यमराज कहते हैं - ब्रह्मन् ! पूर्वकालकी बात है, महीरथ नामसे विख्यात एक राजा थे। उन्हें अपने पूर्वजन्मके पुण्यों के फलस्वरूप प्रचुर ऐश्वर्य और सम्पत्ति प्राप्त हुई थी। परन्तु राजा राज्यलक्ष्मीका सारा भार मन्त्रीपर रखकर स्वयं विषयभोग में आसक्त हो रहे थे। वे न प्रजाकी ओर दृष्टि डालते थे, न धनकी ओर। धर्म और अर्थका काम भी कभी नहीं देखते थे। उनकी वाणी तथा उनका मन कामिनियोंकी क्रीड़ामें ही आसक्त था। राजाके पुरोहितका नाम कश्यप था; जब राजाको विषयोंमें रमते हुए बहुत दिन व्यतीत हो गये, तब पुरोहितने मनमें विचार किया- 'जो गुरु मोहवश राजाको अधर्मसे नहीं रोकता, वह भी उसके पापका भागी होता है; यदि समझानेपर भी राजा अपने पुरोहितके वचनोंकी अवहेलना करता है तो पुरोहित निर्दोष हो जाता है। उस दशामें राजा ही सारे दोषोंका भागी होता है।' यह सोचकर उन्होंने राजासे धर्मानुकूल वचन कहा
कश्यप बोले—राजन्! मैं तुम्हारा गुरु हूँ, अतः धर्म और अर्थसे युक्त मेरे वचनोंको सुनो। राजाके लिये यही सबसे बड़ा धर्म है कि वह गुरुकी आज्ञामें रहे। गुरुकी आज्ञाका आंशिक पालन भी राजाओंकी आयु, लक्ष्मी तथा सौख्यको बढ़ानेवाला है। तुमने दानके द्वारा कभी ब्राह्मणोंको तृप्त नहीं किया; भगवान् श्रीविष्णुकी आराधना नहीं की; कोई व्रत, तपस्या तथा तीर्थ भी नहीं किया। महाराज! कितने खेदकी बात है कि तुमने कामके अधीन होकर कभी भगवान्के नामका स्मरण नहीं किया। अबलाओंकी संगतिमें पड़कर विद्वानोंकी संगति नहीं की। जिसका मन स्त्रियोंने हर लिया, उसे अपनी विद्या, तपस्या, त्याग, नीति तथा विवेकशील चित्तसे क्या लाभ हुआ ।1 एकमात्र धर्म ही सबसे महान् और श्रेष्ठ है, जो मृत्युके बाद भी साथ जाता है। शरीरके उपभोगमें आनेवाली अन्य जितनी वस्तुएँ हैं, वे सब यहीं नष्ट हो जाती हैं। धर्मकी सहायतासे ही मनुष्य दुर्गतिसे पार होता है। राजेन्द्र ! क्या तुम नहीं जानते, मनुष्योंके जीवनका विलास जलकी उत्ताल तरंगोंके समान चंचल एवं अनित्य है। जिनके लिये विनय ही पगड़ी और मुकुट हैं, सत्य और धर्म ही कुण्डल हैं तथा त्याग ही कंगन हैं, उन्हें जड आभूषणोंकी क्या आवश्यकता है। मनुष्यके निर्जीव शरीरको ढेले और काठके समान पृथ्वीपर फेंक, उसके बन्धु बान्धव मुँह फेरकर चल देते हैं; केवल धर्म ही उसके पीछे-पीछे जाता है। सब कुछ जा रहा है, आयु प्रतिदिन क्षीण हो रही है तथा यह जीवन भी लुप्त होता जा रहा है; ऐसी अवस्थामें भी तुम उठकर भागते क्यों नहीं ? स्त्री- पुत्र आदि कुटुम्ब, शरीर तथा द्रव्य-संग्रह- ये सब पराये हैं, अनित्य हैं; किन्तु पुण्य और पाप अपने हैं। जब एक दिन सब कुछ छोड़कर