अम्बरीषने कहा- मुने! जिसके चिन्तनमात्रसे पापराशिका लय हो जाता है, उस पाप-प्रशमन नामक स्तोत्रको मैं भी सुनना चाहता हूँ। आज धन्य हूँ, अनुगृहीत हूँ; आपने मुझे उस शुभ विधिका श्रवण कराया, जिसके सुननेमात्रसे पापोंका क्षय हो जाता है। वैशाखमासमें जो भगवान् केशवके कल्याणमय नामोंका कीर्तन किया जाता है, उसीको मैं संसारमें सबसे बड़ा पुण्य, पवित्र, मनोरम तथा एकमात्र सुकृतसे ही सुलभ होनेवाला शुभ कर्म मानता हूँ। अहो! जो लोग माधवमासमें भगवान् मधुसूदनके नामोंका स्मरण करते हैं वे धन्य हैं। अतः यदि आप उचित समझें तो मुझे पुनः माधवमासकी ही पवित्र कथा सुनायें।
सूतजी कहते हैं-राजाओंमें श्रेष्ठ हरिभक्त अम्बरीषका वचन सुनकर नारद मुनिको बड़ी प्रसन्नता हुई । यद्यपि वे वैशाख स्नान के लिये जानेको उत्कण्ठित थे, तथापि सत्संगमें आनन्द आनेके कारण रुक गये और राजासे बोले ।
नारदजीने कहा- महीपाल ! मुझे ऐसा जान पड़ता है कि यदि दो व्यक्तियोंमें परस्पर भगवत्कथा-सम्बन्धी सरस वार्तालाप छिड़ जाय तो वह अत्यन्त विशुद्ध - अन्तःकरणको शुद्ध करनेवाला होता है। आज तुम्हारे साथ जो माधवमासके माहात्म्यकी चर्चा चल रही है, यह वैशाख- स्नानकी अपेक्षा अधिक पुण्य प्रदान करनेवाली हैं; क्योंकि माधवमासके देवता भगवान् श्रीविष्णु हैं [अतः उसका कीर्तन भगवान्का ही कीर्तन है]। जिसका जीवन धर्मके लिये और धर्म भगवान्की प्रसन्नताके लिये है तथा जो रातों-दिन पुण्योपार्जनमें ही लगा रहता है, उसीको इस पृथ्वीपर मैं वैष्णव मानता हूँ। राजन् ! अब मैं वैशाख - स्नानसे होनेवाले पुण्य-फलका संक्षेपसे वर्णन करता हूँ; विस्तारके साथ सारा वर्णन तो मेरे पिता-ब्रह्माजी भी नहीं कर सकते। वैशाखमें डुबकी लगानेमात्र से समस्त पाप छूट जाते हैं। पूर्वकालकी बात है, कोई मुनीश्वर तीर्थयात्राके प्रसंगसे सर्वत्र घूम रहे थे। उनका नाम था मुनिशर्मा। वे बड़े धर्मात्मा, सत्यवादी, पवित्र तथा शम, दम एवं शान्तिधर्मसे युक्त थे। वे प्रतिदिन पितरोंका तर्पण और श्राद्ध करते थे। उन्हें वेदों और स्मृतियोंके विधानोंका सम्यक् ज्ञान था। वे मधुर वाणी बोलते और भगवान्का पूजन करते रहते थे। वैष्णवोंके संसर्गमें ही उनका समय व्यतीत होता था। वे तीनों कालोंके ज्ञाता, मुनि, दयालु, अत्यन्त तेजस्वी, तत्त्वज्ञानी और ब्राह्मणभक्त थे। वैशाखका महीना था, मुनिशर्मा स्नानके लिये नर्मदाके किनारे जा रहे थे। उसी समय उन्होंने अपने सामने पाँच पुरुषोंको देखा, जो भारी दुर्गतिमें फँसे हुए थे। वे अभी-अभी एक-दूसरेसे मिले थे ! उनके शरीरका रंग काला था। वे