सत्यभामाने पूछा -देवदेवेश्वर ! तिथियोंमें एकादशी और महीनों में कार्तिकमास आपको विशेष प्रिय क्यों हैं? इसका कारण बताइये।
भगवान् श्रीकृष्ण बोले-सत्ये! तुमने बहुत अच्छी बात पूछी है। एकाग्रचित्त होकर सुनो। प्रिये! पूर्वकालमें राजा पृथुने श्री देवर्षि नारदसे ऐसा ही प्रश्न किया था। उस समय सर्वज्ञ मनिने उन्हें कार्तिकमासकी श्रेष्ठताका कारण बताया था। नारदजी बोले - पूर्वकालमें शंख नामक एक असुर था, जो त्रिलोकीका नाश करनेमें समर्थ तथा महान् बल एवं पराक्रमसे युक्त था। वह समुद्रका पुत्र था। उस महान् असुरने समस्त देवताओंको परास्त करके स्वर्गसे बाहर कर दिया और इन्द्र आदि लोकपालोंके अधिकार छीन लिये। देवता मेरुगिरिकी दुर्गम कन्दराओंमें छिपकर रहने लगे। शत्रुके अधीन नहीं हुए। तब दैत्यने सोचा कि 'देवता वेदमन्त्रोंके बलसे प्रबल प्रतीत होते हैं। यह बात मेरी समझमें आ गयी है, अतः मैं वेदोंका ही अपहरण करूँगा। इससे समस्त देवता निर्बल हो जायँगे।' ऐसा निश्चय करके वह वेदोंको हर ले आया। इधर ब्रह्माजी पूजाकी सामग्री लेकर देवताओंके साथ वैकुण्ठलोकमें जा भगवान् विष्णुकी शरणमें गये। उन्होंने भगवान्को जगानेके लिये गीत गाये और बाजे बजाये। तब भगवान् विष्णु उनकी भक्तिसे सन्तुष्ट हो जाग उठे। देवताओंने उनका दर्शन किया। वे सहस्रों सूर्योंके समान कान्तिमान् दिखायी देते थे। उस समय षोडशोपचारसे भगवान्की पूजा करके देवता उनके चरणोंमें पड़ गये। तब भगवान् लक्ष्मीपतिने उनसे इस प्रकार कहा। श्रीविष्णु बोले- देवताओ! तुम्हारे गीत, वाद्य आदि मंगलमय कार्योंसे सन्तुष्ट हो मैं वर देनेको उद्यत हूँ। तुम्हारी सभी मनोवांछित कामनाओंको पूर्ण करूँगा। कार्तिकके शुक्लपक्षमें 'प्रबोधिनी' एकादशीके दिन जब एक पहर रात बाकी रहे, उस समय गीत वाद्य आदि मंगलमय विधानोंके द्वारा जो लोग तुम्हारे ही समान मेरी आराधना करेंगे, वे मुझे प्रसन्न करनेके कारण मेरे समीप आ जायँगे। शंखासुरके द्वारा हरे गये सम्पूर्ण वेद जलमें स्थित हैं। मैं सागरपुत्र शंखका वध करके उन्हें ले आऊँगा। आजसे लेकर सदा ही प्रतिवर्ष कार्तिकमासमें मन्त्र, बीज और यज्ञोंसे युक्त वेद जलमें विश्राम करेंगे। आजसे मैं भी इस महीनेमें जलके भीतर निवास करूँगा। तुमलोग भी मुनीश्वरोंको साथ लेकर मेरे साथ आओ। इस समय जो श्रेष्ठ द्विज प्रातः स्नान करते हैं, वे निश्चय ही सम्पूर्ण यज्ञोंका अवभृथ स्नान कर चुके। जिन्होंने जीवनभर शास्त्रोक्त विधिसे कार्तिकके उत्तम व्रतका पालन किया हो, वे तुमलोगोंके भी माननीय हों । तुमने एकादशीको मुझे जगाया है; इसलिये यह तिथि मेरे लिये अत्यन्त प्रीतिदायिनी और माननीय होगी। कार्तिकमास और एकादशी तिथि – इन दो व्रतोंका यदि मनुष्य अनुष्ठान करें तो ये मेरे सान्निध्यकी प्राप्ति करानेवाले हैं। इनके समान दूसरा कोई साधन नहीं है।
नारदजी कहते हैं - यह कहकर भगवान् विष्णु मछलीके समान रूप धारण करके आकाशमें विन्ध्यपर्वतनिवासी कश्यप मुनिकी अंजलिमें गिरे। मुनिने करुणावश उस मत्स्यको अपने कमण्डलुमें रख लिया; किन्तु वह उसमें अँट न सका। तब उन्होंने उसे कुएँमें ले जाकर डाल दिया। जब उसमें भी वह न आ सका, तब मुनिने उसे तालाबमें पहुँचा दिया; किन्तु वहाँ भी यही दशा हुई। इस प्रकार उसे अनेक स्थानोंमें रखते हुए अन्ततोगत्वा उन्होंने समुद्रमें डाल दिया। वहाँ भी बढ़कर वह विशालकाय हो गया। तदनन्तर उन मत्स्यरूपधारी भगवान् विष्णुने शंखासुरका वध किया और उस शंखको अपने हाथमें लिये वे बदरीवनमें गये। वहाँ सम्पूर्ण ऋषियोंको बुलाकर
