राजा पृथुने कहा- मुने! आपने कार्तिक और माघके स्नानका महान् फल बतलाया; अब उनमें किये जानेवाले स्नानकी विधि और नियमोंका भी वर्णन कीजिये, साथ ही उनकी उद्यापन विधिको भी ठीक-ठीक बताइये ।
नारदजी बोले - राजन्! तुम भगवान् विष्णुके अंशसे उत्पन्न हुए हो, तुम्हारे लिये कोई बात अज्ञात नहीं है। तथापि तुम पूछते हो, इसलिये मैं कार्तिकके परम उत्तम माहात्म्यका वर्णन करता हूँ; सुनो।
आश्विनमासके शुक्लपक्षमें जो एकादशी आती है, उसी दिन आलस्य छोड़कर कार्तिकके उत्तम व्रतोंका नियम ग्रहण करे। व्रत करनेवाला पुरुष पहरभर रात बाकी रहे तभी उठे और जलसहित लोटा लेकर गाँवसे बाहर नैर्ऋत्यकोणकी ओर जाय । दिन और सन्ध्याके समय उत्तर दिशाकी ओर मुँह करके तथा रात हो तो दक्षिणकी ओर मुँह करके मल-मूत्रका त्याग करे । पहले जनेऊको दाहिने कानपर चढ़ा ले और भूमिको तिनकेसे ढककर अपने मस्तकको वस्त्रसे आच्छादित कर ले। शौचके समय मुखको यत्नपूर्वक मूँदे रखे। न तो थूके और न मुँह से ऊपरको साँस ही खींचें। मलत्यागके पश्चात् गुदाभाग तथा हाथको इस प्रकार धोये, जिससे मलका लेप और दुर्गन्ध दूर हो जाय इस कार्यमें आलस्य नहीं करना चाहिये । पाँच बार गुदामें, दस बार बायें हाथमें तथा सात-सात बार दोनों हाथोंमें मिट्टी लगाकर धोये। फिर एक बार लिंगमें, तीन बार बायें हाथमें और दो दो बार दोनों हाथोंमें मिट्टी लगाकर धोये। यह गृहस्थके लिये शौचकी विधि बतायी गयी। ब्रह्मचारीके लिये इससे दूना, वानप्रस्थके लिये तिगुना और संन्यासीके लिये चौगुना करनेका विधान है। रातको दिनकी अपेक्षा आधे शौच (मिट्टी लगाकर धोने) -का नियम है। रास्ता चलनेवाले व्यक्तिके लिये, स्त्रीके लिये त शूद्रोंके लिये उससे भी आधे शौचका विधान है। शौचकर्मसे हीन पुरुषकी समस्त क्रियाएँ निष्फल होती हैं। जो अपने मुँहको अच्छी तरह साफ नहीं रखता, उसके उच्चारण किये हुए मन्त्र फलदायक नहीं होते; इसलिये प्रयत्नपूर्वक दाँत और जीभकी शुद्धि करनी चाहिये। गृहस्थ पुरुष किसी दूधवाले वृक्षकी बारह अंगुलकी लकड़ी लेकर दाँतुन करे; किन्तु यदि घरमें पिताकी क्षयाह तिथि या व्रत हो तो दाँतुन न करे। दाँतुन करनेके पहले वनस्पति-देवतासे इस प्रकार प्रार्थना करे
आयुर्बलं यशो वर्चः प्रजाः पशुवसूनि च । ब्रह्मप्रज्ञां च मेधां च त्वं नो देहि वनस्पते ॥
(94 । 11)
'हे वनस्पते ! आप मुझे आयु, बल, यश, तेज, संतति, पशु, धन, ब्रह्मज्ञान और स्मरणशक्ति प्रदान करें ।'
