सूतजी कहते हैं— महर्षियो ! भगवान् वासुदेव अपनी प्रियतमा सत्यभामाको यह कथा सुनाकर सायंकालका सन्ध्योपासन करनेके लिये अपनी माता देवकीके भवनमें चले गये। इस पापनाशक कार्तिकमासका ऐसा ही प्रभाव बतलाया गया है। यह भगवान् विष्णुको सदा ही प्रिय है तथा भोग और मोक्षरूपी फल प्रदान करनेवाला है । रातमें भगवान् विष्णुके समीप जागना, प्रातः काल स्नान करना, तुलसीकी सेवामें संलग्न रहना, उद्यापन करना और दीप दान देना-ये कार्तिकमासके पाँच नियम हैं। * इन पाँचों नियमोंके पालनसे कार्तिकका व्रत करनेवाला पुरुष पूर्ण फलका भागी होता है। वह फल भोग और मोक्ष देनेवाला बताया गया है।
ऋषि बोले—रोमहर्षणकुमार सूतजी ! आपने इतिहाससहित कार्तिकमासकी विधिका भलीभाँति वर्णन किया। यह भगवान् विष्णुको प्रिय लगनेवाला तथा अत्यन्त उत्तम फल देनेवाला है। इसका प्रभाव बड़ा ही आश्चर्यजनक है। इसलिये इसका अनुष्ठान अवश्य करना चाहिये। परन्तु यदि कोई व्रत करनेवाला पुरुष संकटमें पड़ जाय या दुर्गम वनमें स्थित हो अथवा रोगों से पीड़ित हो तो उसे इस कल्याणमय कार्तिक-व्रतका अनुष्ठान कैसे करना चाहिये ?
सूतजीने कहा – महर्षियो ऐसे मनुष्यको भगवान् विष्णु अथवा शिवके मन्दिरमें केवल जागरण करना चाहिये। विष्णु और शिवके मन्दिर न मिलें तो किसी भी मन्दिरमें वह जागरण कर सकता है। यदि कोई दुर्गम वनमें स्थित हो अथवा आपत्ति में फँस जाय तो वह अश्वत्थ वृक्षकी जड़के पास अथवा तुलसीके वृक्षोंके बीच बैठकर जागरण करे। जो पुरुष भगवान् विष्णुके समीप बैठकर श्रीविष्णुके नाम तथा चरित्रोंका गान करता है, उसे सहस्र गो-दानोंका फल मिलता है। बाजा बजानेवाला पुरुष वाजपेय यज्ञका फल पाता है और भगवान् के पास नृत्य करनेवाला पुरुष सम्पूर्ण तीर्थोंमें स्नान करनेका फल प्राप्त करता है। जो उक्त नियमोंका पालन करनेवाले मनुष्योंको धन देता है, उसे यह सब पुण्य प्राप्त होता है। उक्त नियमोंका पालन करनेवाले पुरुषोंके दर्शन और नाम सुननेसे भी उनके पुण्यका छठा अंश प्राप्त होता है। जो आपत्तिमें फँस जानेके कारण नहानेके लिये जल न पा सके अथवा जो रोगी होनेके कारण स्नान न कर सके, वह भगवान् विष्णुका नाम लेकर मार्जन कर ले। जो कार्तिक-व्रतके पालनमें प्रवृत्त होकर भी उसका उद्यापन करनेमें समर्थ न हो, उसे चाहिये कि अपने व्रतकी पूर्तिके लिये यथाशक्ति ब्राह्मणोंको भोजन कराये। ब्राह्मण इस पृथ्वीपर अव्यक्तरूप श्रीविष्णुके व्यक्त स्वरूप हैं। उनके सन्तुष्ट होनेपर भगवान् सदा सन्तुष्ट होते हैं, इसमें तनिक भी संदेह नहीं है। जो स्वयं दीपदान करनेमें असमर्थ 1 हो, वह दूसरोंका दीप जलाये अथवा हवा आदिसे उन दीपों की यत्नपूर्वक रक्षा करे। तुलसी-वृक्षके अभावमें वैष्णव ब्राह्मणका पूजन करे; क्योंकि भगवान् विष्णु अपने भक्तोंके हृदयमें सदा ही विराजमान रहते हैं। अथवा सब साधनोंके अभावमें व्रत करनेवाला पुरुष व्रतकी पूर्तिके लिये ब्राह्मणों, गौओं तथा पीपल और वटके वृक्षोंकी सेवा करे ।
ऋषियोंने पूछा- सूतजी ! आपने पीपल और वटको गौ तथा ब्राह्मणके समान कैसे बता दिया ? वे दोनों अन्य सब वृक्षोंकी अपेक्षा अधिक पूज्य क्यों माने गये ?
सूतजी बोले- महर्षियो ! पीपलके रूपमें साक्षात् भगवान् विष्णु ही विराजते हैं। इसी प्रकार वट भगवान् शंकरका और पलाश ब्रह्माजीका स्वरूप है। इन तीनोंका दर्शन, पूजन और सेवन पापहारी माना गया है। दुःख, आपत्ति, व्याधि और दुष्टोंके नाशमें भी उसको कारण बताया गया है।