भगवान् ने इस प्रकार आदेश दिया। श्रीविष्णु बोले- महर्षियो! जलके भीतर बिखरे हुए वेदोंकी खोज करो और रहस्योंसहित उनका पता लगाकर शीघ्र ही ले आओ। तबतक मैं देवताओंके साथ प्रयागमें ठहरता हूँ।
तब तेज और बलसे सम्पन्न समस्त मुनियोंने यज्ञ और बीजसहित वेदमन्त्रोंका उद्धार किया। जिस वेदके जितने मन्त्रको जिस ऋषिने उपलब्ध किया, वही उतने भागका तबसे ऋषि माना जाने लगा। तदनन्तर सब मुनि एकत्रित होकर प्रयागमें गये तथा ब्रह्माजीसहित भगवान् विष्णुको उन्होंने प्राप्त किये हुए वेद अर्पण कर दिये। यज्ञसहित वेदोंको पाकर ब्रह्माजीको बड़ा हर्ष हुआ तथा उन्होंने देवताओं और ऋषियोंके साथ प्रयागमें अश्वमेध यज्ञ किया। यज्ञकी समाप्ति होनेपर देवता, गन्धर्व, यक्ष, किन्नर तथा गुह्यकोंने पृथ्वीपर साष्टांग प्रणाम करके यह प्रार्थना की।
देवता बोले- देवाधिदेव जगन्नाथ ! प्रभो !! हमारा निवेदन सुनिये। हमलोगोंके लिये यह बड़े हर्षका समय है, अतः आप हमें वरदान दें। रमापते ! इस स्थानपर ब्रह्माजीको खोये हुए वेदोंकी प्राप्ति हुई है तथा आपकी कृपासे हमें भी यज्ञभाग उपलब्ध हुआ है; अतः यह स्थान पृथ्वीपर सबसे अधिक श्रेष्ठ और पुण्यवर्धक हो। इतना ही नहीं, आपके प्रसादसे यह भोग और मोक्षका भी दाता हो। साथ ही यह समय भी महान् पुण्यदायक और ब्रह्महत्यारे आदिकी भी शुद्धि करनेवाला हो।
इसमें दिया हुआ सब कुछ अक्षय हो। यही वर हमें दीजिये। भगवान् विष्णुने कहा –देवताओ! तुमने जो कुछ कहा है, उसमें मेरी भी सम्मति है; अतः तुम्हारी इच्छा पूर्ण हो, यह स्थान आजसे 'ब्रह्मक्षेत्र' नाम धारण करे। सूर्यवंशमें उत्पन्न राजा भगीरथ यहाँ गंगाको ले आयेंगे और वह सूर्यकन्या यमुनाजीक साथ यहाँ मिलेगी। ब्रह्माजीसहित तुम सम्पूर्ण देवता भी मेरे साथ यहाँ निवास करो। आजसे यह तीर्थ 'तीर्थराज' के नामसे विख्यात होगा। यहाँ किये हुए दान, व्रत, तप, होम, जप और पूजा आदि कर्म अक्षय फलके दाता और सदा मेरी समीपताकी प्राप्ति करानेवाले हों। सात जन्मोंमें किये हुए ब्रह्महत्या आदि पाप भी इस तीर्थका दर्शन करनेसे तत्काल नष्ट हो जायँ। जो धीर पुरुष इस तीर्थमें मेरे समीप मृत्युको प्राप्त होंगे, वे मुझमें ही प्रवेश कर जायँगे, उनका पुनर्जन्म नहीं होगा। जो यहाँ मेरे आगे पितरोंके उद्देश्यसे श्राद्ध करेंगे, उनके समस्त पितर मेरे लोकमें चले जायेंगे। यह काल भी मनुष्योंके लिये महान् पुण्यमय तथा उत्तम फल प्रदान करनेवाला होगा। सूर्यके मकर राशिपर स्थित रहते हुए जो लोग यहाँ प्रात:काल स्नान करेंगे, उनके लिये यह स्थान पापनाशक होगा। मकर राशिपर सूर्यके रहते समय माघमें प्रातः स्नान करनेवाले मनुष्योंके दर्शनमात्रसे सारे पाप उसी प्रकार भाग जाते हैं, जैसे सूर्योदयसे अन्धकार माघमें जब सूर्य मकर राशिपर स्थित हों, उस समय यहाँ प्रातः स्नान करनेपर मैं मनुष्योंको क्रमशः सालोक्य, सामीप्य और सारूप्य - तीनों प्रकारकी मुक्ति दूँगा। मुनीश्वरो ! तुम सब लोग मेरी बात सुनो। यद्यपि मैं सर्वत्र व्यापक हूँ तो भी बदरीवनमें सदा विशेषरूपसे निवास करता हूँ; अन्यत्र दस वर्षोंतक तपस्या करनेसे जिस फलकी प्राप्ति होती है, वही वहाँ एक दिनकी तपस्यासे तुमलोग प्राप्त कर सकते हो। जो नरश्रेष्ठ उस स्थानका दर्शन करते हैं, वे सदाके लिये जीवन्मुक्त हैं। उनके शरीरमें पाप नहीं रहता ।
नारदजी कहते हैं—देवदेव भगवान् विष्णु देवताओंसे इस प्रकार कहकर ब्रह्माजीके साथ वहीं अन्तर्धान हो गये तथा इन्द्र आदि सम्पूर्ण देवता भी अपने अंशोंसे वहाँ रहकर स्वरूपसे अन्तर्धान हो गये। जो शुद्ध चित्तवाला श्रेष्ठ पुरुष इस कथाको सुनता या सुनाता है, वह तीर्थराज प्रयाग और बदरीवनकी यात्रा करनेका फल प्राप्त कर लेता है।