नारदजी कहते हैं- - इस प्रकार विष्णुपार्षदोंके वचन सुनकर धर्मदत्तको बड़ा आश्चर्य हुआ, वे उन्हें साष्टांग प्रणाम करके बोले-‘प्रायः सभी लोग भक्तोंका कष्ट दूर करनेवाले श्रीविष्णुकी यज्ञ, दान, व्रत, तीर्थसेवन और तपस्याओंके द्वारा विधिपूर्वक आराधना करते हैं; उन समस्त साधनोंमें कौन-सा ऐसा साधन है जो श्रीविष्णुको प्रीतिकारक तथा उनके सामीप्यकी प्राप्ति करानेवाला है? किस साधनका अनुष्ठान करनेसे उपर्युक्त सभी साधनोंका अनुष्ठान स्वत: हो जाता है ?
दोनों पार्षदोंने कहा – ब्रह्मन् ! तुमने बहुत उत्तम बात पूछी है; अब एकाग्रचित्त होकर सुनो, हम इतिहाससहित प्राचीन वृत्तान्तका वर्णन करते हैं। पहले कांचीपुरीमें चोल नामक एक चक्रवर्ती राजा हो गये हैं; उनके अधीन जितने देश थे वे भी चोल नामसे ही विख्यात हुए। राजा चोल जब इस भूमण्डलका शासन करते थे, उस समय कोई भी मनुष्य दरिद्र, दुःखी, पापमें मन लगानेवाला अथवा रोगी नहीं था। उन्होंने इतने यज्ञ किये थे, जिनकी कोई गणना नहीं हो सकती। उनके यज्ञोंके सुवर्णमय एवं शोभाशाली यूपोंसे भरे हुए ताम्रपर्णी नदीके दोनों किनारे चैत्ररथ वनके समान सुशोभित होते थे। एक समयकी बात है, राजा चोल 'अनन्तशयन' नामक तीर्थमें गये, जहाँ जगदीश्वर श्रीविष्णु योगनिद्राका आश्रय ले सो रहे थे। वहाँ लक्ष्मीरमण भगवान् श्रीविष्णुके दिव्य विग्रहकी राजाने विधिपूर्वक पूजा की। मणि, मोती तथा सुवर्णके बने हुए सुन्दर फूलोंसे पूजन करके उन्होंने भगवान्को साष्टांग प्रणाम किया। प्रणाम करके वे ही बैठे, उसी समय उनकी दृष्टि भगवान्के पास आते हुए एक ब्राह्मणपर पड़ी, जो उन्हीं की कांचीनगरीके निवासी थे। उनका नाम विष्णुदास था। वे भगवान्की पूजाके लिये अपने हाथमें तुलसीदल और जल लिये हुए थे। निकट आनेपर उन ब्रह्मर्षिने विष्णुसूक्तका पाठ करते हुए देवदेव भगवान्को स्नान कराया और तुलसीकी मंजरी तथा पत्तों विधिवत् पूजा की। राजा चोलने जो पहले रत्नोंसे भगवान्की पूजा की थी, वह सब तुलसी पूजासे ढक गयी। यह देख राजा कुपित होकर बोले—'विष्णुदास! मैंने मणियों तथा सुवर्णसे भगवान्की पूजा की थी, वह कितनी शोभा पा रही थी! किन्तु तुमने तुलसीदल चढ़ाकर सब ढक दी। बताओ, ऐसा क्यों किया ? मुझे तो ऐसा जान पड़ता है, तुम बड़े मूर्ख हो; भगवान् विष्णुकी भक्तिको बिलकुल नहीं जानते। तभी तो तुम अत्यन्त सुन्दर सजी-सजायी पूजाको पत्तोंसे ढके जा रहे हो। तुम्हारे इस बर्तावपर मुझे बड़ा आश्चर्य हो रहा है।'
विष्णुदास बोले - राजन्! आपको भक्तिका कुछ भी पता नहीं है, केवल राजलक्ष्मीके कारण आप घमण्ड कर रहे हैं। बताइये तो, आजसे पहले आपने कितने वैष्णव व्रतोंका पालन किया है ?
