श्रुतदेव कहते हैं- परमात्मा भगवान् नारायण चार भुजाओंसे सुशोभित थे। उन्होंने हाथोंमें शंख, चक्र, गदा और पद्म धारण कर रखे थे। वे पीताम्बर धारण करके वनमालासे विभूषित थे। भगवती लक्ष्मी तथा एक पार्षदके साथ गरुड़की पीठपर विराजित थे। उनका दुःसह तेज देखकर राजाके नेत्र सहसा मुँद गये। उनके सब अंगोंमें रोमांच हो आया और नेत्रोंसे अश्रुधारा प्रवाहित होने लगी। भगवद्दर्शनके आनन्दमें उनका हृदय सर्वथा डूब गया। उन्होंने तत्काल आगे बढ़कर भगवान्को साष्टांग प्रणाम किया; फिर प्रेमविह्वल नेत्रोंसे विश्वात्मदेव जगदीश्वर श्रीहरिको बहुत देरतक निहारकर उनके चरण धोये और उस जलको अपने मस्तकपर धारण किया। उन्हीं चरणोंकी धोवनरूपा श्रीगंगाजी ब्रह्माजीसहित तीनों लोकोंको पवित्र करती हैं।
तत्पश्चात् राजाने महान् वैभवसे, बहुमूल्य वस्त्र आभूषण और चन्दनसे, हार, धूप, दीप तथा अमृतके समान नैवेद्यके निवेदन आदिसे एवं अपने तन, मन, धन और आत्माका समर्पण करके अद्वितीय पुराणपुरुष भगवान् विष्णुका पूजन किया। पूजाके बाद इस प्रकार स्तुति की- 'जो निर्गुण, निरंजन एवं प्रजापतियोंके भी अधीश्वर हैं, ब्रह्मा आदि सम्पूर्ण देवता जिनकी वन्दना करते रहते हैं, उन परम पुरुष भगवान् श्रीहरिको मैं प्रणाम करता हूँ। शरणागतोंकी पापराशिका नाश करनेवाले आपके चरणारविन्दोंको परिपक्व योगवाले योगियोंने जो अपने हृदयमें धारण किया है, यह उनके लिये बड़े सौभाग्यकी बात है। बढ़ी हुई भक्तिके द्वारा अपने अन्तःकरण तथा जीवभावको भी आपके चरणोंमें ही चढ़ाकर वे योगीजन उन चरणोंके चिन्तनमात्रसे आपके धामको प्राप्त हुए हैं। विचित्र कर्म करनेवाले! आप स्वतन्त्र परमेश्वरको नमस्कार है। साधु पुरुषोंपर अनुग्रह करनेवाले! आप परमात्माको प्रणाम है। प्रभो! आपकी मायासे मोहित होकर मैं स्त्री और धनरूपी विषयोंमें ही भटकता रहा हूँ, अनर्थमें ही मेरी अर्थदृष्टि हो गयी थी । प्रभो ! विश्वमूर्ते ! जब जीवपर आप अनन्तशक्ति परमेश्वरकी कृपा होती है, तभी उसे महापुरुषोंका संग प्राप्त होता है, जिससे यह संसारसमुद्र गोपदके समान हो जाता है। ईश्वर ! जब सत्संग मिलता है, तभी आपमें मन तथा बुद्धिका अनुराग होता है * । मेरा समस्त राज्य जो मुझसे छिन गया था, वह भी आपका मुझपर महान् अनुग्रह ही हुआ था, ऐसा मैं मानता हूँ। मैं न तो राज्य चाहता हूँ, न पुत्र आदिकी इच्छा रखता हूँ और न कोषकी ही अभिलाषा करता हूँ। अपितु मुनियोंके द्वारा ध्यान करने योग्य जो आपके आराधनीय चरणारविन्द हैं, उन्हींका नित्य सेवन करना चाहता हूँ। देवेश्वर! जगन्निवास! मुझपर प्रसन्न होइये, जिससे आपके चरणकमलोंकी स्मृति बराबर बनी रहे । तथा स्त्री, पुत्र, खजाना एवं आत्मीय कहे जानेवाले सब पदार्थोंमें जो मेरी आसक्ति है, वह सदाके लिये दूर हो जाय। भगवन्! मेरा मन सदा आपके चरणारविन्दोंके चिन्तनमें लगा रहे, मेरी वाणी आपकी दिव्य कथाके निरन्तर वर्णनमें तत्पर हो, मेरे