एक बरगद की छायामें बैठे थे और पापोंके कारण उद्विग्न होकर चारों और दृष्टिपात कर रहे थे। उन्हें देखकर द्विजवर मुनिशर्मा बड़े विस्मयमें पड़े और सोचने लगे-इस भयानक वनमें ये मनुष्य कहाँसे आये ? इनकी चेष्टा बड़ी दयनीय है, किन्तु इनका आकार बड़ा भयंकर दिखायी देता है। ये पापभागी चोर तो नहीं हैं ? विप्रवर मुनिशर्माकी बुद्धि बड़ी स्थिर थी, वे ज्यों ही इस • प्रकार विचार करने लगे, उसी समय उपर्युक्त पाँचों पुरुष उनके पास आये और हाथ जोड़कर मुनिशर्मासे बोले ।
उन पुरुषोंने कहा—विप्रवर! हमें आप कल्याणमय पुरुषोत्तम जान पड़ते हैं। हम दुःखी जीव हैं। अपना दुःख विचारकर आपको बताना चाहते हैं। द्विजराज! आप कृपा करके हमारी कष्ट - कथा सुनें। दैववश जिनके पाप प्रकट हो गये हैं, उन दीन दुःखी प्राणियोंके आधार आप जैसे संत-महात्मा ही हैं। साधु पुरुष अपनी दृष्टिमात्रसे पीड़ितोंकी पीड़ाएँ हर लेते हैं। [ अब उनमेंसे एकने सबका परिचय देना आरम्भ किया— ] मैं पंचाल देशका क्षत्रिय हूँ, मेरा नाम नरवाहन है। मैंने मार्गमें मोहवश बाणद्वारा एक ब्राह्मणकी हत्या कर डाली। मुझसे ब्रह्म-हत्याका पाप हो गया है। इसलिये शिखा, सूत्र और तिलकसे रहित होकर इस पृथ्वीपर घूमता हूँ और सबसे कहता फिरता हूँ कि 'मैं ब्रह्महत्यारा हूँ।' मुझ महापापी ब्रह्मघातीको आप कृपाकी भिक्षा दें। इस दशामें पड़े-पड़े मुझे एक वर्ष बीत गया। मैं पापसे जल रहा हूँ। मेरा चित्त शोकसे व्याकुल है। तथा ये जो सामने दिखायी देते हैं, इनका नाम चन्द्रशर्मा है। ये जातिके ब्राह्मण हैं। इन्होंने मोहसे मलिन होकर गुरुका वध किया है। मगधदेशके निवासी हैं। इनके स्वजनोंने इनका परित्याग कर दिया है। ये भी घूमते घामते दैवात् यहाँ आ पहुँचे हैं। इनके भी न शिखा है न सूत्र । ब्राह्मणका कोई भी चिह्न इनके शरीरमें नहीं रह गया है। इनके सिवा जो ये तीसरे व्यक्ति हैं, इनका नाम देवशर्मा है। स्वामिन्! ये भी बड़े कष्टमें हैं। ये भी जातिके ब्राह्मण हैं, किन्तु मोहवश वेश्याकी आसक्तिमें फँसकर शराबी हो गये थे। इन्होंने भी पूछने पर अपना सारा हाल सच-सच कह सुनाया है। अपने प्रथम 1. पापाचारको याद करके इनके हृदयमें बड़ा संताप होता है। ये सदा मनस्तापसे पीड़ित रहते हैं। इनको इनकी स्त्रीने, बन्धु बान्धवोंने तथा गाँवके सब लोगोंने वहाँसे निकाल दिया है। ये अपने उसी पापके साथ भ्रमण करते हुए यहाँ आये हैं। ये चौथे महाशय जातिके वैश्य हैं। इनका नाम विधुर है। ये गुरुपत्नीके साथ समागम करनेवाले हैं। इनकी माता मिथिलामें जाकर वेश्या हो गयी थी। इन्होंने मोहवश