तुम्हें विवशतापूर्वक जाना ही है तो तुम अनर्थमें फँसकर अपने धर्मका अनुष्ठान क्यों नहीं करते? मरनेके बाद उस दुर्गम पथपर अकेले कैसे जा सकोगे, जहाँ न ठहरनेके लिये स्थान, न खानेयोग्य अन्न, न पानी, न राहखर्च और न राह बतानेवाला कोई गुरु ही है । यहाँसे प्रस्थान करनेके बाद तुम्हारे पीछे कुछ भी नहीं जायगा, केवल पाप और पुण्य जाते समय तुम्हारे पीछे-पीछे जायँगे 2 अतः अब तुम आलस्य छोड़कर वेदों तथा स्मृतियोंमें बताये हुए देश और कुलके अनुरूप हितकारक कर्मका अनुष्ठान करो, धर्ममूलक सदाचारका सेवन करो। अर्थ और काम भी यदि धर्मसे रहित हों तो उनका परित्याग कर देना चाहिये। दिन-रात इन्द्रियविजयरूपी योगका अनुष्ठान करना चाहिये; क्योंकि जितेन्द्रिय राजा ही प्रजाको अपने वशमें रख सकता है। लक्ष्मी अत्यन्त प्रगल्भ रमणीके कटाक्षके समान चंचल होती है, विनयरूपी गुण धारण करनेसे ही वह राजाओंके पास दीर्घकालतक ठहरती है। जो अत्यन्त कामी और घमण्डी हैं, जिनका सारा कार्य बिना विचारे ही होता है, उन मूढचेता राजाओंकी सम्पत्ति उनकी आयुके साथ ही नष्ट हो जाती है । व्यसन और मृत्यु – इनमें व्यसनको ही कष्टदायक बताया गया है। व्यसनमें पड़े हुए राजाकी अधोगति होती है और जो व्यसनसे दूर रहता है, वह स्वर्गलोकमें जाता है। * व्यसन और दुःख विशेषतः कामसे ही उत्पन्न होते हैं; अतः कामका परित्याग करो। पापोंमें फँस जानेपर वैभव एवं भोग स्थिर नहीं रहते; वे शीघ्र ही नष्ट हो जाते हैं। चलते, रुकते, जागते और सोते समय भी जिसका चित्त विचारमें संलग्न नहीं रहता वह जीते-जी भी मरे हुएके ही तुल्य है। विद्वान् पुरुष विषय-चिन्ता छोड़कर समतापूर्ण, स्थिर एवं व्यावहारिक युक्तिसे परमार्थका साधन करते हैं। जीवका चित्त बालककी भाँति चपल होता है; अतः उससे बलपूर्वक काम लेना चाहिये। राजन् ! धर्मके तत्त्वदर्शी वृद्ध पुरुषोंकी बुद्धिका सहारा ले पराबुद्धिके द्वारा अपने कुपथगामी चित्तको वशमें करना चाहिये। लौकिक धर्म, मित्र,
भाई-बन्धु, हाथ-पैरोंका चलाना, देशान्तरमें जाना, शरीरसे क्लेश उठाना तथा तीर्थके लिये यत्न करना आदि कोई भी परमपदकी प्राप्ति में सहायता नहीं कर सकते; केवल परमात्मामें मन लगाकर उनका नाम-जप करनेसे ही उस पदकी प्राप्ति होती है।
इसलिये राजन् ! विद्वान् पुरुषको उचित है कि वह विषयों में प्रवृत्त हुए चित्तको रोकनेके लिये यत्न करे। यत्नसे वह अवश्य ही वशमें हो जाता है। यदि मनुष्य मोहमें पड़ जाय - स्वयं विचार करनेमें असमर्थ हो जाय तो उसे विद्वान् सुहृदोंके पास जाकर प्रश्न करना चाहिये। वे पूछनेपर यथोचित कर्तव्यका उपदेश देते हैं। कल्याणकी इच्छा रखनेवालेको हर एक उपायसे काम और क्रोधका निग्रह करना चाहिये; क्योंकि वे दोनों कल्याणका विघात करनेके लिये उद्यत रहते हैं। राजन् ! काम बड़ा बलवान् है; वह शरीरके भीतर रहनेवाला महान् शत्रु है। श्रेयकी अभिलाषा रखनेवाले पुरुषको उसके अधीन नहीं होना चाहिये। अतः विधिपूर्वक पालन किया हुआ धर्म ही सबसे श्रेष्ठ है। इसलिये तुम धैर्य धारण करके धर्मका ही आचरण करो । यह श्वास बड़ा चंचल है, जीवन उसीके अधीन है। ऐसी स्थितिमें भी कौन मनुष्य धर्मके आचरणमें विलम्ब करेगा। राजन्! जो वृद्धावस्थाको प्राप्त हो चुका है, उसका चित्त भी इन निषिद्ध विषयोंकी ओरसे नहीं हटता; हाय ! यह कितने शोककी बात है। पृथ्वीनाथ ! इस कामके मोहमें पड़कर तुम्हारी सारी उम्र व्यर्थ बीत गयी, अब भी तो अपने हित-साधनमें लगो। राजन् ! तुम्हारे लिये सर्वोत्तम हितकी बात कहता हूँ; क्योंकि मैं तुम्हारा पुरोहित और तुम्हारे भले-बुरे कर्मोंका भागी हूँ। मुनीश्वरोंने ब्रह्महत्या, सुरापान, चोरी, गुरुपत्नीगमन आदि महापातक बताये हैं; उनमेंसे मनुष्योंद्वारा मन, वाणी और शरीरसे भी किये हुए जो पाप हैं, उन्हें वैशाखमास नष्ट कर देता है। जैसे सूर्य अन्धकारका नाश करता है, उसी प्रकार वैशाखमास पापरूपी महान् अन्धकारको सर्वथा नष्ट कर डालता है। इसलिये तुम विधिपूर्वक वैशाखव्रतका पालन करो। राजन्! मनुष्य वैशाखमासकी विधिके अनुष्ठानद्वारा होनेवाले पुण्यके प्रभावसे जन्मभरके किये हुए घोर पापोंका परित्याग करके परमधामको प्राप्त होता है। इसलिये महाराज! तुम भी इस वैशाखमासमें प्रातः स्नान करके विधिपूर्वक भगवान् मधुसूदनकी पूजा करो। जिस प्रकार कूटने छाँटनेकी क्रियासे चावलकी भूसी छूट जाती है, माँजनेसे ताँबेकी कालिख मिट जाती है, उसी प्रकार शुभ कर्मका अनुष्ठान करने से पुरुषके अन्तःकरणका मल धुल जाता है।
राजाने कहा—सौम्य स्वभाववाले गुरुदेव ! आपने मुझे वह अमृत पिलाया, जिसका आविर्भाव समुद्रसे नहीं हुआ है। आपका वचन संसाररूपी रोगका निवारण तथा दुर्व्यसनोंसे मुक्त करनेवाला द्रव्यभिन्न औषध है। आपने कृपा करके मुझे आज इस औषधका पान कराया है। विप्रवर! सत्पुरुषोंका समागम मनुष्योंको हर्ष प्रदान करनेवाली, उनके पापको दूर भगानेवाली तथा जरा मृत्युका अपहरण करनेवाली संजीवनी बूटी है। इस पृथ्वीपर जो-जो मनोरथ दुर्लभ माने गये हैं, वे सब यहाँ साधु पुरुषोंके संगसे प्राप्त हो जाते हैं। जो पापोंका अपहरण करनेवाली सत्संगकी गंगामें स्नान कर चुका है, उसे दान, तीर्थसेवन, तपस्या तथा यज्ञ करनेकी क्या आवश्यकता है।* प्रभो! आजके पहले मेरे मनमें जो-जो भाव उठते थे, वे सब केवल काम-सुखके प्रति लोभ उत्पन्न करनेवाले थे; परन्तु आज आपके दर्शनसे तथा वचन
