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वैशाख,कार्तिक और माघ मास माहातम्य (मास माहातम्य)

Kartik,Vaishakh and Magh Mahatamya (Maas Mahatamya)

कथा 32 - Katha 32

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जय-विजयका चरित्र

धर्मदत्तने पूछा- मैंने सुना है कि जय और विजय भी भगवान् विष्णुके द्वारपाल हैं। उन्होंने पूर्वजन्ममें कौन-सा पुण्य किया था, जिससे वे भगवान् के समान रूप धारण करके वैकुण्ठधामके द्वारपाल हुए ?

दोनों पार्षदोंने कहा- ब्रह्मन् ! पूर्वकालमें तृणविन्दुकी कन्या देवहूतिके गर्भसे महर्षि कर्दमकी दृष्टिमात्रसे दो पुत्र उत्पन्न हुए। उनमेंसे बड़ेका नाम जय था और छोटेका विजय। पीछे उसी देवहूतिके गर्भसे योगधर्मके जाननेवाले भगवान् कपिल उत्पन्न हुए। जय और विजय सदा भगवान् विष्णुकी भक्तिमें तत्पर रहते थे। वे नित्य अष्टाक्षर (ॐ नमो नारायणाय) मन्त्रका जप और वैष्णवव्रतोंका पालन करते थे। एक समय राजा मरुत्तने उन दोनोंको अपने यज्ञमें बुलाया। वहाँ जय ब्रह्मा बनाये गये और विजय आचार्य। उन्होंने यज्ञकी सम्पूर्ण विधि पूर्ण की। यज्ञान्तमें अवभृथ स्नानके पश्चात् राजा मरुत्तने उन दोनोंको बहुत धन दिया। धन लेकर दोनों भाई अपने आश्रमपर गये। वहाँ उस धनका विभाग करते समय दोनोंमें परस्पर लाग-डाँट पैदा हो गयी। जयने कहा- 'इस धनको बराबर-बराबर बाँट लिया जाय।' विजयका कहना था- 'नहीं। जिसको जो मिला है, वह उसीके पास रहे।' तब जयने क्रोधमें आकर लोभी विजयको शाप दिया 'तुम ग्रहण करके देते नहीं हो, इसलिये ग्राह हो जाओ।' जयके इस शापको सुनकर विजयने भी शाप दिया- 'तुमने मदसे भ्रान्त होकर शाप दिया है, इसलिये मातंग (हाथी) की योनिमें जाओ।' तत्पश्चात् उन्होंने भगवान्से शापनिवृत्तिके लिये प्रार्थना की। श्रीभगवान्ने कहा—‘तुम मेरे भक्त हो, तुम्हारा वचन कभी असत्य नहीं होगा। तुम दोनों अपने ही दिये हुए इन शापोंको भोगकर फिर मेरे धामको प्राप्त होओगे।' ऐसा कहकर भगवान् विष्णु अन्तर्धान हो गये। तदनन्तर वे दोनों गण्डकी नदीके तटपर ग्राह और गज हो गये। उस योनिमें भी उन्हें पूर्वजन्मका स्मरण बना रहा और वे विष्णुके व्रतमें तत्पर रहे। किसी समय वह गजराज कार्तिकमासमें स्नानके लिये गण्डकी नदीमें गया। उस समय ग्राहने शापके हेतुको स्मरण करते हुए उस गजको पकड़ लिया। ग्राहसे पकड़े जानेपर गजराजने भगवान् रमानाथका स्मरण किया। तब भगवान् विष्णु शंख, चक्र और गदा धारण किये वहाँ प्रकट हो गये। उन्होंने चक्र चलाकर ग्राह और गजराज दोनोंका उद्धार किया और उन्हें अपने ही जैसा रूप देकर वे वैकुण्ठधामको ले गये। तबसे वह स्थान हरिक्षेत्रके नामसे प्रसिद्ध है। वे ही दोनों विश्वविख्यात जय और विजय हैं, जो भगवान् विष्णुके द्वारपाल हुए हैं। हैं

धर्मदत्त ! तुम भी मात्सर्य और दम्भका त्याग करके सदा भगवान् विष्णुके व्रतमें स्थिर रहो, समदर्शी बनो, तुला (कार्तिक), मकर (माघ) और मेष (वैशाख) - के महीनोंमें सदैव प्रातः काल स्नान करो। एकादशीव्रतके पालनमें स्थिर रहो। तुलसीके बगीचेकी रक्षा करते रहो। ऐसा करनेसे तुम भी शरीरका अन्त होनेपर भगवान् विष्णुके परमपदको प्राप्त होओगे। भगवान् विष्णुको सन्तुष्ट करनेवाले तुम्हारे इस व्रतसे बढ़कर न यज्ञ हैं, न दान हैं और न तीर्थ ही हैं। विप्रवर! तुम धन्य हो, जिसके व्रतके आधे भागका फल पाकर यह स्त्री हमारे द्वारा वैकुण्ठधाममें ले जायी जा रही है।