तीन महीनोंतक उसीका उपभोग किया है। परन्तु जब असली बातका पता लगा है तो बहुत दुःखी होकर पृथ्वीपर विचरते हुए ये भी यहाँ आ पहुँचे हैं। हममेंसे ये जो पाँचवें दिखायी दे रहे हैं, ये भी वैश्य ही हैं। इनका नाम नन्द है। ये पापियोंका संसर्ग करनेवाले महापापी हैं। इन्होंने प्रतिदिन धनके लालचमें पड़कर बहुत चोरी की है। पातकों से आक्रान्त हो जानेपर इन्हें स्वजनोंने त्याग दिया है। तब ये स्वयं भी खिन्न होकर दैवात् यहाँ आ पहुँचे हैं। इस प्रकार हम पाँचों महापापी एक स्थानपर जुट गये हैं। हम सब-के-सब दुःखोंसे घिरे हुए हैं। अनेकों तीर्थोंमें घूम आये, मगर हमारा घोर पातक नहीं मिटता। आपको तेजसे उद्दीप्त देखकर हमलोगोंका मन प्रसन्न हो गया है। आप-जैसे साधु पुरुषके पुण्यमय दर्शनसे हमारे पातकोंके अन्त होनेकी सूचना मिल रही है। स्वामिन्! कोई ऐसा उपाय बताइये, जिससे हमलोगोंके पापोंका नाश हो जाय। प्रभो! आप वेदार्थके ज्ञाता और परम दयालु जान पड़ते हैं; 1
आपसे हमें अपने उद्धारकी बड़ी आशा है। मुनिशर्माने कहा- तुमलोगोंने अज्ञानवश पाप किया, किन्तु इसके लिये तुम्हारे हृदयमें अनुताप है तथा तुम सब-के-सब सत्य बोल रहे हो; इस कारण तुम्हारे ऊपर अनुग्रह करना मेरा कर्तव्य है। मैं अपनी भुजा ऊपर उठाकर कहता हूँ, मेरी सत्य बातें सुनो। पूर्वकालमें जब मुनियोंका समुदाय एकत्रित हुआ था, उस समय मैंने महर्षि अंगिराके मुखसे जो कुछ सुना था, वही वेद-शास्त्रोंमें भी देखा; वह सबके लिये विश्वास करनेयोग्य है। मेरी आराधनासे संतुष्ट हुए स्वयं भगवान् विष्णुने भी पहले ऐसी ही बात बतायी थी। वह इस प्रकार है। भोजनसे बढ़कर दूसरा कोई तृप्तिका साधन नहीं है। पितासे बढ़कर कोई गुरु नहीं है। ब्राह्मणोंसे उत्तम दूसरा कोई पात्र नहीं है तथा भगवान् विष्णुसे श्रेष्ठ दूसरा कोई देवता नहीं है। गंगाकी समानता करनेवाला कोई तीर्थ, गोदानकी तुलना करनेवाला कोई दान, गायत्रीके समान जप, एकादशीके तुल्य व्रत, भार्याके सदृश मित्र, दयाके समान धर्म तथा स्वतन्त्रताके समान सुख नहीं है । गार्हस्थ्यसे बढ़कर आश्रम और सत्यसे बढ़कर सदाचार नहीं है। इसी प्रकार संतोषके समान सुख तथा वैशाखमासके समान महान् पापोंका अपहरण करनेवाला दूसरा कोई मास नहीं है। वैशाखमास भगवान् मधुसूदनको बहुत ही प्रिय है। गंगा आदि तीर्थोंमें तो वैशाख - स्नानका सुयोग अत्यन्त दुर्लभ है। उस समय गंगा, यमुना तथा नर्मदाकी प्राप्ति कठिन होती है। जो शुद्ध हृदयवाला मनुष्य भगवान् के भजनमें तत्पर हो पूरे वैशाखभर प्रातः काल गंगा स्नान करता है, वह सब पापोंसे मुक्त होकर परम गतिको प्राप्त होता है।
