ब्रह्माजी कहते हैं - व्रत करनेवाले पुरुषको उचित है कि वह सदा एक पहर रात बाकी रहते ही सोकर उठ जाय। फिर नाना प्रकारके स्तोत्रोंद्वारा भगवान् विष्णुकी स्तुति करके दिनके कार्यका विचार करे। गाँवसे नैर्ऋत्य कोणमें जाकर विधिपूर्वक मल-मूत्रका त्याग करे । यज्ञोपवीतको दाहिने कानपर रखकर उत्तराभिमुख होकर बैठे। पृथ्वीपर तिनका बिछा दे और अपने मस्तकको वस्त्रसे भलीभाँति ढक ले, मुखपर भी वस्त्र लपेट ले, अकेला रहे तथा साथ जलसे भरा हुआ पात्र रखे। इस प्रकार दिनमें मल-मूत्रका त्याग करें। यदि रातमें करना हो तो दक्षिण दिशाकी ओर मुँह करके बैठे। मलत्यागके पश्चात् गुदामें पाँच या सात बार मिट्टी लगाकर धोवे, बायें हाथमें दस बार मिट्टी लगावे, फिर दोनों हाथोंमें सात बार और दोनों पैरोंमें तीन बार मिट्टी लगानी चाहिये। यह गृहस्थके लिये शौचका नियम बताया गया है। ब्रह्मचारीके लिये इससे दूना, वानप्रस्थके लिये तीन-गुना और संन्यासीके लिये चौगुना शौच कहा गया है। यह दिनमें शौचका नियम है। रातमें इससे आधा ही पालन करे। यात्रामें गये हुए मनुष्यके लिये उससे भी आधे शौचका विधान है तथा स्त्रियों और शूद्रोंके लिये उससे भी आधा शौच बताया गया है। शौचकर्म से हीन पुरुषकी समस्त क्रियाएँ निष्फल होती हैं।
तदनन्तर दाँत और जिह्वाकी शुद्धिके लिये वृक्षके पास जाकर यह मन्त्र पढ़े
आयुर्बलं यशो वर्चः प्रजाः पशुवसूनि च।
ब्रह्म प्रज्ञां च मेधां च त्वं नो देहि वनस्पते ॥
'हे वनस्पते! आप मुझे आयु, बल, यश, तेज, सन्तति, पशु, धन, वैदिक ज्ञान, प्रज्ञा और धारणाशक्ति प्रदान करें।' ऐसा कहकर वृक्षसे बारह अंगुलकी दाँतन ले, दूधवाले वृक्षोंसे दाँतन नहीं लेनी चाहिये। इसी प्रकार कपास, काँटेदार वृक्ष तथा जले हुए पेड़से भी दाँतन लेना मना है। जिससे उत्तम गन्ध आती हो और जिसकी टहनी कोमल हो, ऐसे ही वृक्षसे दन्तधावन ग्रहण करना चाहिये। उपवासके दिन, नवमी और षष्ठी तिथिको, श्राद्धके दिन, रविवारको, ग्रहणमें, प्रतिपदाको तथा अमावास्याको भी काष्ठसे दाँतन नहीं करनी चाहिये। जिस दिन दाँतनका विधान नहीं है, उस दिन बारह कुल्ले कर लेने चाहिये। विधिपूर्वक दाँतोंको शुद्ध करके मुँहको जलसे धो डाले और भगवान् विष्णुके नामोंका उच्चारण करते हुए दो घड़ी रात रहते ही स्नानके लिये जलाशयपर जाय।
