ब्रह्माजी कहते हैं— कार्तिक कृष्णा त्रयोदशीको प्रातःकाल दन्तधावन करके स्नान करे और त्रिरात्रिव्रतका नियम लेकर भगवान् गोविन्दके भजनमें तत्पर रहे तथा इस व्रतके अन्तमें गोवर्द्धनोत्सव मनावे। त्रयोदशी तीन मुहूर्तसे अधिक हो तो वह इस व्रतमें ग्राह्य है; परतिथिसे वेध होना दोषकी बात नहीं है। कार्तिकके कृष्णपक्ष में त्रयोदशीके प्रदोषकालमें यमराजके लिये दीप और नैवेद्य समर्पित करे तो अपमृत्यु (अकालमृत्यु या दुर्मरण) - का नाश होता है।
एक दिन यमदूतोंने यमराजसे कहा-
प्रभो ! ऐसे महोत्सवके अवसरपर जिस प्रकार जीव अपने जीवनसे वियुक्त न हो, वह उपाय हमारे आगे वर्णन कीजिये । यमराजने कहा- कार्तिक कृष्णा त्रयोदशीको प्रतिवर्ष प्रदोषकाल में जो अपने घरके दरवाजेपर निम्नांकित मन्त्रसे उत्तम दीप देता है, वह अपमृत्युको प्राप्त होनेपर भी यहाँ ले आने योग्य नहीं है। वह मन्त्र इस प्रकार है
मृत्युना पाशदण्डाभ्यां कालेन च मया सह । त्रयोदश्यां दीपदानात् सूर्यजः प्रीयतामिति ॥
‘त्रयोदशीको दीपदान करनेसे मृत्यु, पाश, दण्ड, काल और लक्ष्मीके साथ सूर्यनन्दन यम प्रसन्न हों ।'
इस मन्त्रसे जो अपने द्वारपर उत्सवमें दीपदान करता है, उसे अपमृत्युका भय नहीं होता। दीपावलीके पहलेकी चतुर्दशीको तेलमात्रमें लक्ष्मी और जलमात्रमें गंगा निवास करती हैं। जो उस दिन प्रातः काल स्नान करता है, वह यमलोक नहीं देखता। नरकभयका नाश करनेके लिये स्नानके बीचमें अपामार्ग (चिच्चिड़ा) को मस्तकपर घुमावे। तीन बार मन्त्र पढ़कर तीन ही बार घुमाना चाहिये। मन्त्र इस प्रकार है
सीतालोष्ठसमायुक्त सकण्टकदलान्वित।
हर पापमपामार्ग भ्राम्यमाणः पुनः पुनः ॥
'जोते हुए खेतके ढेलेसे युक्त और कण्टकविशिष्ट पत्तोंसे सुशोभित अपामार्ग ! तुम बार-बार घुमाये जानेपर मेरे पापोंको हर लो। '
ऐसा कहकर अपने सिरपर अपामार्ग घुमावे | स्नान करके भीगे वस्त्रसे मृत्युके पुत्ररूप दो कुत्तोंको दीपदान दे। उस समय यह मन्त्र पढ़े शुनकौ श्यामशवलौ भ्रातरौ यमसेवकौ । तुष्टौ स्यातां चतुर्दश्यां दीपदानेन मृत्युजौ ॥'काले और चितकबरे रंगके दो श्वान जो मृत्युके पुत्र, यमराजके सेवक तथा परस्पर भाई हैं, चतुर्दशीको दीपदान करनेसे मुझपर प्रसन्न हों।' फिर स्नानागतर्पण करनेके पश्चात् चौदह यमोंका तर्पण करे, जिनके नाम - मन्त्र इस प्रकार हैं यमाय धर्मराजाय मृत्यवे चान्तकाय च । वैवस्वताय कालाय सर्वभूतक्षयाय च ॥ औदुम्बराय दध्नाय नीलाय परमेष्ठिने ।वृकोदराय चित्राय चित्रगुप्ताय ते नमः ॥ ये चौदह नाम-मन्त्र हैं। इनमेंसे प्रत्येकके अन्तमें नमः पद जोड़कर बोले और एक-एक मन्त्रको तीन-तीन बार कहकर तिलमिश्रित जलकी तीन-तीन अंजलियाँ दे । यमराजका तर्पण यज्ञोपवीती होकर अर्थात् यज्ञोपवीतको बायें कन्धेपर रखकर अथवा प्राचीनावीती होकर (जनेऊको दाहिने कन्धेपर करके) भी किया जा सकता है। क्योंकि यमराज देवता और पितर दोनों ही पदोंपर स्थित हैं। अतः उनमें उभयरूपता है। जिसके पिता जीवित हों वह भी यम और भीष्मके लिये तर्पण कर सकता है। कार्तिक कृष्णा चतुर्दशीको