ये दोनों नेत्र आपके श्रीविग्रहके दर्शनमें, कान कथाश्रवणमें तथा रसना आपके भोग लगाये हुए प्रसादके आस्वादनमें प्रवृत्त हो। प्रभो ! मेरी नासिका आपके चरणकमलोंकी तथा आपके भक्तजनोंके गन्ध-विलेपन आदिकी सुगन्ध लेनेमें, दोनों हाथ आपके मन्दिरमें झाड़ू देने आदिकी सेवामें, दोनों पैर आपके तीर्थ और कथास्थानकी यात्रा करनेमें तथा मस्तक निरन्तर आपको प्रणाम करनेमें संलग्न रहें। मेरी कामना आपकी उत्तम कथामें और बुद्धि अहर्निश आपका चिन्तन करनेमें तत्पर हो। मेरे घरपर पधारे हुए मुनियोंद्वारा आपकी उत्तम कथाका वर्णन तथा आपकी महिमाका गान होता रहे और इसीमें मेरे दिन बीतें । विष्णो! एक क्षण तथा आधे पलके लिये भी ऐसा प्रसंग न उपस्थित हो, जो आपकी चर्चासे रहित हो। हरे! मैं परमेष्ठी ब्रह्माका पद, भूतलका चक्रवर्ती राज्य और मोक्ष भी नहीं चाहता, केवल आपके चरणोंकी निरन्तर सेवा चाहता हूँ, जिसके लिये लक्ष्मीजी तथा ब्रह्मा, शंकर आदि देवता भी सदा प्रार्थना किया करते हैं।
राजाके इस प्रकार स्तुति करनेपर कमलनयन भगवान् विष्णुने प्रसन्न हो मेघके समान गम्भीर वाणीमें इस प्रकार कहा- 'राजन्! मैं जानता हूँ- तुम मेरे श्रेष्ठ भक्त हो, कामनारहित और निष्पाप हो नरेश्वर! मुझमें तुम्हारी दृढ़ भक्ति हो और अन्तमें तुम मेरा सायुज्य प्राप्त करो। तुम्हारे द्वारा किये हुए इस स्तोत्रसे इस पृथ्वीपर जो लोग स्तुति करेंगे, उनके ऊपर सन्तुष्ट हो मैं उन्हें भोग और मोक्ष प्रदान करूँगा। यह अक्षय तृतीया इस पृथ्वीपर प्रसिद्ध होगी, जिसमें भोग और मोक्ष प्रदान करनेवाला मैं तुम्हारे ऊपर प्रसन्न हुआ। जो मनुष्य इस तिथिको किसी भी बहाने से अथवा स्वभावसे ही स्नान, दान आदि क्रियाएँ करते हैं, वे मेरे अविनाशी पदको प्राप्त होते हैं जो मनुष्य पितरोंके उद्देश्यसे अक्षय तृतीयाको श्राद्ध करते हैं, उनका किया हुआ वह श्राद्ध अक्षय होता है। इस तिथि में थोड़ा सा भी जो पुण्य किया जाता है, उसका फल अक्षय होता है। नृपश्रेष्ठ! जो कुटुम्बी ब्राह्मणको गाय दान करता है, उसके हाथमें सब सम्पत्तियोंकी वर्षा करनेवाली भुक्ति और मुक्ति भी आ जाती है। जो वैशाखमासमें मेरा प्रिय करनेवाले धर्मोका अनुष्ठान करता है, उसके जन्म, मृत्यु, जरा, भय और पापको मैं हर लेता हूँ। अनघ! यह वैशाखमास मेरे चरण-चिन्तनकी ही भाँति ऐसे सहस्रों पापोंको हर लेता है, जिनके लिये शास्त्रोंमें कोई प्रायश्चित्त नहीं मिलता है।'
राजाको यह वरदान देकर देवाधिदेव भगवान् जनार्दन सबके देखते-देखते वहीं अन्तर्धान हो गये। तदनन्तर राजा पुरुयशा सदा भगवान्में ही मन लगाये हुए उन्हींकी सेवामें तत्पर रहकर इस पृथ्वीका पालन करने लगे। देवदुर्लभ समस्त मनोरथोंका उपभोग करके अन्तमें उन्होंने चक्रधारी भगवान् विष्णुका सायुज्य प्राप्त कर लिया। जो इस उत्तम उपाख्यानको सुनते और सुनाते हैं, वे सब पापोंसे मुक्त हो भगवान् विष्णुके परमपदको प्राप्त होते हैं।