कार्तिकके व्रतका पालन करनेवाला पुरुष विधिसे स्नान करे। फिर धोती निचोड़कर अपनी रुचिके अनुसार तिलक करे। तत्पश्चात् अपनी शाखाके अनुकूल आह्निकसूत्रकी बतायी हुई पद्धतिसे सन्ध्योपासन करे। जबतक सूर्योदय न हो जाय तबतक गायत्रीमन्त्रका जप करता रहे। यह रात्रिक अन्तका कृत्य बताया गया है। अब दिनका कार्य बताया जाता है। सन्ध्योपासनाके अन्तमें विष्णुसहस्रनाम आदिका पाठ करे, फिर देवालयमें आकर पूजन प्रारम्भ करे। भगवत्सम्बन्धी पदोंके गान, कीर्तन और नृत्य आदि कार्यों में दिनका प्रथम प्रहर व्यतीत करे। तत्पश्चात् आध पहरतक भलीभाँति पुराण-कथाका श्रवण करे। उसके बाद पुराण बाँचनेवाले विद्वान्की और तुलसीकी पूजा करके मध्याह्नका कर्म करनेके पश्चात् दालके सिवा शेष अन्नका भोजन करे। बलिवैश्वदेव करके अतिथियोंको भोजन कराकर जो मनुष्य स्वयं भोजन करता है, उसका वह भोजन केवल अमृत है। मुखशुद्धिके लिये तीर्थ-जल (भगवच्चरणामृत) - से तुलसी- भक्षण करे। फिर शेष दिन सांसारिक व्यवहारमें व्यतीत करे। सायंकालमें पुनः भगवान् विष्णुके मन्दिरमें जाय और सन्ध्या करके शक्तिके अनुसार दीपदान करे। भगवान् विष्णुको प्रणाम करके उनकी आरती उतारे और स्तोत्रपाठ आदि करते हुए प्रथम प्रहरमें जागरण करे। प्रथम प्रहर बीत जानेपर शयन करे। ब्रह्मचर्यव्रतका पालन करे। इस प्रकार एक मासतक प्रतिदिन शास्त्रोक्त विधिका पालन करे। जो कार्तिकमासमें उत्तम व्रतका पालन करता है, वह सब पापोंसे मुक्त हो भगवान् विष्णुके सालोक्यको प्राप्त होता है।
कार्तिकमास आनेपर निषिद्ध वस्तुओंका त्याग करना चाहिये। तेल लगाना, परान्न भोजन करना, तेल खाना, जिसमें बहुत-से बीज हों ऐसे फलोंका सेवन तथा चावल और दाल- ये सभी कार्तिकमासमें त्याज्य हैं। लौकी, गाजर, बैगन, वनभंटा (ऊंटकटारा), बासी अन्न, भैंसीड़, मसूर, दुबारा भोजन, मदिरा, पराया अन्न, काँसीके पात्रमें भोजन, छत्राक, काँजी, दुर्गन्धित पदार्थ, समुदाय (संस्था आदि) का अन्न, वेश्याका अन्न, ग्रामपुरोहित और शूद्रका अन्न और सूतकका अन्न- ये सभी त्याग देने योग्य हैं। श्राद्धका अन्न, रजस्वलाका दिया हुआ अन्न, जननाशौचका अन्न और लसोड़ेका फल - इन्हें कार्तिकव्रतका पालन करनेवाला पुरुष अवश्य त्याग दे । निषिद्ध पत्तलोंमें भोजन न करे। महुआ, केला, जामुन और पकड़ी - इनके पत्तोंमें भोजन करना चाहिये। कमलके पत्तेपर कदापि भोजन न करे। कार्तिकमास आनेपर जो वनवासी मुनियोंके अनुसार नियमित भोजन करता है, वह चक्रपाणि भगवान् विष्णुके परम धाममें जाता है। कार्तिकमें प्रातः काल स्नान और भगवान्की पूजा करनी चाहिये। उस समय कथाश्रवण उत्तम माना गया है। कार्तिक में केला और आँवलेके फलका दान करे और शीतसे कष्ट पानेवाले ब्राह्मणको कपड़ा दे। जो कार्तिकमें भक्तिपूर्वक भगवान् विष्णुको तुलसीदल समर्पित करता है, वह संसारसे मुक्त हो भगवान् विष्णुके परम पदको प्राप्त होता है। श्रीहरिके परम