इस मन्त्रका उच्चारण करके दाँतुनसे दाँत साफ करना चाहिये। प्रतिपदा, अमावास्या, नवमी, षष्ठी, रविवार तथा चन्द्रमा और सूर्यके ग्रहणके दिन दाँतुन नहीं करना चाहिये। व्रत और श्राद्धके दिन भी लकड़ीकी दाँतुन करना मना है, उन दिनों जलके बारह कुल्ले करके मुख शुद्ध करनेका विधान है। काँटेदार वृक्ष, कपास, सिन्धुवार, ब्रह्मवृक्ष (पलाश), बरगद, एरण्ड (रैंड्) और दुर्गन्धयुक्त वृक्षोंकी लकड़ीको दाँतुनके काममें नहीं लेना चाहिये। फिर स्नान करनेके पश्चात् भक्तिपरायण एवं प्रसन्नचित्त होकर चन्दन, फूल और ताम्बूल आदि पूजाकी सामग्री ले भगवान् विष्णु अथवा शिवके मन्दिरमें जाय। वहाँ भगवान्को पृथक्-पृथक् पाद्य-अर्घ्य आदि उपचार अर्पण करके स्तुति करे तथा पुनः नमस्कार करके गीत आदि मांगलिक उत्सवका प्रबन्ध करे। ताल, वेणु और मृदंग आदि बाजोंके साथ भगवान् के सामने नृत्य और गान करनेवाले लोगोंका भी ताम्बूल आदिके द्वारा सत्कार करे। जो भगवान्के मन्दिरमें गान करते हैं, वे साक्षात् विष्णुरूप हैं। कलियुगमें किये हुए यज्ञ, दान और तप भक्तिसे युक्त होनेपर ही जगद्गुरु भगवान्को संतोष देनेवाले होते हैं। राजन् ! एक बार मैंने भगवान्से पूछा- 'देवेश्वर ! आप कहाँ निवास करते हैं?' तो वे मेरी भक्तिसे सन्तुष्ट होकर बोले 'नारद! न तो मैं वैकुण्ठमें निवास करता हूँ और न योगियोंके हृदयमें। मेरे भक्त जहाँ मेरा गुण-गान करते हैं वहीं मैं भी रहता हूँ।* यदि मनुष्य गन्ध, पुष्प आदिके द्वारा मेरे भक्तोंका पूजन करते हैं तो उससे मुझे जितनी अधिक प्रसन्नता होती है उतनी स्वयं मेरी पूजा करनेसे भी नहीं होती। जो मूर्ख मानव मेरी पुराण-कथा और मेरे भक्तोंका गान सुनकर निन्दा करते हैं, वे मेरे द्वेषके पात्र होते हैं।
शिरीष (सिरस), उन्मत्त (धतूरा), गिरिजा (मातुलुंगी), मल्लिका (मालती), सेमल, मदार और कनेरके फूलोंसे तथा अक्षतों के द्वारा श्रीविष्णुकी पूजा नहीं करनी चाहिये। जवा, कुन्द, सिरस, जूही, मालती और केवड़ेके फूलोंसे श्रीशंकरजीका पूजन नहीं करना चाहिये। लक्ष्मी प्राप्तिकी इच्छा रखनेवाला पुरुष तुलसीदलसे गणेशका, दूर्वादलसे दुर्गाका तथा अगस्त्यके फूलोंसे सूर्यदेवका पूजन न करे। * इनके अतिरिक्त जो उत्तम पुष्प हैं, वे सदा सब देवताओंकी पूजाके लिये प्रशस्त माने गये हैं। इस प्रकार पूजा विधि पूर्ण करके देवदेव भगवान् से क्षमा-प्रार्थना करे
मन्त्रहीनं क्रियाहीनं भक्तिहीनं सुरेश्वर । यत्पूजितं मया देव परिपूर्णं तदस्तु मे ॥
(94 । 30) ‘देवेश्वर! देव! मेरे द्वारा किये गये आपके पूजनमें जो मन्त्र विधि तथा भक्तिकी न्यूनता हुई हो, वह सब आपकी कृपासे पूर्ण हो जाय।'
तदनन्तर प्रदक्षिणा करके दण्डवत् प्रणाम करे तथा पुनः भगवान्से त्रुटियोंके लिये क्षमा-याचना करते हुए गायन आदि समाप्त करे। जो इस कार्तिककी रात्रिमें भगवान् विष्णु अथवा शिवकी भलीभाँति पूजा करते हैं वे मनुष्य पापहीन हो अपने पूर्वजोंके साथ श्रीविष्णुके धाममें जाते हैं।
