मिथिलापतिने पूछा- ब्रह्मन् ! जब वैशाखमासके धर्म अतिशय सुलभ, पुण्यराशि प्रदान करनेवाले, भगवान् विष्णुके लिये प्रीतिकारक, चारों पुरुषार्थोंकी तत्काल सिद्धि करनेवाले, सनातन और वेदोक्त हैं, तब संसारमें उनकी प्रसिद्धि कैसे नहीं हुई?
श्रुतदेवजीने कहा- राजन्! इस पृथ्वीपर लौकिक कामना रखनेवाले ही मनुष्य अधिक हैं। उनमेंसे कुछ राजस और कुछ तामस हैं। वे लोग इस संसारके भोगों तथा पुत्र-पौत्रादि सम्पदाओंकी ही अभिलाषा रखते हैं। कहीं किसी प्रकार कभी बड़ी कठिनाई से कोई एक मनुष्य ऐसा मिलता है, जो स्वर्गलोकके लिये प्रयत्न करता है और इसीलिये वह यज्ञ आदि पुण्यकर्मोंका अनुष्ठान बड़े प्रयत्नसे करता है; परंतु मोक्षकी उपासना प्राय: कोई नहीं करता। तुच्छ आशाएँ लेकर बहुत-से कर्मोंका आयोजन करनेवाले लोग प्रायः काम्य-कर्मोंके ही उपासक हैं। यही कारण है कि संसारमें राजस और तामस धर्म अधिक विख्यात हो गये, परंतु सात्त्विक धर्मोकी प्रसिद्धि नहीं हुई। ये सात्त्विक धर्म भगवान् विष्णुको प्रसन्न करनेवाले हैं, निष्कामभावसे किये जाते हैं और इहलोक तथा परलोकमें सुख प्रदान करते हैं। देवमायासे मोहित होनेके कारण मूढ़ मनुष्य इन धर्मोंको जानते ही नहीं हैं।
पूर्वकालकी बात है, काशीपुरीमें कीर्तिमान् नामसे विख्यात एक चक्रवर्ती राजा थे। वे इक्ष्वाकुवंशके भूषण तथा महाराज नृगके पुत्र थे। संसारमें उनका बड़ा यश था। वे अपनी इन्द्रियोंपर और क्रोधपर विजय पा चुके थे। ब्राह्मणोंके प्रति उनके मनमें बड़ी भक्ति थी। राजाओंमें उनका स्थान बहुत ऊँचा था। एक दिन वे मृगयामें आसक्त होकर महर्षि वसिष्ठके आश्रमपर आये। वैशाखकी चिलचिलाती हुई धूपमें यात्रा करते हुए राजाने मार्गमें देखा, महात्मा वसिष्ठके शिष्य जगह-जगह अनेक प्रकारके कार्यों में विशेष तत्परताके साथ संलग्न थे। वे कहीं पौंसला बनाते थे और कहीं छायामण्डप। किनारेपर झरनोंके जलको रोककर स्वच्छ बावली बनाते थे। कहीं वृक्षोंके नीचे बैठे हुए लोगोंको वे पंखा डुलाकर हवा करते थे, कहीं ऊख देते, कहीं सुगन्धित पदार्थ भेंट करते और कहीं फल देते थे। दोपहरीमें लोगोंको छाता देते और सन्ध्याके समय शर्बत कोई शिष्य घनी छायावाले वनमें झाड़-बुहारकर साफ किये हुए आश्रमके प्रांगणोंमें हितकारक बालुका बिछाते थे और कुछ लोग वृक्षोंकी शाखामें झूला लटकाते थे।
उन्हें देखकर राजाने पूछा- 'आपलोग कौन हैं ?' उन्होंने उत्तर दिया- 'हम लोग महर्षि वसिष्ठके शिष्य हैं।' राजाने पूछा 'यह सब क्या हो रहा है?' वे बोले-'ये वैशाखमासमें कर्तव्यरूपसे बताये गये धर्म हैं, जो धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष-चारों पुरुषार्थोंके साधक हैं। हम लोग गुरुदेव वसिष्ठकी आज्ञासे इन धर्मोंका पालन करते हैं।' राजाने पुनः पूछा- 'इनके अनुष्ठानसे मनुष्योंको कौन सा फल मिलता है ? किस देवताकी प्रसन्नता होती है ?' उन्होंने उत्तर दिया- 'हमें इस समय यह बतानेके लिये अवकाश नहीं है, आप गुरुजीसे ही यथोचित प्रश्न कीजिये वे महायशस्वी महर्षि इन धर्मोंको यथार्थरूपसे जानते हैं।'