सुननेसे उनमें विपरीत भाव आ गया। मूर्ख मनुष्य एक जन्मके सुखके लिये हजारों जन्मोंका सुख नष्ट करता है और विद्वान् पुरुष एक जन्मसे हजारों जन्म बना लेते हैं। हाय! हाय! कितने खेदकी बात है कि मुझ मूर्खने अपने मनको सदा कामजनित भी रसके आस्वादन-सुखमें ही फँसाये रखनेके कारण कभी कुछ आत्म-कल्याणका कार्य नहीं किया। अहो ! मेरे मनका कैसा मोह है, जिससे मैंने स्त्रियोंके फेरमें पड़कर अपने आत्माको घोर विपत्तिमें डाल दिया, जिसका भविष्य अत्यन्त दुःखमय है तथा जिससे पार पाना बहुत कठिन है। भगवन्! आपने स्वतः सन्तुष्ट होकर अपनी वाणीसे आज मुझे मेरी स्थितिका बोध करा दिया। अब उपदेश देकर मेरा उद्धार कीजिये । पूर्वजन्ममें मैंने कोई पुण्य किया था, जिससे आपने मुझे बोध कराया है। विशेषत: आपके चरणोंकी धूलिसे आज मैं पवित्र हो गया। वक्ताओंमें श्रेष्ठ ! अब आप मुझे वैशाखमासकी विधि बताइये ।
कश्यपजी बोले - राजन् बुद्धिमान् पुरुषको चाहिये कि वह बिना पूछे अथवा अन्यायपूर्वक पूछनेपर किसीको उपदेश न दे। लोकमें जानते हुए भी जडवत् - अनजानकी भाँति आचरण करे। परन्तु विद्वानों, शिष्यों, पुत्रों तथा श्रद्धालु पुरुषोंको उनके हितकी बात कृपापूर्वक बिना पूछे भी बतानी चाहिये। राजन् ! इस समय तुम्हारा मन धर्ममें स्थित हुआ है, अतः तुम्हें वैशाख - स्नानके उत्तम व्रतका पालन कराऊँगा ।
तदनन्तर पुरोहित कश्यपने राजा महीरथसे वैशाखमासमें स्नान, दान और पूजन कराया। शास्त्रमें वैशाख स्नानकी जैसी विधि उन्होंने देखी थी, उसका पूरा-पूरा पालन कराया। राजा महीरथने भी गुरुकी प्रेरणासे उस समय विधिपूर्वक सब नियमोंका पालन किया तथा माधवमासका जो-जो विधान उन्होंने बताया, वह सब आदरपूर्वक सुना। उन नृपश्रेष्ठने प्रातःकाल स्नान करके भक्तिभावके साथ पाद्य और अर्घ्य आदि देकर श्रीहरिका पूजन किया तथा नैवेद्य भोग लगाया।
यमराज कहते हैं – ब्रह्मन् ! तत्पश्चात् राजाके ऊपर कालकी दृष्टि पड़ी। अधिक मात्रामें रतिका सेवन करनेसे उन्हें क्षयका रोग हो गया था, जिससे उनका शरीर अत्यन्त दुर्बल हो गया; अन्ततोगत्वा उनकी मृत्यु हो गयी। उस समय मेरे तथा भगवान् विष्णुके दूत भी उन्हें लेने पहुँचे। विष्णुदूतोंने 'ये राजा धर्मात्मा हैं' यों कहकर मेरे सेवकोंको डाँटा और स्वयं राजाको विमानपर बिठाकर वे वैकुण्ठलोकमें ले गये। वैशाखमासमें प्रात:काल स्नान करनेसे राजाका पातक नष्ट हो चुका था। भगवान् विष्णुके दूत अत्यन्त चतुर होते हैं; वे भगवान्की आज्ञाके अनुसार राजा महीरथको नरकमार्गके निकटसे ले चले। जाते-जाते राजाने नरकमें पकाये जानेके कारण घोर चीत्कार करनेवाले नारकीय जीवोंका आर्तनाद सुना। कड़ाहमें डालकर औंटाये जानेवाले पापियोंका क्रन्दन बड़ा भयंकर था। सुनकर राजाको बड़ा विस्मय हुआ । वे अत्यन्त दुःखी होकर दूतोंसे बोले-' जीवोंके कराहनेकी यह भयंकर आवाज क्यों सुनायी दे रही है? इसमें क्या कारण है? आप लोग सब बातें बतानेकी कृपा करें।'
