मत्स्यभगवान्ने कहा- अब इसके बाद मैं मनुष्योंके अमङ्गल और पापको नष्ट करनेवाले सर्वश्रेष्ठ हेमधरादानका वर्णन कर रहा हूँ। दानी इस दानमें जम्बदीपके आकारकी भाँति सुवर्णमयी पृथ्वीकी रचना करवाये, वह मध्यमें सुमेरुपर्वतसे युक्त, मर्यादापर्वतोंसे सम्पन्न तथा आठ लोकपालों, नौ वर्षों, नदियों और नदोंसे युक्त हो, सातों सागरोंसे घिरी हुई हो। उसे बहुमूल्य रत्नोंसे जटित तथा वसु, रुद्र और आदित्योंसे युक्त कर दे। इस पृथ्वीको अपनी शक्तिके अनुसार एक हजार, पाँच सौ तीन सी. दो सौ या एक सौ पल सोनेका बनवाना चाहिये। विचक्षण पुरुष अपनी असमर्थतामें इसे पाँच पलसे अधिक स्वर्णसे भी बनवा सकता है। बुद्धिमान् पुरुष तुलापुरुष-दानको भाँति लोकपालोंका आवाहन तथा ऋत्विज, मण्डप, पूजनसामग्री, आभूषण और आच्छादन आदिका संकलन करे। फिर वेदीपर कृष्णमृगचर्म फैलाकर उसके ऊपर रखी हुई तिलराशिपर पृथ्वीको प्रतिमा स्थापित कर दे। तत्पश्चात् उसके चारों ओर अठारह प्रकारके अन्नों, लवणादि रसों और जलसे भरे आठ माङ्गलिक कलशोंको स्थापित करना चाहिये। उसे रेशमी चंदोवा, विविध प्रकारके फल, मनोहर रेशमी वस्त्र और चन्दनोंके टुकड़ों से अलंकृत करना चाहिये। इस प्रकार अधिवासनपूर्वक पृथ्वीका सारा कार्य सम्पन्नकर स्वयं श्वेत वस्त्र और पुष्पमाला धारणकर, घेत वर्णके आभूषणोंसे विभूषित हो अञ्जलिमें पुष्प लेकर प्रदक्षिणा करे तथा पुण्यकाल | आनेपर इन मन्त्रोंका उच्चारण करे ll 1-103 ॥
'वसुंधरे ! चूँकि तुम्हीं सभी देवताओं तथा सम्पूर्ण जीवनिकायको भवनभूता तथा धात्री हो, अतः मेरी रक्षा करो। तुम्हें नमस्कार है। चूँकि तुम सभी प्रकारके भवनों, उनमें वास करनेवाले प्राणियों तथा अत्यन्त निर्मल रत्नोंको भी धारण करती हो, इससे तुम्हारा वसुंधरा नाम है, तुम संसार भयसे मेरी रक्षा करो। अचले! | चूँकि ब्रह्मा भी तुम्हारे अन्तको नहीं प्राप्त कर सकते,इसलिये तुम अनन्ता हो, तुम्हें प्रणाम है। तुम इस संसाररूप कीचड़से मेरी रक्षा करो। तुम्हीं विष्णुमें लक्ष्मी, शिवमें गौरी, ब्रह्माके समीप गायत्री, चन्द्रमामें ज्योत्स्ना, रविमें प्रभा, बृहस्पतिमें बुद्धि और मुनियोंमें मेधा नामसे ख्यात हो। चूँकि तुम समस्त विश्वमें व्याप्त हो, इसलिये विश्वम्भरा कही जाती हो। धृति, स्थिति, क्षमा, क्षोणी, पृथ्वी, वसुमती तथा रसा—ये तुम्हारी मूर्तियाँ हैं। देवि! तुम अपनी इन मूर्तियोंद्वारा इस संसारसागरसे मेरी रक्षा करो।' इस प्रकार उच्चारणकर पृथ्वीकी मूर्तिको ब्राह्मणोंको निवेदित कर दे। उस पृथ्वीका आधा अथवा चौथाई भाग गुरुको समर्पित करे। शेष भाग ऋत्विजोंको देकर उन्हें नमस्कार कर विसर्जन करे। जो मनुष्य पुण्यकाल आनेपर सुवर्णनिर्मित कल्याणमयी पृथ्वीका इस विधिके साथ दान करता है, वह वैष्णव पदको प्राप्त होता है तथा क्षुद्रघंटिकाओं (घुँघरू) से सुशोभित एवं सूर्यके समान तेजस्वी विमानद्वारा वैकुण्ठमें जाकर तीन कल्पपर्यन्त निवास करता है और इक्कीस पीढ़ियोंके पितरों, पुत्रों तथा पौत्रोंका उद्धार कर देता है। इस प्रकार जो मनुष्य इस विधिको प्रसङ्गवश भी पढ़ता अथवा श्रवण करता है, उसका शरीर सर्वथा पापसमूहोंसे मुक्त हो जाता है और वह स्वर्गलोकमें देवाङ्गनाओंद्वारा प्रार्थित होता हुआ सहस्रों देवताओंद्वारा सेवित शंकरजीके लोकको प्राप्त होता है ॥ 11-21 ॥