नारदजी कहते हैं- राजन् ! धर्मदत्तको इस प्रकार उपदेश करके वे दोनों विमानचारी पार्षद उस कलहाके साथ वैकुण्ठधामको चले गये। धर्मदत्त जीवनभर भगवान्के व्रतमें स्थिर रहे और देहावसानके बाद उन्होंने अपनी दोनों स्त्रियोंके साथ वैकुण्ठधाम प्राप्त कर लिया। इस प्राचीन इतिहासको जो सुनता और सुनाता है, वह जगद्गुरु भगवान्‌की कृपासे उनका सान्निध्य प्राप्त करानेवाली उत्तम गति पाता है।

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वैशाख,कार्तिक और माघ मास माहातम्य
Index


  1. [कथा 1]भगवद्भक्तिके लक्षण तथा वैशाख स्नानकी महिमा
  2. [कथा 2]वैशाख माहात्म्य
  3. [कथा 3]वैशाख स्नानसे पाँच प्रेतोंका उद्धार तथा 'पाप-प्रशमन' नामक स्तोत्रका वर्णन
  4. [कथा 4]वैशाखमासमें स्नान, तर्पण और श्रीमाधव पूजनकी विधि एवं महिमा
  5. [कथा 5]यम- ब्राह्मण-संवाद - नरक तथा स्वर्गमें ले जानेवाले कर्मोंका वर्णन
  6. [कथा 6]तुलसीदल और अश्वत्थकी महिमा तथा वैशाख माहात्म्यके सम्बन्धमें तीन प्रेतोंके उद्धारकी कथा
  7. [कथा 7]वैशाख माहात्म्यके प्रसंगमें राजा महीरथकी कथा और यम- ब्राह्मण-संवादका उपसंहार
  8. [कथा 8]वैशाखमासकी श्रेष्ठता; उसमें जल, व्यजन, छत्र, पादुका और अन्न आदि दानोंकी महिमा
  9. [कथा 9]वैशाखमासमें विविध वस्तुओंके दानका महत्त्व तथा वैशाखस्नानके नियम
  10. [कथा 10]वैशाखमासमें छत्रदानसे हेमकान्तका उद्धार
  11. [कथा 11]महर्षि वसिष्ठके उपदेशसे राजा कीर्तिमान्‌का अपने राज्यमें वैशाखमासके धर्मका पालन कराना और यमराजका ब्रह्माजीसे राजाके लिये शिकायत करना
  12. [कथा 12]ब्रह्माजीका यमराजको समझाना और भगवान् विष्णुका उन्हें वैशाखमासमें भाग दिलाना
  13. [कथा 13]भगवत्कथाके श्रवण और कीर्तनका महत्त्व तथा वैशाखमासके धर्मोके अनुष्ठानसे राजा पुरुयशाका संकटसे उद्धार
  14. [कथा 14]राजा पुरुयशाको भगवान्‌का दर्शन, उनके द्वारा भगवत्स्तुति और भगवान्‌के वरदानसे राजाकी सायुज्य मुक्ति
  15. [कथा 15]शंख-व्याध-संवाद, व्याधके पूर्वजन्मका वृत्तान्त
  16. [कथा 16]भगवान् विष्णुके स्वरूपका विवेचन, प्राणकी श्रेष्ठता, जीवोंके
  17. [कथा 17]वैशाखमासके माहात्म्य-श्रवणसे एक सर्पका उद्धार और वैशाख धर्मके पालन तथा रामनाम-जपसे व्याधका वाल्मीकि होना
  18. [कथा 18]धर्मवर्णकी कथा, कलिकी अवस्थाका वर्णन, धर्मवर्ण और पितरोंका संवाद एवं वैशाखकी अमावास्याकी श्रेष्ठता
  19. [कथा 19]वैशाखकी अक्षय तृतीया और द्वादशीकी महत्ता, द्वादशीके पुण्यदानसे एक कुतियाका उद्धार
  20. [कथा 20]वैशाखमासकी अन्तिम तीन तिथियोंकी महत्ता तथा ग्रन्थका उपसंहार
  21. [कथा 21]कार्तिकमासकी श्रेष्ठता तथा उसमें करनेयोग्य स्नान, दान, भगवत्पूजन आदि धर्माका महत्त्व
  22. [कथा 22]विभिन्न देवताओंके संतोषके लिये कार्तिकस्नानकी विधि तथा स्नानके लिये श्रेष्ठ तीर्थोंका वर्णन
  23. [कथा 23]कार्तिकव्रत करनेवाले मनुष्यके लिये पालनीय नियम