विष्णुदूत बोले- जिन प्राणियोंने धर्मकी मर्यादाका परित्याग किया है, जो पापाचारी एवं पुण्यहीन हैं, वे तामिस्र आदि भयंकर नरकों में डाले गये हैं। पापी मनुष्य प्राण त्यागके पश्चात् यमलोकके मार्गमें आकर भयानक दुःख भोगते हैं। यमराजके भयंकर दूत उन्हें इधर-उधर घसीटते हैं और वे अन्धकारमें गिर पड़ते हैं। उन्हें आगमें जलाया जाता है। उनके शरीरमें काँटे चुभाये जाते हैं। उनको आरीसे चीरा जाता है तथा वे भूख-प्याससे पीड़ित रहते हैं। पीब और रक्तकी दुर्गन्धके कारण उन्हें बार-बार मूर्च्छा आ जाती है। कहीं वे खौलते हुए तेलमें औंटाये जाते हैं; कहीं उनपर मूसलोंकी मार पड़ती है और कहीं तपाये हुए लोहेकी शिलाओं पर डालकर उन्हें पकाया जाता है। कहीं वमन, कहीं पीब और कहीं रक्त उन्हें खानेको मिलता है। मुर्दोंकी दुर्गन्धसे भरे हुए करोड़ों नरक हैं, जहाँ 'शरपत्र' वन है, 'शिलापात' के स्थान हैं (जहाँ पापी शिलाओंपर पटके जाते हैं) तथा वहाँकी समतल भूमि भी आगसे तपी होती है। इसके सिवा गरम लोहेके, खौलते हुए तेलके, मेदाके, तपे हुए स्तम्भके तथा कूट- शाल्मलि नामके भी नरक । छूरे, काँटे, कील और उग्र ज्वालाके कारण क्षोभ एवं भय उत्पन्न करनेवाले बहुत-से नरक । कहीं तपी हुई वैतरणी नदी है। कहीं पीबसे भरे हुए अनेकों कुण्ड हैं। इन सबमें पृथक्-पृथक् पापियोंको डाला जाता है। कुछ नरक ऐसे हैं, जो जंगलके रूपमें हैं; वहाँके पत्ते तलवारकी धारके समान तीखे हैं। इसीसे उन्हें 'असिपत्रवन' कहते हैं; वहाँ प्रवेश करते ही नर-नारियोंके शरीर कटने और छिलने लगते हैं। कितने ही नरक घोर अन्धकार तथा आगकी लपटोंके कारण अत्यन्त दारुण प्रतीत होते हैं। इनमें बार-बार यातना भोगनेके कारण पापी जीव नाना प्रकारके स्वरोंमें रोते और विलाप करते हैं। राजन् ! इस प्रकार ये शास्त्रविरुद्ध कर्म करनेवाले पापी जीव कराहते हुए नरकयातनाका कष्ट भोग रहे हैं। उन्हींका यह क्रन्दन हो रहा है। सभी प्राणियोंको अपने पूर्वकृत कर्मोंका भोग भोगना पड़ता है। परायी स्त्रियोंका संग प्रसन्नताके लिये किया जाता है, किन्तु वास्तवमें वह दुःख ही देनेवाला होता है। दो घड़ीतक किया हुआ विषय-सुखका आस्वादन अनेक कल्पोंतक दुःख देनेवाला होता है। राजेन्द्र ! तुमने वैशाखमासमें प्रातः स्नान किया है, उसकी विधिका पालन