मिथिलापतिने पूछा- ब्रह्मन् ! इस वैशाखमासमें कौन-कौन सी तिथियाँ पुण्यदायिनी हैं ?
श्रुतदेवजी बोले- सूर्यके मेष राशिपर स्थित होनेपर वैशाखमासमें तीसों तिथियाँ पुण्यदायिनी मानी गयी हैं। एकादशीमें किया हुआ पुण्य कोटिगुना होता है। उसमें स्नान, दान, तपस्या, होम, देवपूजा, पुण्यकर्म एवं कथाका श्रवण किया जाय, तो वह तत्काल मुक्ति देनेवाला है। जो रोग आदिसे ग्रस्त और दरिद्रतासे पीड़ित हो, वह मनुष्य इस पुण्यमयी कथाको सुनकर कृतकृत्य होता है। वैशाखमास मनसे सेवन करने योग्य है; क्योंकि वह समय उत्तम गुणोंसे युक्त है। दरिद्र, धनाढ्य, पंगु, अन्धा, नपुंसक, विधवा, साधारण स्त्री, पुरुष, बालक, युवा, वृद्ध तथा रोगसे पीड़ित मनुष्य ही क्यों न हो, वैशाखमासका धर्म सबके लिये अत्यन्त सुखसाध्य है। परम पुण्यमय वैशाखमासमें जब सूर्य मेष राशिमें स्थित हों, तब पापनाशिनी अमावास्या कोटि गयाके समान फल देनेवाली होती है। राजन्! जब पृथ्वीपर राजर्षि सावर्णिका शासन था, उस समय तीसवें कलियुगके अन्तमें सभी धर्मोंका लोप हो चुका था। उसी समय आनर्त देशमें धर्मवर्ण नामसे विख्यात एक ब्राह्मण थे। मुनिवर धर्मवर्णने उस कलियुगमें ही किसी समय महात्मा मुनियोंके सत्रयागमें सम्मिलित होनेके लिये पुष्कर क्षेत्रकी यात्रा की। वहाँ कुछ व्रतधारी महर्षियोंने कलियुगकी प्रशंसा करते हुए इस प्रकार कहा था— 'सत्ययुगमें भगवान् विष्णुको सन्तुष्ट करनेवाला जो पुण्य एक वर्षमें साध्य है, वही त्रेतामें एक मासमें और द्वापरमें पन्द्रह दिनोंमें साध्य होता है; परंतु कलियुगमें भगवान् विष्णुका स्मरण कर लेनेसे ही उससे दसगुना पुण्य होता है* । कलिमें बहुत थोड़ा पुण्य भी कोटिगुना होता है। जो एक बार भी भगवान्का नाम लेकर दयादान करता है और दुर्भिक्षमें अन्न देता है, वह निश्चय ही ऊर्ध्वलोकमें गमन करता है।'
यह सुनकर देवर्षि नारद हँसते हुए उन्मत्तके समान नृत्य करने लगे। सभासदाने पूछा- 'नारदजी ! यह क्या बात है ?' तब बुद्धिमान् नारदजीने हँसते हुए उन सबको उत्तर दिया- 'आप लोगोंका कथन सत्य है। इसमें सन्देह नहीं कि कलियुगमें स्वल्प कर्मसे भी महान् पुण्यका साधन किया जाता है तथा क्लेशोंका नाश करनेवाले भगवान् केशव स्मरणमात्रसे ही प्रसन्न हो जाते हैं। तथापि मैं आप लोगोंसे यह कहता हूँ कि कलियुगमें ये दो बातें दुर्घट हैं- शिश्नेन्द्रियका निग्रह और जिह्वाको वशमें रखना । ये दोनों कार्य जो सिद्ध कर ले, वही नारायणस्वरूप है। अतः कलियुगमें आपको यहाँ नहीं ठहरना चाहिये।'