शिष्योंसे ऐसा उत्तर पाकर राजा शीघ्र ही महर्षि वसिष्ठके पवित्र आश्रमपर, जो विद्या और योगशक्तिसे सम्पन्न था, गये। राजाको आते देख महर्षि वसिष्ठ मन-ही-मन बड़े प्रसन्न हुए। उन्होंने सेवकोंसहित महात्मा राजाका विधिपूर्वक आतिथ्य सत्कार किया। जब वे आरामसे बैठ गये, तब गुरु वसिष्ठसे प्रसन्नतापूर्वक बोले—'भगवन्! मैंने मार्गमें आपके शिष्योंद्वारा परम आश्चर्यमय शुभ कर्मोंका अनुष्ठान होते देखा है; किंतु उसके सम्बन्धमें जब प्रश्न किया, तब उन्होंने दूसरी कोई बात न बताकर आपके पास जानेकी आज्ञा दी। उनकी आज्ञाके अनुसार मैं इस समय आपके समीप आया हूँ। मेरे मनमें उन धर्मोंको सुननेकी बड़ी इच्छा है। अतः आप मुझसे उनका वर्णन करें।'
तब महायशस्वी वसिष्ठजीने प्रसन्नतापूर्वक कहा- राजन् ! तुम्हारी बुद्धिको उत्तम शिक्षा मिली है। अतः उसने यह उत्तम निश्चय किया । भगवान् विष्णुकी कथाके श्रवण और भगवद्धमोंके अनुष्ठानमें जो तुम्हारी बुद्धिकी आत्यन्तिक प्रवृत्ति हुई है, यह तुम्हारे किसी पुण्यका ही फल है। जिसने वैशाखमासमें बत हुए महाधर्मोके द्वारा भगवान् श्रीहरिकी आराधना की है, उसके उन धर्मोसे भगवान् बहुत सन्तुष्ट होते और उसे मनोवांछित वस्तु प्रदान करते हैं। सम्पूर्ण जगत्के स्वामी भगवान् लक्ष्मीपति समस्त पापराशिका विनाश करनेवाले हैं। वे सूक्ष्म धर्मोंसे प्रसन्न होते हैं, केवल परिश्रम और धनसे नहीं। भगवान् विष्णु भक्तिसे पूजित होनेपर अभीष्ट वस्तु प्रदान करते हैं; इसलिये सदा भगवान् विष्णुकी भक्ति करनी चाहिये। जगदीश्वर श्रीहरि जलसे भी पूजा करनेपर अशेष क्लेशका नाश करते और शीघ्र प्रसन्न होते हैं। वैशाखमासमें बताये हुए ये धर्म थोड़े-से परिश्रमद्वारा साध्य होनेपर भी भगवान् विष्णुके लिये प्रीतिकारक एवं शुभ होनेके कारण अधिक व्ययसे सिद्ध होनेवाले बड़े-बड़े यज्ञादि कर्मोंका भी तिरस्कार करनेवाले हैं। अतः भूपाल ! तुम भी वैशाखमासमें बताये हुए पालन करो और तुम्हारे राज्यमें निवास करनेवाले अन्य सब लोगों से भी उन कल्याणकारी धर्मोंका पालन कराओ। धर्मोंका
इस प्रकारसे वैशाख-धर्मके पालनकी आवश्यकताको शास्त्रों और युक्तियोंसे भलीभाँति सिद्ध करके वसिष्ठजीने वैशाखमासके सब धर्मोंका राजाके समक्ष वर्णन किया। उन सब धर्मोको सुनकर राजाने गुरुका भक्तिभावसे पूजन किया और घर आकर वे सब धर्मोका विधिपूर्वक पालन करने लगे। देवाधिदेव भगवान् विष्णुमें भक्ति रखते हुए राजा कीर्तिमान् देवेश्वर पद्मनाभके अतिरिक्त और किसी देवताको नहीं देखते थे। उन्होंने हाथीकी पीठपर नगाड़ा रखकर सिपाहियोंसे अपने राज्यभरमें डंकेकी चोट यह घोषणा करा दी कि 'मेरे राज्यमें जो आठ वर्षसे अधिककी आयुवाला मनुष्य है, उसकी आयु जबतक अस्सी वर्षकी न हो जाय, तबतक मेषराशिमें सूर्यके स्थित होनेपर यदि वह प्रातः काल स्नान नहीं करेगा तो मेरे द्वारा दण्डनीय, वध्य तथा राज्यसे निकाल देने योग्य समझा जायगा यह मेरा निश्चित आदेश है। पिता, पुत्र, पत्नी अथवा सुहृद् -जो कोई भी वैशाख - धर्मका पालन नहीं करेगा, वह चोरकी भाँति दण्डका पात्र समझा जायगा। प्रातः काल शुभ जलमें स्नान करके श्रेष्ठ ब्राह्मणोंको दान करना चाहिये। तुम सब लोग अपनी शक्तिके अनुसार पौंसला और दान आदि धर्मोका आचरण करो।'
राजा कीर्तिमान्ने प्रत्येक ग्राममें धर्मका उपदेश करनेवाले एक-एक ब्राह्मणको बसाया। पाँच-पाँच गाँवोंपर एक-एक ऐसे अधिकारीकी नियुक्ति की, जो धर्मका त्याग करनेवाले लोगोंको दण्ड दे सके। उस अधिकारीकी सेवामें दस-दस घुड़सवार रहते थे। इस प्रकार चक्रवर्ती नरेशके शासनसे सर्वत्र और सब देशों में यह धर्मका पौधा प्रारम्भ हुआ और आगे चलकर खूब बढ़े हुए वृक्षके रूपमें परिणत हो गया। उस राजाके राज्यमें जो लोग मर जाते थे, वे भगवान् विष्णुके धाममें जाते थे । वहाँके मनुष्योंको विष्णुलोककी प्राप्ति निश्चित थी। एक बार भी वैशाख स्नान कर लेनेसे मनुष्य यमराजके पास नहीं जाता। अपने धर्मानुकूल कर्ममें स्थित हुए सब लोगोंके विष्णुलोकमें चले जानेसे यमपुरीके सब नरक खाली हो गये। वहाँ एक भी पापी प्राणी नहीं रह गया। वैशाखमासके प्रभावसे यमपुरीके मार्गकी यात्रा ही बंद हो गयी। सब मनुष्य दिव्य आकृति धारण करके भगवान् के धाममें जाने लगे। देवताओंके जो लोक हैं, वे सब भी शून्य हो गये। स्वर्ग और नरक दोनोंके शून्य हो जानेपर एक दिन नारदजीने धर्मराजके पास जाकर कहा-'धर्मराज! आपके इस नरकमें अब पहले जैसा कोलाहल नहीं सुनायी पड़ता, पहलेकी भाँति पाप कर्मोंका लेखा भी नहीं लिखा जा रहा है। चित्रगुप्तजी तो ऐसे मौनभावसे बैठे हुए हैं, जैसे कोई मुनि हों। महाराज ! इसका कारण तो बताइये ?"
महात्मा नारदके ऐसा कहनेपर राजा यमने कुछ दीनताके स्वरमें कहा – नारद! इस समय पृथ्वीपर जो यह राजा राज्य करता है, वह पुराणपुरुषोत्तम भगवान् विष्णुका बड़ा भक्त है। उसके भयसे कोई भी मनुष्य कभी वैशाखमासका उल्लंघन नहीं करता। उस पुण्यकर्मके प्रभावसे सभी भगवान् विष्णुके परम धाममें चले जाते हैं। मुनिश्रेष्ठ! उस राजाने इस समय मेरे लोकका मार्ग लुप्त-सा कर रखा है। स्वर्ग और नरक दोनोंको शून्य बना दिया है। अतः ब्रह्माजीके समीप जाकर यह सब समाचार उनसे निवेदन करके तभी मैं स्वस्थ होऊँगा। ऐसा निश्चय करके यमराज ब्रह्माजीके लोकमें गये और वहाँ बैठे हुए उन ब्रह्माजीका दर्शन किया, जिनका आश्रय ध्रुव है, जो इस जगत्के बीज तथा सब लोकोंके पितामह हैं और समस्त लोकपाल, दिक्पाल तथा देवता जिनकी उपासना करते हैं।