राजाने कहा— ब्राह्मण ! यदि तुम विष्णुभक्तिसे अत्यन्त गर्वमें आकर ऐसी बात करते हो तो बताओ, तुममें कितनी भक्ति है? तुम तो दरिद्र हो, निर्धन हो। तुमने श्रीविष्णुको संतुष्ट करनेवाले यज्ञ और दान आदि कभी नहीं किये हैं तथा पहले कहीं कोई देवालय भी नहीं बनवाया है। ऐसी दशामें भी तुम्हें अपनी भक्तिका इतना घमण्ड है! अच्छा, तो आज यहाँ जितने भी श्रेष्ठ ब्राह्मण उपस्थित हैं, वे सभी कान खोलकर मेरी बात सुन लें। देखना है, मैं पहले भगवान् विष्णुका दर्शन पाता हूँ या यह; इससे लोगोंको स्वयं ही ज्ञात हो जायगा कि हम दोनोंमेंसे किसमें कितनी भक्ति है।
दोनों पार्षद बोले- ब्रह्मन् ! यह कहकर राजा चोल अपने राजभवनको चले गये और उन्होंने महर्षि मुद्गलको आचार्य बनाकर वैष्णव-यज्ञका अनुष्ठान आरम्भ किया, जिसमें बहुत-से ऋषियोंका समुदाय एकत्रित हुआ। बहुत-सा अन्न खर्च किया गया और प्रचुर दक्षिणा बाँटी गयी। जैसे पूर्वकालमें गयाक्षेत्रके भीतर ब्रह्माजीने समृद्धिशाली यज्ञका अनुष्ठान किया था, उसी प्रकार राजा चोलने भी महान् यज्ञ आरम्भ किया। उधर विष्णुदास भी वहीं भगवान्के मन्दिरमें ठहर गये और श्रीविष्णुको सन्तुष्ट करनेवाले शास्त्रोक्त नियमोंका भलीभाँति पालन करते हुए सदा ही व्रतका अनुष्ठान करने लगे। माघ और कार्तिकके व्रत, तुलसीके बगीचेका भलीभाँति पालन, एकादशीका व्रत, द्वादशाक्षर मन्त्रका जप तथा गीत-नृत्य आदि मांगलिक उत्सवोंके साथ षोडशोपचारद्वारा प्रतिदिन श्रीविष्णुकी पूजा-यही उनकी जीवनचर्या थी। वे इन्हीं व्रतोंका पालन करते थे। चलते, खाते और सोते समय भी उन्हें निरन्तर श्रीविष्णुका स्मरण बना रहता था। वे समदर्शी थे और सम्पूर्ण प्राणियोंमें भगवान् विष्णुको स्थित देखते थे। उन्होंने भगवान् विष्णुके संतोषके लिये उद्यापनविधिसहित माघ और कार्तिकके विशेष- विशेष नियमोंका भी सर्वदा पालन किया। इस प्रकार राजा चोल और विष्णुदास दोनों ही भगवान् विष्णुकी आराधना करने लगे। दोनों ही अपने-अपने व्रतमें स्थित रहते थे, दोनोंकी ही इन्द्रियाँ और दोनोंके ही कर्म भगवान्में ही केन्द्रित थे एक दिनकी बात है, विष्णुदासने नित्यकर्म करनेके पश्चात् भोजन तैयार किया; किन्तु उसे किसीने चुरा लिया। चुरानेवाले पर किसीकी दृष्टि नहीं पड़ी। विष्णुदासने देखा, भोजन गायब है, फिर भी उन्होंने दुबारा भोजन नहीं बनाया; क्योंकि ऐसा करनेपर सायंकालकी पूजाके लिये अवकाश नहीं मिलता, अतः प्रतिदिनके नियमके भंग हो जानेका भय था। दूसरे दिन उसी समयपर भोजन बनाकर वे ज्यों ही भगवान् विष्णुको भोग लगानेके लिये गये त्यों ही कोई आकर फिर सारा भोजन हड़प ले गया। इस प्रकार लगातार सात दिनोंतक कोई आ-आकर उनके भोजनका अपहरण करता रहा। इससे विष्णुदासको बड़ा विस्मय हुआ । वे मन-ही-मन इस प्रकार विचार करने लगे- 'अहो ! यह कौन प्रतिदिन आकर मेरी रसोई चुरा ले जाता है? मैं क्षेत्र - संन्यास ले चुका हूँ, अतः अब किसी तरह इस स्थानका परित्याग नहीं कर सकता। यदि दुबारा बनाकर भोजन करूँ तो सायंकालकी यह पूजा कैसे छोड़ दूँ। कोई सा भी पाक बनाकर मैं तुरंत भोजन तो करूँगा ही नहीं; क्योंकि जबतक सारी सामग्री भगवान् विष्णुको निवेदन न कर लूँ तबतक मैं भोजन नहीं करता। प्रतिदिन उपवास करनेसे मैं इस व्रतकी समाप्तितक जीवित कैसे रह सकता हूँ। अच्छा, आज मैं रसोईकी भलीभाँति रक्षा करूँगा।'