नारदजीकी यह बात सुनकर उत्तम व्रतका पालन करनेवाले महर्षि सहसा यज्ञको समाप्त करके सुखपूर्वक चले गये। धर्मवर्णने भी वह बात सुनकर भूलोकको त्याग देनेका विचार किया। उन्होंने ब्रह्मचर्य व्रत धारण करके दण्ड और कमण्डलु हाथमें लिया और जटा-वल्कलधारी होकर वे कलियुगके अनाचारी पुरुषोंको देखने के लिये घर छोड़कर चल दिये। उनके मनमें बड़ा विस्मय हो रहा था। उन्होंने देखा, प्रायः मनुष्य पापाचारमें प्रवृत्त हो बड़े भयंकर एवं दुष्ट हो गये हैं। ब्राह्मण पाखण्डी हो चले हैं। शूद्र संन्यास धारण करते हैं। पत्नी अपने पतिसे द्वेष रखती है। शिष्य गुरुसे वैर करता है। सेवक स्वामीके और पुत्र पिताके घातमें लगा हुआ है। ब्राह्मण शूद्रवत् और गौएँ बकरियोंके समान हो गयी हैं। वेदोंमें गाथाकी ही प्रधानता रह गयी है। शुभ कर्म साधारण लौकिक कृत्योंके ही समान रह गये हैं, इनके प्रति किसीकी महत्त्व बुद्धि नहीं है। भूत, प्रेत और पिशाच आदिकी उपासना चल पड़ी है। सब लोग मैथुनमें आसक्त हैं और उसके लिये अपने प्राण भी खो बैठते हैं। सब लोग झूठी गवाही देते हैं। मनमें सदा छल और कपट भरा रहता है। कलियुगमें सदा लोगोंके मनमें कुछ और, वाणीमें कुछ और तथा क्रियामें कुछ और ही देखा जाता है। सबकी विद्या किसी-न-किसी स्वार्थको लेकर ही होती है और केवल राजभवनमें उसका आदर होता है। संगीत आदि कलात्मक विद्याएँ भी राजाओंको प्रिय हैं। कलिमें अधम मनुष्य पूजे जाते हैं और श्रेष्ठ पुरुषोंकी अवहेलना होती है। कलिमें वेदोंके विद्वान् ब्राह्मण दरिद्र होते हैं। लोगोंमें प्रायः भगवान्की भक्ति नहीं होती। पुण्यक्षेत्रमें पाखण्ड अधिक बढ़ जाता है। शूद्रलोग जटाधारी तपस्वी बनकर धर्मकी व्याख्या करते हैं। सभी मनुष्य अल्पायु, दयाहीन और शठ होते हैं। कलिमें प्रायः सभी धर्मके व्याख्याता बन जाते हैं और दूसरोंसे कुछ लेनेमें ही उत्सव मानते हैं। अपनी पूजा कराना चाहते हैं और व्यर्थ ही दूसरोंकी निन्दा करते हैं। अपने घर आनेपर सभी अपने स्वामीके दोषोंकी चर्चामें तत्पर रहते हैं। कलिमें लोग साधुओंको नहीं जानते। पापियोंको ही बहुत आदर देते हैं। दुराग्रही लोग इतने दुराग्रही होते हैं कि साधुपुरुषोंके एक दोषका भी ढिंढोरा पीटते हैं और पापात्माओंके दोषसमूहों को भी गुण बतलाते हैं। कलिमें गुणहीन मनुष्य दूसरोंके गुण न देखकर उनके दोष ही ग्रहण करते हैं। जैसे पानीमें रहनेवाली जोंक प्राणियोंके रक्त पीती है, जल नहीं पीती, उसी प्रकार जोंकके धर्मसे संयुक्त हो मनुष्य दूसरेका रक्त चूसते हैं। ओषधियाँ शक्तिहीन होती हैं। ऋतुओंमें उलट-फेर हो जाता है। सब राष्ट्रोंमें अकाल पड़ता है। कन्या योग्य समयमें सन्तानोत्पत्ति नहीं करती। लोग नट और नर्तकों की विद्याओंसे विशेष प्रेम करते हैं। जो वेद-वेदान्तकी विद्याओंमें तत्पर और अधिक गुणवान् हैं, उन्हें अज्ञानी मनुष्य सेवककी दृष्टिसे देखते हैं, वे सब-के-सब भ्रष्ट होते हैं। कलिमें प्रायः लोग श्राद्धकर्मका त्याग करते हैं। वैदिक कर्मोंको छोड़ बैठते हैं। प्रायः जिह्वापर भगवान् विष्णुके नाम कभी नहीं आते। लोग श्रृंगार रसमें आनन्दका अनुभव करते हैं और उसीके गीत गाते हैं। कलियुगके मनुष्योंमें न कभी भगवान् विष्णुकी सेवा देखी जाती है, न शास्त्रीय चर्चा होती है, न कहीं यज्ञकी दीक्षा हैं, न विचारका लेश है, न तीर्थयात्रा है और न दान-धर्म ही होते देखे जाते हैं। यह कितने आश्चर्यकी बात है!