यदि अमावास्या भी हो और उसमें स्वाती नक्षत्रका योग हो तो उसी दिन दीपावली होती है। उस दिनसे आरम्भ करके तीन दिनोंतक दीपोत्सव करना चाहिये। क्योंकि एक समय राजा बलिने भगवान्से यह वर माँगा था कि 'मैंने छद्मसे वामनरूप धारण करनेवाले आपको भूमिदान दी है और आपने उसे तीन दिनोंमें तीन पगोंद्वारा नाप लिया है, अतः आजसे लेकर तीन दिनोंतक प्रतिवर्ष पृथ्वीपर मेरा राज्य रहे। उस समय जो मनुष्य पृथ्वीपर दीपदान करें, उनके घरमें आपकी पत्नी लक्ष्मी स्थिरभावसे निवास करें।'
दैत्यराज बलिको भगवान् विष्णुने चतुर्दशीसे लेकर तीन दिनोंतकका राज्य दिया है। इसलिये इन तीन दिनोंमें यहाँ सर्वथा महोत्सव करना चाहिये। चतुर्दशीकी रात्रिमें देवी महारात्रिका प्रादुर्भाव हुआ है, अतः शक्तिपूजापरायण पुरुषोंको चतुर्दशीका उत्सव अवश्य करना चाहिये। भगवान् सूर्यके तुलाराशिमें स्थित होनेपर चतुर्दशी और अमावास्याकी सन्ध्याके समय मनुष्य हाथमें उल्का लेकर पितरोंको मार्ग-प्रदर्शन करावें। कार्तिकमासमें चतुर्दशी आदि तीन तिथियाँ दीपदान आदिके कार्योंमें ग्रहण करनेयोग्य हैं। यदि ये तीन तिथियाँ संगवकालसे पहले ही समाप्त हो जाती हों तो दीपदान आदिके कार्योंमें इन्हें पूर्वतिथिसे युक्त ही ग्रहण करना चाहिये * । तदनन्तर अमावास्याके प्रातःकाल स्नान करके भक्तिपूर्वक देवताओं और पितरोंकी पूजा और उन्हें प्रणाम करें। फिर दही, दूध तथा घी आदि पार्वण श्राद्ध करे। इस दिन बालकों और रोगियोंके सिवा और किसीको दिनमें भोजन नहीं करना चाहिये । प्रदोषके समय कल्याणमयी लक्ष्मीदेवीका पूजन करे। उस दिन लक्ष्मीजीका सुख बढ़ानेके लिये जो उनके लिये कमलके फूलोंकी शय्या बनाता है, उसके घरको छोड़कर भगवती लक्ष्मी कहीं नहीं जातीं। जावित्री, लवंग, इलायची और कपूरके साथ गाय दूधको अच्छी तरह पकाकर उसमें आवश्यकताके अनुसार शक्कर देकर लड्डू बना ले तथा उन्हें महालक्ष्मीजीको अर्पण करे। पूजाके पश्चात् लक्ष्मीजीकी स्तुति इस प्रकार करनी चाहिये- 'दीपककी ज्योतिमें विराजमान महालक्ष्मी ! तुम ज्योतिर्मयी हो। सूर्य, चन्द्रमा, अग्नि, सुवर्ण और तारा आदि सभी ज्योतियोंकी ज्योति हो; तुम्हें नमस्कार है। कार्तिककी दीपावलीके पवित्र दिनको इस भूतलपर और गौओंके गोष्ठमें जो लक्ष्मी शोभा पाती हैं, वे सदा मेरे लिये वरदायिनी हों।'
इस प्रकार स्तुति करनेके पश्चात् प्रदोषकालमें दीपदान करे। अपनी शक्तिके अनुसार देवमन्दिर आदिमें दीपकोंका वृक्ष बनावे। चौराहेपर, श्मशान -भूमिमें, नदीके किनारे, पर्वतपर, घरोंमें, वृक्षोंकी जड़ोंमें, गोशालाओंमें, चबूतरोंपर तथा प्रत्येक गृहमें दीपक जलाकर रखने चाहिये। पहले ब्राह्मणों और भूखे मनुष्योंको भोजन कराकर पीछे स्वयं नूतन वस्त्र और आभूषणसे विभूषित होकर भोजन करना चाहिये। जीवहिंसा, मदिरापान, अगम्यागमन, चोरी और विश्वासघात—ये पाँच नरकके द्वार कहे गये हैं। इनका सदैव त्याग करना चाहिये तदनन्तर आधी रातके समय नगरकी शोभा देखनेके लिये धीरे-धीरे पैदल चले और उस समयका आनन्दोत्सव देखकर अपने घर लौट आवे ।