करनेसे तुम्हारा शरीर पावन बन गया है। उससे छूकर बहनेवाली वायुका स्पर्श पाकर ये क्षणभरके लिये सुखी हो गये हैं। तुम्हारे तेजसे इन्हें बड़ी तृप्ति मिल रही है। इसीसे अब ये नरकवर्ती जीव कराहना छोड़कर चुप हो गये हैं। पुण्यवानोंका नाम भी यदि सुना या उच्चारण किया जाय तो वह सुखका साधक होता है तथा उसे छूकर चलनेवाली वायु भी शरीरमें लगनेपर बड़ा सुख देती है। *
यमराज कहते हैं - करुणाके सागर राजा महीरथ अद्भुत कर्म करनेवाले भगवान् श्रीविष्णुके दूतोंकी उपर्युक्त बात सुनकर द्रवित हो उठे। निश्चय ही साधु पुरुषोंका हृदय मक्खनके समान होता है। जैसे नवनीत आगकी आँच पाकर पिघल जाता है, उसी प्रकार साधु पुरुषोंका हृदय भी दूसरोंके संतापसे संतप्त होकर द्रवित हो उठता है। उस समय राजाने दूतोंसे कहा ।
राजा बोले—इन्हें देखकर मुझे बड़ी व्यथा हो रही है। मैं इन व्यथित प्राणियोंको छोड़कर जाना नहीं चाहता। मेरी समझमें सबसे बड़ा पापी वही है, जो समर्थ होते हुए भी वेदनाग्रस्त जीवोंका शोक दूर न कर सके। यदि मेरे शरीरको छूकर बहनेवाली वायुके स्पर्शसे ये जीव सुखी हुए हैं तो आप लोग मुझे उसी स्थानपर ले चलिये; क्योंकि जो चन्दनवृक्षकी भाँति दूसरोंके ताप दूर करके उन्हें आह्लादित करते हैं तथा जो परोपकारके लिये
स्वयं कष्ट उठाते हैं, वे ही पुण्यात्मा हैं। संसारमें वे ही संत हैं, जो दूसरोंके दुःखोंका नाश करते हैं तथा पीड़ित जीवोंकी पीड़ा दूर करनेके लिये जिन्होंने अपने प्राणोंको तिनकेके समान निछावर कर दिया है। जो मनुष्य सदा दूसरोंकी भलाईके लिये उद्यत रहते हैं, उन्होंने ही इस पृथ्वीको धारण कर रखा है। जहाँ सदा अपने मनको ही सुख मिलता है, वह स्वर्ग भी नरकके ही समान है; अतः साधु पुरुष सदा दूसरोंके सुखसे ही सुखी होते हैं। यहाँ नरक में गिरना अच्छा, प्राणोंसे वियोग हो जाना भी अच्छा; किन्तु पीड़ित जीवोंकी पीड़ा दूर किये बिना एक क्षण भी सुख भोगना अच्छा नहीं है। *
दूत बोले- राजन् ! पापी पुरुष अपने कर्मोंका ही फल भोगते हुए भयंकर नरकमें पकाये जाते हैं। जिन्होंने दान, होम अथवा पुण्यतीर्थमें स्नान नहीं किया है; मनुष्योंका उपकार तथा कोई उत्तम पुण्य नहीं किया है; यज्ञ, तपस्या और प्रसन्नतापूर्वक भगवन्नामोंका जप नहीं किया है, वे ही परलोकमें आनेपर घोर नरकोंमें पकाये जाते हैं। जिनका शील-स्वभाव दूषित है, जो दुराचारी, व्यवहारमें निन्दित, दूसरोंकी बुराई करनेवाले एवं पापी हैं, वे ही नरकोंमें पड़ते हैं। जो पापी अपने मर्मभेदी वचनोंसे दूसरोंका हृदय विदीर्ण कर डालते हैं तथा जो परायी स्त्रियोंके साथ विहार करते हैं, वे नरकोंमें पकाये जाते हैं। महाभाग भूपाल ! आओ, अब भगवान्के धामको चलें। तुम पुण्यवान् हो, अतः अब तुम्हारा यहाँ ठहरना उचित नहीं है। राजाने कहा - विष्णुदूतगण ! यदि मैं पुण्यात्मा हूँ तो इस महाभयंकर यातनामार्गमें कैसे लाया गया? मैंने कौन-सा पाप किया है तथा किस पुण्यके प्रभावसे मैं विष्णुधामको जाऊँगा ? आप लोग मेरे इस संशयका निवारण करें।