उन सबको देखकर धर्मवर्णको बड़ा भय लगा। पापसे कुलकी हानि होती देख, अत्यन्त आश्चर्यसे चकित हो वे दूसरे द्वीपमें चले गये। सब द्वीपों और लोकोंमें विचरते हुए बुद्धिमान् धर्मवर्ण किसी समय कौतूहलवश पितृलोकमें गये। वहाँ उन्होंने कर्मसे कष्ट पाते हुए पितरोंको बड़ी भयंकर दशामें देखा। वे दौड़ते, रोते और गिरते-पड़ते थे। उन्होंने अपने पितरोंको भी नीचे अन्धकूपमें पड़े हुए देखा। उनको देखकर आश्चर्यचकित हो दयालु धर्मवर्णने पूछा- 'आप लोग कौन हैं, किस दुस्तर कर्मके प्रभावसे इस अन्धकूपमें पड़े हैं ?'
पितरोंने कहा- हम श्रीवत्स गोत्रवाले हैं। पृथ्वीपर हमारी कोई सन्तान नहीं रह गयी है, अतः हम श्राद्ध और पिण्डसे वंचित हैं, इसीलिये यहाँ हमें नरकका कष्ट भोगना पड़ता है। सन्तानहीन दुरात्माओंका अन्धकूपमें पतन होता है। हमारे वंश में एक ही महायशस्वी पुरुष है, जो धर्मवर्णके नामसे विख्यात है। किंतु वह विरक्त होकर अकेला घूमता-फिरता है। उसने गृहस्थ धर्मको नहीं स्वीकार किया है। वह एक ही तन्तु हमारे कुलमें अवशिष्ट है। उसकी भी आयु क्षीण हो जानेपर हम लोग घोर अन्धकूपमें गिर पड़ेंगे, जहाँसे फिर निकलना कठिन होगा। इसलिये तुम पृथ्वीपर जाकर धर्मवर्णको समझाओ। हम लोग दयाक पात्र हैं, हमारे वचनोंसे उसको यह बताओ कि 'हमारी वंशरूपा दूर्वाको कालरूपी चूहा प्रतिदिन खा रहा है। क्रमशः सारे वंशका नाश हो गया है, एक तुम्हीं बचे हो। जब तुम भी मर जाओगे तब सन्तान-परम्परा न होनेके कारण तुम्हें भी अन्धकूपमें गिरना पड़ेगा। इसलिये गृहस्थ-धर्मको स्वीकार करके सन्तानकी वृद्धि करो। इससे हमारी और तुम्हारी दोनोंकी ऊर्ध्वगति होगी। यदि एक भी पुत्र वैशाख, माघ अथवा कार्तिकमासमें हमारे उद्देश्य से भगवान् स्नान, श्राद्ध और दान करेगा तो उससे हम लोगोंकी ऊर्ध्वग होगी और नरकसे उद्धार हो जायगा। यदि एक पुत्र भी विष्णुका भक्त हो जाय, एक भी एकादशीका व्रत रहने लगे अथवा यदि एक भी भगवान् विष्णुकी पापनाशक कथा श्रवण करे तो उसकी सौ बीती हुई पीढ़ियोंका तथा सौ भावी पीढ़ियोंका उद्धार होता है। वे पीढ़ियाँ पापसे आवृत होनेपर भी नरकका दर्शन नहीं करतीं। दया और धर्मसे रहित उन बहुत-से पुत्रोंके जन्मसे क्या लाभ, जो कुलमें उत्पन्न होकर सर्वव्यापी भगवान् नारायणकी पूजा नहीं करते।' इस प्रकार प्रिय वचनोंद्वारा धर्मवर्णको समझाकर तुम उसे विरक्तिपूर्ण ब्रह्मचर्य आश्रमसे गृहस्थ आश्रम में प्रवेश करनेकी सलाह दो ।
पितरोंकी यह बात सुनकर धर्मवर्ण अत्यन्त विस्मित हुआ और हाथ जोड़कर बोला-'मैं ही धर्मवर्ण नामसे विख्यात आपके वंशका दुराग्रही बालक हूँ। यज्ञमें महात्मा नारदजीका यह वचन सुनकर कि 'कलियुगमें प्रायः कोई भी रसनेन्द्रिय और शिश्नेन्द्रियको दृढ़तापूर्वक संयममें नहीं रखता' - मैं दुर्जनोंकी संगतिसे भयभीत हो अबतक दूसरे-दूसरे द्वीपोंमें घूमता रहा। इस कलियुगके तीन चरण बीत गये, अन्तिम चरणमें भी साढे तीन भाग व्यतीत हो चुके हैं। मेरा जन्म व्यर्थ बीता है; क्योंकि जिस कुलमें मैंने जन्म लिया, उसमें माता-पिताके ऋणको भी मैंने नहीं चुकाया । पृथ्वीके भारभूत उस शत्रुतुल्य पुत्रके उत्पन्न होनेसे क्या लाभ जो पैदा होकर भगवान् विष्णु और देवताओं तथा पितरोंकी पूजा न करे। मैं आप लोगोंकी आज्ञाका पालन करूँगा। बताइये, पृथ्वीपर किस प्रकार मुझे कलियुगसे और संसारसे भी बाधा नहीं प्राप्त होगी ?'