  24. [कथा 24]कार्तिकव्रतसे एक पतित ब्राह्मणीका उद्धार तथा दीपदान एवं आकाशदीपकी महिमा
  25. [कथा 25]कार्तिकमें तुलसी-वृक्षके आरोपण और पूजन आदिकी महिमा
  26. [कथा 26]त्रयोदशीसे लेकर दीपावलीतकके उत्सवकृत्यका वर्णन
  27. [कथा 27]कार्तिक शुक्ला प्रतिपदा और यमद्वितीयाके कृत्य तथा बहिनके घरमें भोजनका महत्त्व
  28. [कथा 28]आँवलेके वृक्षकी उत्पत्ति और उसका माहात्म्य सूतजी कहते हैं-कार्तिकके शुक्लपक्षकी चतुर्दशीको आँवलेका
  29. [कथा 29]गुणवतीका कार्तिकव्रतके पुण्यसे सत्यभामाके रूपमें अवतार तथा भगवान्‌के द्वारा शंखासुरका वध और वेदोंका उद्धार
  30. [कथा 30]कार्तिकव्रतके पुण्यदानसे एक राक्षसीका उद्धार
  31. [कथा 31]भक्तिके प्रभावसे विष्णुदास और राजा चोलका भगवान्‌के पार्षद होना
  32. [कथा 32]जय-विजयका चरित्र
  33. [कथा 33]सांसर्गिक पुण्यसे धनेश्वरका उद्धार, दूसरोंके पुण्य और पापकी आंशिक प्राप्तिके कारण तथा मासोपवास- व्रतकी संक्षिप्त विधि
  34. [कथा 34]तुलसीविवाह और भीष्मपंचक-व्रतकी विधि एवं महिमा
  35. [कथा 35]एकादशीको भगवान्‌के जगानेकी विधि, कार्तिकव्रतका उद्यापन और अन्तिम तीन तिथियोंकी महिमाके साथ ग्रन्थका उपसंहार
  36. [कथा 36]कार्तिक-व्रतका माहात्म्य – गुणवतीको कार्तिक व्रतके पुण्यसे भगवान्‌की प्राप्ति
  37. [कथा 37]कार्तिककी श्रेष्ठताके प्रसंगमें शंखासुरके वध, वेदोंके उद्धार तथा 'तीर्थराज' के उत्कर्षकी कथा
  38. [कथा 38]कार्तिकमासमें स्नान और पूजनकी विधि
  39. [कथा 39]कार्तिक- व्रतके नियम और उद्यापनकी विधि
  40. [कथा 40]कार्तिक-व्रतके पुण्य-दानसे एक राक्षसीका उद्धार
  41. [कथा 41]कार्तिक माहात्म्यके प्रसंगमें राजा चोल और विष्णुदासकी कथा
  42. [कथा 42]पुण्यात्माओंके संसर्गसे पुण्यकी प्राप्तिके प्रसंगमें धनेश्वर ब्राह्मणकी कथा
  43. [कथा 43]अशक्तावस्थामें कार्तिक-व्रतके निर्वाहका उपाय
  44. [कथा 44]कार्तिकमासका माहात्म्य और उसमें पालन करनेयोग्य नियम
  45. [कथा 45]शूकरक्षेत्रका माहात्म्य तथा मासोपवास-व्रतकी विधि का वर्णन
  46. [कथा 46]शालग्रामशिलाके पूजनका माहात्म्य
  47. [कथा 47]भगवत्पूजन, दीपदान, यमतर्पण, दीपावली गोवर्धनपूजा और यमद्वितीयाके दिन करनेयोग्य कृत्योंका वर्णन
  48. [कथा 48]प्रबोधिनी एकादशी और उसके जागरणका महत्त्व तथा भीष्मपंचक व्रतकी विधि एवं महिमा
  49. [कथा 49]माघ माहात्म्य
  50. [कथा 50]मृगशृंग मुनिका भगवान्से वरदान प्राप्त करके अपने घर लौटना
  51. [कथा 51]मृगशृंग मुनिके द्वारा माघके पुण्यसे एक हाथीका उद्धार तथा मरी हुई कन्याओंका जीवित होना
  52. [कथा 52]यमलोकसे लौटी हुई कन्याओंके द्वारा वहाँकी अनुभूत बातोंका वर्णन
  53. [कथा 53]महात्मा पुष्करके द्वारा नरकमें पड़े हुए जीवोंका उद्धार
  54. [कथा 54]माघस्नानके लिये मुख्य-मुख्य तीर्थ और नियम
  55. [कथा 55]माघमासके स्नानसे सुव्रतको दिव्यलोककी प्राप्ति