशुद्ध शरीरवाला हो पुरन्दर एवं महेश्वरसेवित स्थानको जाता है ।। 10- 15 ॥