ब्रह्माजीने यमराजको देखा और यमराज ब्रह्माजीके आगे पृथ्वीपर गिर पड़े। फिर यमराजने कहा- 'कमलासन! काममें लगाया हुआ जो पुरुष स्वामीकी आज्ञाका ठीक-ठीक पालन नहीं करता और उसका धन लेकर भोगता है, वह काठका कीड़ा होता है। जो बुद्धिमान् मनुष्य लोभवश स्वामीके धनका उपभोग करता है, वह तीन सौ कल्पोंतक तिर्यग् योनिरूप नरकमें जाता है। जो कार्यमें नियुक्त हुआ पुरुष कार्य करनेमें समर्थ होकर भी अपने घरमें ही बैठा रहता है, वह बिलाव होता है। देव! मैं आपकी आज्ञासे धर्मपूर्वक प्रजाका शासन करता आ रहा हूँ। मैं अबतक मुनियों और धर्मशास्त्रोंके कथनानुसार पुण्यात्माको पुण्यके फलसे और पापात्माको पापके फलसे संयुक्त किया करता था, परंतु अब आपकी आज्ञाका पालन करनेमें असमर्थ हो गया हूँ। कीर्तिमानके राज्यमें सब लोग वैशाख मासोक्त पुण्यकर्मोंका अनुष्ठान करके पितरों और पितामहोंके साथ वैकुण्ठधाममें चले जाते हैं। उनके मरे हुए पितर और मातामह आदि भी विष्णुलोकमें चले जाते हैं। इतना ही नहीं, पत्नीके पिता- श्वशुर आदि भी मेरे लेखको मिटाकर विष्णुलोक में चले जाते हैं। देव! बड़े-बड़े यज्ञोंद्वारा भी मनुष्य वैसी गति नहीं पाता है, जैसी वैशाखमाससे मिल रही है। सम्पूर्ण तीर्थोंसे, दान आदिसे, तपस्याओंसे, व्रतोंसे अथवा सम्पूर्ण धर्मोंसे युक्त मनुष्य भी उस गतिको नहीं पाता, जो वैशाख-धर्ममें तत्पर हुए मनुष्यको प्राप्त हो रही है। वैशाखमें प्रात:काल स्नान • करके देवपूजन, मास माहात्म्यकी कथाका श्रवण तथा भगवान् विष्णुको प्रिय लगनेवाले तदनुकूल धर्मोंका पालन करनेवाला मनुष्य एकमात्र विष्णुलोकका स्वामी होता है और जगत्पति भगवान् विष्णुके लोककी तो मेरी समझमें कोई सीमा ही नहीं है; क्योंकि सब ओरसे कोटि-कोटि प्राणियोंका समुदाय वहाँ पहुँच रहा है तो भी वह भरता नहीं है। इस संसारमें पवित्र और अपवित्र सभी लोग राजाकी आज्ञासे वैशाखमासके धर्मका पालन करके विष्णुलोकको जा रहे हैं। लोकनाथ ! उसकी प्रेरणासे संस्कारहीन मनुष्य भी वैशाख स्नानमात्रसे वैकुण्ठधाममें चले जाते हैं। वह केवल भगवान् विष्णुके चरणोंकी शरण लेनेवाला है। जान पड़ता है, वह समस्त संसारको विष्णुलोक में पहुँचा देगा। जो पुत्र धर्म, अर्थ, काम और मोक्षके प्रतिकूल चलता हो, वह पृथ्वीपर माताके पेटसे पैदा हुआ रोग है। वह अधम पुरुष अपनी माताका घात करनेवाला कहा जाता है; किंतु राजा कीर्तिमान्की माता और उसकी पत्नीका पुण्य संसारमें विख्यात है। उसकी माता एकमात्र वीरजननी है और वह राजा निश्चय ही संसारमें बहुत बड़ा वीर है। जिस प्रकार कीर्तिमान् मेरी लिपिको मिटानेमें उद्यत हुआ है, ऐसा उद्योग पुराणोंमें और किसीका नहीं सुना गया है। भगवान् विष्णुकी भक्तिमें तत्पर हुए राजा कीर्तिमान्के सिवा दूसरे ऐसे किसीको मैं नहीं जानता, जो डंका बजाकर घोषणा करते हुए लोगोंको ऐसी प्रेरणा देता हो और मेरे लोकके मार्गको विलुप्त करनेकी चेष्टा करता रहा हो।'