मत्स्यभगवान्ने कहा- अब इसके बाद मैं मङ्गलमय सुवर्णनिर्मित हस्तिरथ नामक महादानका वर्णन कर रहा हूँ जिसे प्रदान करनेसे मनुष्य विष्णुलोकमें जाता है। पूर्वकथित तुलापुरुष-दानकी तरह किसी पुण्य तिथिके आनेपर बुद्धिमान् यजमानको ब्राह्मणोंद्वारा पुण्याहवाचन कराकर लोकपालोंका आवाहन करना चाहिये; फिर उसी प्रकार ऋत्विज्, मण्डप, पूजन सामग्री, आभूषण और आच्छादन आदिको इकट्ठाकरे। इस महादानमें भी यजमानको उपवास रखकर ब्राह्मणोंके साथ भोजन करनेका विधान है। उसे मणियोंसे सुशोभित पुष्परथके आकारका सुवर्णमय रथ, जो विचित्र तोरणों और चार पहियोंसे युक्त हो, बनवाना चाहिये। उस रथको कृष्णमृगचर्मके ऊपर रखे गये एक द्रोण | तिलपर स्थापित करना चाहिये। वह रथ आठों लोकपाल, ब्रह्मा, सूर्य और शिवकी प्रतिमाओंसे युक्त हो उसके मध्यभागमें लक्ष्मीसहित विष्णुभगवान्की भी मूर्ति होनी चाहिये। उसे अठारह प्रकारके अन्न, पात्र, आसन, चन्दन, दीपक, जूता, छत्र, दर्पण और पादुकासे भी युक्त होना चाहिये। उसके ध्वजपर गरुङ तथा जुआके अग्रभागपर विनायकको स्थापित करना चाहिये। वह नाना प्रकारके फलोंसे युक्त हो और उसके ऊपर चंदोवा तना हो वह पंचरंगे रेशमी वस्त्र, विकसित पुष्पों, चार माङ्गलिक कलशोंके साथ आठ गौओं तथा मोतियोंकी मालाओंसे विभूषित चार सुवर्णके हाथियोंसे सम्पन्न हो । पुनः दो जीवित हाथियोंको रथमें जोतकर दान करना चाहिये ॥ 1-9 ॥
अपनी शक्तिके अनुसार उस रथको पाँच पलसे ऊपर एक भार सोनेतकका बनवाना चाहिये। इस प्रकार | वेदज्ञ ब्राह्मणोंद्वारा माङ्गलिक शब्दोंके उच्चारणके साथ स्नान कराया गया यजमान अञ्जलिमें फूल लेकर तीन बार प्रदक्षिणा करे तथा निम्नलिखित मन्त्रका उच्चारण कर ब्राह्मणोंको दान दे- 'तेजोमय स्यन्दन शङ्कर, ब्रह्मा, सूर्य, लोकपाल, विद्याधर, वासुदेव, वेद, पुराण और यज्ञ तुम्हारी सेवा करते हैं, अतः तुम मेरी रक्षा करो। तुम्हें बारम्बार नमस्कार है। रथाधिरूढ़ स्वामिन्! विष्णुभगवान्का जो पद परमगुह्यतम, आनन्दका हेतु और गुण एवं रूपसे परे है तथा एकमात्र योगरूप मानसिक दृष्टिवाले मुनिगण जिसका समाधिकालमें दर्शन करते हैं वह आप ही हैं। माधव चूँकि आप ही भवसागरमें डूबनेवालोंके लिये आनन्दके पात्र, सत्यस्वरूप तथा यज्ञोंमें पानपात्र हैं, इसलिये आप इस सुवर्णमय हस्तिरथके दानसे मेरे | पापपुञ्जको नष्टकर मुझपर कृपा कीजिये।' जो मनुष्य इस प्रकार प्रणाम करके स्वर्णमय हस्तिरथका दान करता है उसका शरीर समस्त पापोंसे मुक्त हो जाता है और वह शङ्करजीके विद्याधर, देवगण एवं मुनीन्द्रगणोंद्वारा सेवित इन्द्रियातीत लोकको प्राप्त करता है। वह पूर्वजन्मके किये गये दुष्कर्म-रूप वितानसे आच्छादित प्रज्वलित अग्निकी ज्वालाओंके संयोगसे उत्पन्न हुए | दाहके उद्वेगसे युक्त बन्धुओं, पितरों, पुत्रों तथा सम्पूर्ण बान्धवोंको इस हस्तिरथके दानसे विष्णुभगवान्के शाश्वत लोकमें ले जाता है ॥ 10- 16 ॥