नारदजी कहते हैं- जब दो घड़ी रात बाकी रहे तब तिल, कुश, अक्षत, फूल और चन्दन आदि लेकर पवित्रतापूर्वक जलाशयके तटपर जाय। मनुष्योंका खुदवाया हुआ पोखरा हो अथवा कोई देवकुण्ड हो या नदी अथवा उसका संगम हो-इनमें उत्तरोत्तर दसगुने पुण्यकी प्राप्ति होती है तथा यदि तीर्थमें स्नान करे तो उसका अनन्त फल माना गया है। तत्पश्चात् भगवान् विष्णुका स्मरण करके स्नानका संकल्प करे तथा तीर्थ आदिके देवताओंको क्रमशः अर्घ्य आदि निवेदन करे। फिर भगवान् विष्णुको अर्घ्य देते हुए निम्नांकित मन्त्रका पाठ करे नमः कमलनाभाय नमस्ते जलशायिने ।
नमस्तेऽस्तु हृषीकेश गृहाणार्घ्यं नमोऽस्तु ते ॥
कार्तिकेऽहं करिष्यामि प्रातः स्नानं जनार्दन ।
प्रीत्यर्थं तव देवेश दामोदर मया सह ॥
ध्यात्वाऽहं त्वां च देवेश जलेऽस्मिन् स्नातुमुद्यतः ।
तव प्रसादात्पापं मे दामोदर विनश्यतु ।
(951 4, 7, 8) 'भगवान् पद्मनाभको नमस्कार है। जलमें शयन करनेवाले श्रीनारायणको नमस्कार है। हृषीकेश! आपको बारम्बार नमस्कार है। यह अर्घ्य ग्रहण कीजिये। जनार्दन ! देवेश ! लक्ष्मीसहित दामोदर! मैं आपकी प्रसन्नताके लिये कार्तिकमें प्रातः स्नान करूँगा । देवेश्वर ! आपका ध्यान करके मैं इस जलमें स्नान करनेको उद्यत हूँ। दामोदर! आपकी कृपासे मेरा पाप नष्ट हो जाय। ' तत्पश्चात् राधासहित भगवान् श्रीकृष्णको निम्नांकित मन्त्र अर्घ्य दे
नित्ये नैमित्तिके कृष्ण कार्तिके पापनाशने । गृहाणार्घ्यं मया दत्तं राधया सहितो हरे ॥
(95/9)
"श्रीराधासहित भगवान् श्रीकृष्ण ! नित्य और नैमित्तिक कर्मरूप इस पापनाशक कार्तिकस्नानके व्रतके निमित्त मेरा दिया हुआ यह अर्ध्य स्वीकार करें। '
इसके बाद व्रत करनेवाला पुरुष भागीरथी, श्रीविष्णु, शिव और सूर्यका स्मरण करके नाभिके बराबर जलमें खड़ा हो विधिपूर्वक स्नान करे। गृहस्थ पुरुषको तिल और आँवलेका चूर्ण लगाकर स्नान करना चाहिये। वनवासी संन्यासी तुलसीके मूलकी मिट्टी लगाकर स्नान करे। सप्तमी, अमावास्या, नवमी, द्वितीया, दशमी और त्रयोदशीको आँवलेके फल और तिलके द्वारा स्नान करना निषिद्ध है। पहले मल-स्नान करे अर्थात् शरीरको खूब मल-मलकर उसकी मैल छुडाये। उसके बाद मन्त्रस्नान करे। स्त्री और शूद्रोंको वेदोक्त मन्त्रोंसे स्नान नहीं करना चाहिये। उनके लिये पौराणिक मन्त्रोंका उपयोग बताया गया है।
व्रती पुरुष अपने हाथमें पवित्रक धारण करके निम्नांकित मन्त्रोंका उच्चारण करते हुए स्नान करे
त्रिधाभूद्देवकार्यार्थं यः पुरा भक्तिभावितः । स विष्णुः सर्वपापघ्नः पुनातु कृपयात्र माम् ॥
विष्णोराज्ञामनुप्राप्य कार्तिकव्रतकारणात्। क्षमन्तु देवास्ते सर्वे मां पुनन्तु सवासवाः ॥
वेदमन्त्राः सबीजाश्च सरहस्या मखान्विताः । कश्यपाद्याश्च मुनयो मां पुनन्तु सदैव ते ॥
गङ्गाद्याः सरितः सर्वास्तीर्थानि जलदा नदाः । ससप्तसागराः सर्वे मां पुनन्तु सदैव ते ॥
पतिव्रतास्त्वदित्याद्या यक्षाः सिद्धाः सपन्नगाः । ओषध्यः पर्वताश्चापि मां पुनन्तु त्रिलोकजाः ॥
(95।14-18)