यों सोचकर भोजन बनानेके पश्चात् वे वहीं कहीं छिपकर खड़े हो गये। इतनेमें ही एक चाण्डाल दिखायी दिया, जो रसोईका अन्न हड़प ले जानेको तैयार खड़ा था। भूखके मारे उसका सारा शरीर दुर्बल हो रहा था, मुखपर दीनता छा रही थी, शरीरमें हाड़ और चामके सिवा और कुछ बाकी नहीं बचा था। उसे देखकर श्रेष्ठ ब्राह्मण विष्णुदासका हृदय करुणासे व्यथित हो उठा। उन्होंने भोजन लेकर जाते हुए चाण्डालपर दृष्टि डाली और कहा-'भैया! जरा ठहरो, ठहरो। क्यों रूखा-सूखा खाते हो। यह घी तो ले लो।' इस तरह बोलते हुए विप्रवर विष्णुदासको आते देख चाण्डाल बड़े वेगसे भागा और भयसे मूच्छित होकर • गिर पड़ा। चाण्डालको भयभीत और मूच्छित देख द्विजश्रेष्ठ विष्णुदास वेगसे चलकर उसके पास पहुँचे और करुणावश अपने वस्त्र के किनारेसे उसको हवा करने लगे । तदनन्तर जब वह उठकर खड़ा हुआ तो विष्णुदासने देखा- - वह चाण्डाल नहीं, साक्षात् भगवान् नारायण ही शंख, चक्र और गदा धारण किये सामने विराजमान हैं। कटिमें पीताम्बर, चार भुजाएँ, हृदयमें श्रीवत्सका चिह्न तथा मस्तकपर किरीट शोभा पा रहे हैं । अलसीके फूलकी भाँति श्यामसुन्दर शरीर और कौस्तुभमणिसे जगमगाते हुए वक्षःस्थलकी अपूर्व शोभा हो रही है। अपने प्रभुको प्रत्यक्ष देखकर द्विजश्रेष्ठ विष्णुदास सात्त्विक * भावोंके वशीभूत हो गये। वे स्तुति और नमस्कार करनेमें भी समर्थ न हो सके। उस समय वहाँ इन्द्र आदि देवता भी आ पहुँचे। गन्धर्व और अप्सराएँ गाने और नाचने लगीं। वह स्थान सैकड़ों विमानोंसे भर गया और देवर्षियोंके समुदायसे सुशोभित होने लगा। चारों ओर गीत और वाद्योंकी ध्वनि छा गयी। तब भगवान् विष्णुने सात्त्विक व्रतका पालन करनेवाले अपने भक्त विष्णुदासको छातीसे लगा लिया और उन्हें अपने-ही-जैसा रूप देकर वे वैकुण्ठधामको ले चले। उस समय यज्ञमें दीक्षित हुए राजा चोलने देखा, विष्णुदास एक सुन्दर विमानपर बैठकर भगवान् विष्णुके समीप जा रहे हैं। विष्णुदासको वैकुण्ठधाममें जाते देख राजाने तुरंत ही अपने गुरु महर्षि मुद्गलको बुलाया और इस प्रकार कहना आरम्भ किया। राजा बोले- जिसके साथ लाग-डाँट होनेके कारण मैंने यह यज्ञ-दान आदि कर्मका अनुष्ठान किया है, वह ब्राह्मण आज भगवान् विष्णुका रूप धारण करके मुझसे पहले ही वैकुण्ठधाममें जा रहा है। मैंने इस वैष्णवयागमें भलीभाँति दीक्षित होकर अग्निमें हवन किया और दान आदिके द्वारा ब्राह्मणोंका मनोरथ पूर्ण किया; तथापि अभीतक भगवान् मुझपर प्रसन्न नहीं हुए और इस ब्राह्मणको केवल भक्तिके ही कारण श्रीहरिने प्रत्यक्ष दर्शन दिया है। अतः जान पड़ता है, भगवान् विष्णु केवल दान और यज्ञोंसे प्रसन्न नहीं होते। उन प्रभुका दर्शन करानेमें भक्ति ही प्रधान कारण है।