प्रिय कार्तिकमासमें जो नित्य गीतापाठ करता है, उसके पुण्यफलका वर्णन सैकड़ों वर्षोंमें भी नहीं किया जा सकता। जो श्रीमद्भागवतका भी श्रवण करता है वह सब पापोंसे मुक्त हो परम शान्तिको प्राप्त होता है। जो कार्तिककी एकादशीको निराहार रहकर व्रत करता है, वह नि:सन्देह पूर्वजन्मके पापोंसे मुक्त हो जाता है। जो कार्तिकमें भगवान् विष्णुकी प्रसन्नताके लिये दूसरेके अन्नका त्याग करता है, वह भगवान् विष्णुके प्रेमको भलीभाँति प्राप्त करता है। जो राह चलकर थके-माँदे और भोजनके समयपर घरपर आये हुए अतिथिका भक्तिपूर्वक पूजन करता है वह सहस्रों जन्मोंके पापका नाश कर डालता है। जो मूढ़ मानव वैष्णव महात्माओंकी निन्दा करते हैं, वे अपने पितरोंके साथ महारौरव नरकमें गिरते हैं। जो भगवान्की और भगवद्भक्तोंकी निन्दा सुनते हुए भी वहाँसे दूर नहीं हट जाता वह भगवान्का प्रिय भक्त नहीं है। जो कार्तिकमासमें भगवान् विष्णुकी परिक्रमा करता है उसे पग-पगपर अश्वमेध यज्ञका फल प्राप्त होता है। जो कार्तिकमासमें परायी स्त्रीके साथ संगम करता है, उसके पापकी शान्ति कैसे होगी, यह बताना असम्भव है। जिसके ललाटमें तुलसीकी मृत्तिकाका तिलक दिखायी देता है, उसकी ओर देखनेमें यमराज भी समर्थ नहीं हैं; फिर उनके भयानक दूतोंकी तो बात ही क्या ? कार्तिकमें भगवान् विष्णुकी प्रसन्नताके लिये धर्मका अनुष्ठान करना चाहिये। मासव्रतक समाप्ति होनेपर उस व्रतकी पूर्णताके लिये श्रेष्ठ ब्राह्मणको दान देना चाहिये। जो कार्तिकमें भगवान् विष्णुके मन्दिरमें चूना आदिका लेप कराता है या तसवीर आदि लिखता है, वह भगवान् विष्णुके समीप आनन्दका अनुभव करता है। जो ब्राह्मण कार्तिकमासमें गभस्तीश्वरके समीप शतरुद्रीका जप करता है, उसके मन्त्रकी सिद्धि होती है। जिन्होंने तीन वर्षोंतक काशीमें रहकर भक्तिपूर्वक सांगोपांग कार्तिकव्रतका अनुष्ठान किया है, उन्हें सम्पत्ति, सन्तति, यश तथा धर्मबुद्धिकी प्राप्तिके द्वारा इस लोकमें ही उस व्रतका प्रत्यक्ष फल दिखायी देता है। कार्तिकमें प्याज, शृंग (सिंघाड़ा), सेज, बेर, राई, नशीली वस्तु, चिउड़ा-इन सबका उपयोग न करे कार्तिकका व्रत करनेवाला मनुष्य देवता, वेद, ब्राह्मण, गुरु, गौ, व्रती, स्त्री, राजा और महात्माओंकी निन्दा न करे। कार्तिकमें केवल नरकचतुर्दशी (दिवालीके एक रोज पहले ) -को शरीरमें तेल लगाना चाहिये। उसके सिवा और किसी दिन व्रती मनुष्य तेल न लगावे। नालिका, मूली, कुम्हड़ा, कैथ इनका भी त्याग करे। रजस्वला, चाण्डाल, म्लेच्छ, पतित, व्रतहीन, ब्राह्मणद्वेषी और वेद-बहिष्कृत लोगोंसे व्रती मनुष्य बातचीत न करे।