'जो पूर्वकालमें भक्तिपूर्वक चिन्तन करनेपर देवताओंके कार्यकी सिद्धिके लिये तीन स्वरूपोंमें प्रकट हुए तथा जो समस्त पापोंका नाश करनेवाले हैं, वे भगवान् विष्णु यहाँ कृपापूर्वक मुझे पवित्र करें। श्रीविष्णुकी आज्ञा प्राप्त करके कार्तिकका व्रत करनेके कारण यदि मुझसे कोई त्रुटि हो जाय तो उसके लिये समस्त देवता मुझे क्षमा करें तथा इन्द्र आदि देवता मुझे पवित्र करें। बीज, रहस्य और यज्ञोंसहित वेदमन्त्र और कश्यप आदि मुनि मुझे सदा ही पवित्र करें। गंगा आदि सम्पूर्ण नदियाँ, तीर्थ, मेघ, नद और सात समुद्र- ये सभी मुझे सर्वदा पवित्र करें। अदिति आदि पतिव्रताएं, यक्ष, सिद्ध, नाग तथा त्रिभुवनकी ओषधि और पर्वत भी मुझे पवित्र करें।'
स्नानके पश्चात् विधिपूर्वक देवता, ऋषि, मनुष्य (सनकादि) तथा पितरोंका तर्पण करे। कार्तिकमासमें पितृ तर्पणके समय जितने तिलोंका उपयोग किया जाता है उतने ही वर्षोंतक पितर स्वर्गलोकमें निवास करते हैं। तदनन्तर जलसे बाहर निकलकर व्रती मनुष्य पवित्र वस्त्र धारण करे और प्रातः कालोचित नित्यकर्म पूरा करके श्रीहरिका पूजन करे। फिर भक्तिसे भगवान्में मन लगाकर तीर्थों और देवताओंका स्मरण करते हुए पुनः गन्ध, पुष्प और फलसे युक्त अर्घ्य निवेदन करे। अर्घ्यका मन्त्र इस प्रकार है
व्रतिनः कार्तिके मासि स्नातस्य विधिवन्मम । गृहाणार्घ्यं मया दत्तं राधया सहितो हरे ॥
(95 / 23) 'भगवन्! मैं कार्तिकमासमें स्नानका व्रत लेकर विधिपूर्वक स्नान कर चुका हूँ। मेरे दिये हुए इस अर्घ्यको आप श्रीराधिकाजीके साथ स्वीकार करें।'
इसके बाद वेदविद्याके पारंगत ब्राह्मणोंका गन्ध, पुष्प और ताम्बूलके द्वारा भक्तिपूर्वक पूजन करे और बारम्बार उनके चरणों में मस्तक झुकावे। ब्राह्मणके दाहिने पैरमें सम्पूर्ण तीर्थ, मुखमें वेद और समस्त अंगोंमें देवता निवास करते हैं; अतः ब्राह्मणके पूजन करनेसे इन सबकी पूजा हो जाती है। इसके पश्चात् हरिप्रिया भगवती तुलसीकी पूजा करे। प्रयागमें स्नान करने, काशीमें मृत्यु होने और वेदोंके स्वाध्याय करनेसे जो फल प्राप्त होता है; वह सब श्रीतुलसीके पूजनसे मिल जाता है, अतः एकाग्रचित्त होकर निम्नांकित मन्त्रसे तुलसीकी प्रदक्षिणा और नमस्कार करे देवैस्त्वं निर्मिता पूर्वमर्चिताऽसि मुनीश्वरैः । नमो नमस्ते तुलसि पापं हर हरिप्रिये ॥
(95।30)
'हरिप्रिया तुलसीदेवी! पूर्वकालमें देवताओंने तुम्हें उत्पन्न किया और मुनीश्वरोंने तुम्हारी पूजा की। तुम्हें बारम्बार नमस्कार है। मेरे सारे पाप हर लो।'
तुलसी पूजनके पश्चात् व्रत करनेवाला भक्तिमान् पुरुष चित्तको एकाग्र करके भगवान् विष्णुकी पौराणिक कथा सुने तथा कथावाचक विद्वान् ब्राह्मण अथवा मुनिको पूजा करे। जो मनुष्य भक्तियुक्त होकर पूर्वोक्त सम्पूर्ण विधियोंका भलीभाँति पालन करता है, वह अन्तमें भगवान् नारायणके परमधाममें जाता है।