दोनों पार्षद कहते हैं—यों कहकर राजाने अपने भानजेको राज्यसिंहासनपर अभिषिक्त कर दिया। वे बचपनसे ही यज्ञकी दीक्षा लेकर उसीमें संलग्न रहते थे, इसलिये उन्हें कोई पुत्र नहीं हुआ । यही कारण है कि उस देशमें अबतक भानजे ही सदा राज्यके उत्तराधिकारी होते वे सब-के-सब राजा चोलके द्वारा स्थापित आचारका ही पालन करते हैं। भानजेको राज्य देनेके पश्चात् राजा यज्ञशालामें गये और यज्ञकुण्डके सामने खड़े होकर श्रीविष्णुको सम्बोधित करते हुए तीन बार उच्च स्वरसे निम्नांकित वचन बोले- 'भगवान् विष्णु ! आप मुझे मन, वाणी, शरीर और क्रियाद्वारा स्थिर भक्ति प्रदान कीजिये।' यों कहकर वे सबके देखते-देखते अग्निमें कूद पड़े। उस समय मुद्गल मुनिने क्रोधमें आकर अपनी शिखा उखाड़ डाली। तभीसे आजतक उस गोत्र में उत्पन्न होनेवाले समस्त मुद्गल ब्राह्मण बिना शिखाके ही रहते हैं। राजा ज्यों ही अग्निकुण्डमें कूदे, उसी समय भक्तवत्सल भगवान् विष्णु प्रकट हो गये और उन्होंने राजाको छातीसे लगाकर एक श्रेष्ठ विमानपर बिठाया, फिर अपने ही समान रूप देकर उन देवेश्वरने देवताओंसहित वैकुण्ठधामको प्रस्थान किया। उक्त दोनों भक्तोंमें जो विष्णुदास थे, वे तो पुण्यशील नामसे प्रसिद्ध भगवान्के पार्षद हुए तथा जो राजा चोल थे, उनका नाम सुशील हुआ। हम वे ही दोनों हैं। लक्ष्मीजीके प्रियतम श्रीहरिने हमें अपने समान रूप देकर अपना द्वारपाल बना लिया है। इसलिये धर्मज्ञ ब्राह्मण! तुम भी सदा भगवान् विष्णुके व्रतमें
स्थित रहो। मात्सर्य और दम्भका परित्याग करके सर्वत्र समान दृष्टि रखो। तुला, मकर और मेषकी संक्रान्तिमें सदा प्रातः स्नान किया करो। एकादशीके व्रतमें लगे रहो और तुलसीवनकी रक्षा करते रहो। ब्राह्मणों, गौओं तथा वैष्णवोंकी सदा ही सेवा करो। मसूर, काँजी और बैगन खाना छोड़ दो। धर्मदत्त ! ऐसा करनेसे तुम भी शरीरका अन्त होनेपर श्रीविष्णुके परमपदको प्राप्त करोगे। जैसे हमलोगोंने भगवान्की भक्तिसे ही उन्हें पाया है उसी प्रकार तुम भी उन्हें प्राप्त कर लोगे। तुमने जन्मसे लेकर अबतक जो श्रीविष्णुको संतुष्ट करनेवाला यह व्रत किया है, इससे यज्ञ, दान और तीर्थ भी बड़े नहीं हैं। विप्रवर! तुम धन्य हो; क्योंकि तुमने जगद्गुरु भगवान् श्रीविष्णुको प्रसन्न करनेवाले इस व्रतका अनुष्ठान किया है; जिसके एक भागका पुण्य पाकर ही प्रेतयोनिमें पड़ी हुई कलहा मुक्त हो गयी। अब हमलोग इसे भगवान् विष्णु लोकमें ले जा रहे हैं।
नारदजी कहते हैं— राजन् ! इस प्रकार विमानपर बैठे हुए विष्णुके दूतोंने धर्मदत्तको उपदेश देकर कलहाके साथ वैकुण्ठधामकी यात्रा की। तत्पश्चात् धर्मदत्त भी पूर्ण विश्वासके साथ उस व्रतमें लगे रहे और शरीरका अन्त होनेपर अपनी दोनों पत्नियोंके साथ वे भगवान्के परमधामको चले गये। जो पुरुष इस प्राचीन इतिहासको सुनता और सुनाता है, वह जगद्गुरु भगवान्की कृपासे उनका सान्निध्य प्राप्त करानेवाली उत्तम गति पाता है।