दूत बोले—राजन्! तुम्हारा मन कामके अधीन हो रहा था; इसलिये तुमने कोई पुण्य, यज्ञानुष्ठान अथवा यज्ञावशिष्ट अन्नका भोजन नहीं किया है। इसीलिये तुम्हें इस मार्गसे लाया गया है। किन्तु लगातार तीन वर्षोंतक तुमने अपने गुरुकी प्रेरणासे वैशाखमासमें विधिपूर्वक प्रात: स्नान किया है तथा महापापों और अतिपापोंकी राशिका विनाश करनेवाले भक्तवत्सल, विश्वेश्वर भगवान् मधुसूदनकी भक्तिपूर्वक पूजा की है। यह सब पुण्योंका सार है। केवल इस एक ही पुण्यसे तुम देवताओं द्वारा पूजित होकर श्रीविष्णुधामको ले जाये जा रहे हो। नरेश्वर ! जैसे एक ही चिनगारी पड़ जाने से तिनकोंकी राशि भस्म हो जाती है, उसी प्रकार वैशाखमें प्रातः स्नान करनेसे पापराशिका विनाश हो जाता है। जो वैशाखमें शास्त्रोक्त नियमोंसे युक्त होकर स्नान करता है, वह हरिभक्त पुरुष अतिपापोंके समूहसे छुटकारा पाकर विष्णुपदको प्राप्त होता है। *
यमराज कहते हैं – ब्रह्मन् ! तब दयासागर राजाने उन जीवोंके शोकसे पीड़ित हो भगवान् श्रीविष्णुके दूतोंसे विनयपूर्वक कहा— 'साधु पुरुष प्राप्त हुए ऐश्वर्यका, गुणोंका तथा पुण्यका यही फल मानते हैं कि इनके द्वारा कष्टमें पड़े हुए जीवोंकी रक्षा की जाय। यदि मेरा कुछ पुण्य है तो उसीके प्रभावसे ये नरकमें पड़े हुए जीव निष्पाप होकर स्वर्गको चले जायँ और मैं इनकी जगह नरकमें निवास करूँगा।' राजाके ऐसे वचन सुनकर श्रीविष्णुके मनोहर दूत उनके सत्य और उदारतापर विचार करते हुए इस प्रकार बोले—'राजन् ! इस दयारूप धर्मके अनुष्ठानसे तुम्हारे संचित धर्मकी विशेष वृद्धि हुई है। तुमने वैशाखमासमें जो स्नान, दान, जप, होम, तप तथा देवपूजन आदि कर्म किये हैं, वे अक्षय फल देनेवाले हो गये। जो वैशाखमासमें स्नान-दान करके भगवान्का पूजन करता है, वह सब कामनाओंको प्राप्त होकर श्रीविष्णुधामको जाता है। एक ओर तप, दान और यज्ञ आदिकी शुभ क्रियाएँ और एक ओर विधिपूर्वक आचरणमें लाया हुआ वैशाखमासका व्रत हो तो यह वैशाखमास ही महान् है । राजन् ! वैशाखमासके एक दिनका भी जो पुण्य है, वह तुम्हारे लिये सब दानोंसे बढ़कर है। दयाके समान धर्म, दयाके समान तप, दयाके समान दान और दयाके समान कोई मित्र नहीं है।