धर्मवर्णकी बात सुनकर पितरोंके मनको कुछ आश्वासन मिला, वे बोले – बेटा! तुम गृहस्थ आश्रम स्वीकार करके सन्तानोत्पत्तिके द्वारा हमारा उद्धार करो। जो भगवान् विष्णुकी कथामें अनुरक्त होते, निरन्तर श्रीहरिका स्मरण करते और सदाचारके पालनमें तत्पर रहते हैं, उन्हें कलियुग बाधा नहीं पहुँचाता। मानद ! जिसके घरमें शालग्राम शिला अथवा महाभारतकी पुस्तक हो, उसे भी कलियुग बाधा नहीं दे सकता। जो वैशाखमासके धर्मोंका पालन करता, माघ स्नानमें तत्पर होता और कार्तिकमें दीप देता हैं, उसे भी कलिकी बाधा नहीं प्राप्त होती। जो प्रतिदिन महात्मा भगवान् विष्णुकी पापनाशक एवं मोक्षदायिनी दिव्य कथा सुनता है, जिसके घरमें बलिवैश्वदेव होता है, शुभकारिणी तुलसी स्थित होती हैं तथा जिसके आँगनमें उत्तम गौ रहती हैं, उसे भी कलियुग बाधा नहीं देता। अतः इस पापात्मक युगमें भी तुम्हें कोई भय नहीं है। बेटा ! शीघ्र पृथ्वीपर जाओ। इस समय वैशाखमास चल रहा है, यह सबका उपकार करनेवाला मास है। सूर्यके मेष राशिमें स्थित होनेपर तीसों तिथियाँ पुण्यदायिनी मानी गयी हैं। एक-एक तिथिमें किया हुआ पुण्य कोटि-कोटि गुना अधिक होता है। उनमें भी जो वैशाखकी अमावास्या तिथि है, वह मनुष्योंको मोक्ष देनेवाली हैं, देवताओं और पितरोंको वह बहुत प्रिय है, शीघ्र ही मोक्षकी प्राप्ति करानेवाली है। जो उस दिन पितरोंके उद्देश्यसे श्राद्ध करते और जलसे भरा हुआ घड़ा एवं पिण्ड देते हैं, उन्हें अक्षय फलकी प्राप्ति होती है। अतः महामते ! तुम शीघ्र जाओ और जब अमावास्या हो, तब कुम्भसहित श्राद्ध एवं पिण्डदान करो। सबका उपकार करनेके लिये गृहस्थ-धर्मका आश्रय लो। धर्म, अर्थ और कामसे सन्तुष्ट हो, उत्तम सन्तान पाकर फिर मुनिवृत्तिसे रहते हुए सुखपूर्वक द्वीप द्वीपान्तरोंमें विचरण करो।
पितरोंके इस प्रकार आदेश देनेपर धर्मवर्ण मुनि शीघ्रतापूर्वक भूलोकमें गये। वहाँ मेष राशिमें सूर्यके स्थित रहते हुए वैशाखमास में प्रात:काल स्नान करके देवताओं, ऋषियों तथा पितरोंका तर्पण किया; फिर कुम्भदानसहित पापविनाशक श्राद्ध करके उसके द्वारा पितरोंको पुनरावृत्तिरहित मुक्ति प्रदान की। तत्पश्चात् उन्होंने स्वयं विवाह करके उत्तम सन्तानको जन्म दिया और लोकमें उस पापनाशिनी अमावास्या तिथिको प्रसिद्ध किया। तदनन्तर वे भक्तिपूर्वक भगवान्की आराधना करनेके लिये हर्षके साथ गन्धमादन पर्वतपर चले गये। इसलिये वैशाखमासकी यह अमावास्या तिथि परम पवित्र मानी गयी है।