* पुण्यका दान करनेवाला मनुष्य सदा लाखगुना पुण्य प्राप्त करता है । विशेषतः तुम्हारी दयाके कारण धर्मकी अधिक वृद्धि हुई है। जो मनुष्य दुःखित प्राणियोंका दुःखसे उद्धार करता है, वही संसारमें पुण्यात्मा है उसे भगवान् नारायणके अंशसे उत्पन्न समझना चाहिये। वीर ! वैशाखमासकी पूर्णिमाको तीर्थमें जाकर जो तुमने सब पापोंका नाश करनेवाला स्नान-दान आदि पुण्य किया है, उसे विधिवत् भगवान् श्रीहरिको साक्षी बनाकर तीन बार प्रतिज्ञा करके इन पापियोंके लिये दान कर दो, जिससे ये नरकसे निकलकर स्वर्गको चले जायँ । हमारा तो ऐसा विश्वास है कि पीड़ित जन्तुओंको शान्ति प्रदान करनेसे जो आनन्द मिलता है, उसे मनुष्य स्वर्ग और मोक्षमें भी नहीं पा सकता। सौम्य! तुम्हारी बुद्धि दया एवं दानमें दृढ़ है, इसे देखकर हम लोगोंको भी उत्साह होता है। राजन् ! यदि तुम्हें अच्छा जान पड़े तो अब बिना विलम्ब किये इन्हें वह पुण्य प्रदान करो, जो नरकयातनाके दुःखको दग्ध करनेवाला है।''
विष्णुदूतोंके यों कहने पर दयालु राजा महीरथने भगवान् गदाधरको साक्षी बनाकर तीन बार प्रतिज्ञापूर्वक संकल्प करके उन पापियोंके लिये अपना पुण्य अर्पण किया। वैशाखमासके एक दिनके ही पुण्यका दान करनेपर वे सभी जीव यम- यातनाके दुःखसे मुक्त हो गये। फिर अत्यन्त हर्षमें भरकर वे श्रेष्ठ विमानपर आरूढ़ हुए और राजाकी प्रशंसा करते हुए उन्हें प्रणाम करके स्वर्गको चले गये। इस दानसे राजाको विशेष पुण्यकी प्राप्ति हुई। मुनियों और देवताओंका समुदाय उनकी स्तुति करने लगा तथा वे जगदीश्वर श्रीविष्णुके पार्षदोंद्वारा अभिवन्दित होकर उस परमपदको प्राप्त हुए, जो बड़े-बड़े योगियोंके लिये भी दुर्लभ है।
द्विजश्रेष्ठ! यह वैशाखमास और पूर्णिमाका कुछ माहात्म्य यहाँ थोड़ेमें बतलाया गया। यह धन, यश, आयु तथा परम कल्याण प्रदान करनेवाला है। इतना ही नहीं, इससे स्वर्ग तथा लक्ष्मीकी भी प्राप्ति होती है। यह प्रशंसनीय माहात्म्य अन्तःकरणको शुद्ध करनेवाला और पापोंको धो डालनेवाला है। माधवमासका यह माहात्म्य भगवान् माधवको अत्यन्त प्रिय है। राजा महीरथका चरित्र और हम दोनोंका मनोरम संवाद सुनने, पढ़ने तथा विधिपूर्वक अनुमोदन करनेसे मनुष्यको भगवान्की भक्ति प्राप्त होती है, जिससे समस्त क्लेशोंका नाश हो जाता है।
सूतजी कहते हैं- धर्मराजकी यह बात सुनकर वह ब्राह्मण उन्हें प्रणाम करके चला गया। उसने भूतलपर प्रतिवर्ष स्वयं तो वैशाख स्नानकी विधिका पालन किया ही, दूसरोंसे भी कराया। यह ब्राह्मण और यमका संवाद मैंने आप लोगोंसे वैशाखमासके पुण्यमय स्नानके प्रसंगमें सुनाया है। जो एकचित्त होकर वैशाखमास माहात्म्यका श्रवण करता है, वह सब पापोंसे मुक्त होकर श्रीविष्णुके परमपदको प्राप्त होता है।