इसलिये पुण्यके सारभूत इस वैशाखमासमें तुम सभी पातकी मेरे साथ नर्मदा तटपर चलो और उसमें गोते लगाओ। नर्मदाके जलका मुनिलोग भी सेवन करते हैं, वह समस्त पापोंके भयका नाश करनेवाला है। मुनिके यों कहनेपर वे सब पापी उनके साथ अद्भुत पुण्य प्रदान करनेवाली नर्मदाकी प्रशंसा करते हुए उसके तटपर गये। किनारे पहुँचकर ब्राह्मणश्रेष्ठ मुनिशर्माका चित्त प्रसन्न हो गया। उन्होंने वेदोक्त विधिके अनुसार नर्मदाके जलमें प्रातः स्नान किया। उपर्युक्त पाँचों पापियोंने भी ब्राह्मणके कहनेसे ज्यों ही नर्मदामें डुबकी लगायी, त्यों ही उनके शरीरका रंग बदल गया; वे तत्काल सुवर्णके समान कान्तिमान् हो गये। फिर मुनिशर्माने सब लोगोंके सामने उन्हें पाप - प्रशमन नामक स्तोत्र सुनाया।
भूपाल ! अब तुम पाप-प्रशमन नामक स्तोत्र सुनो। इसका भक्तिपूर्वक श्रवण करके भी मनुष्य पापराशिसे मुक्त हो जाता है। इसके चिन्तनमात्रसे बहुतेरे पापी शुद्ध हो चुके हैं। इसके सिवा, और भी बहुत-से मनुष्य इस स्तोत्रका सहारा लेकर अज्ञानजनित पापसे मुक्त हो गये हैं। जब मनुष्योंका चित्त परायी स्त्री, पराये धन तथा जीव-हिंसा आदिकी ओर जाय तो इस प्रायश्चित्तरूपा स्तुतिकी शरण लेनी चाहिये। यह स्तुति इस प्रकार है...
विष्णवे विष्णवे नित्यं विष्णवे विष्णवे नमः । नमामि विष्णुं चित्तस्थमहंकारगतं हरिम् ॥ चित्तस्थमीशमव्यक्तमनन्तमपराजितम् । विष्णुमीड्यमशेषाणामनादिनिधनं हरिम् ॥
सम्पूर्ण विश्वमें व्यापक भगवान् श्रीविष्णुको सर्वदा नमस्कार है। विष्णुको बारम्बार प्रणाम है। मैं अपने चित्तमें विराजमान विष्णुको नमस्कार करता हूँ। अपने अहंकारमें व्याप्त श्रीहरिको मस्तक झुकाता हूँ। श्रीविष्णु चित्तमें विराजमान ईश्वर (मन और इन्द्रियोंके शासक), अव्यक्त, अनन्त, अपराजित, सबके द्वारा स्तवन करनेयोग्य तथा आदि-अन्तसे रहित हैं; ऐसे श्रीहरिको मैं नित्य-निरन्तर प्रणाम करता हूँ।
विष्णुश्चित्तगतो यन्मे विष्णुर्बुद्धिगतश्च यत् ।
योऽहंकारगतो विष्णुर्यो विष्णुर्मयि संस्थितः ॥
करोति कर्तृभूतोऽसौ स्थावरस्य चरस्य च।
तत्पापं नाशमायाति तस्मिन् विष्णौ विचिन्तिते ॥
जो विष्णु मेरे चित्तमें विराजमान हैं, जो विष्णु मेरी बुद्धिमें स्थित हैं, जो विष्णु मेरे अहंकारमें व्याप्त हैं तथा जो विष्णु सदा मेरे स्वरूपमें स्थित हैं, वे ही कर्ता होकर सब कुछ करते हैं। उन विष्णुभगवान्का चिन्तन करनेपर चराचर प्राणियोंका सारा पाप नष्ट हो जाता है। ध्यातो हरति यः पापं स्वप्ने दृष्टश्च पापिनाम् ।
तमुपेन्द्रमहं विष्णुं नमामि प्रणतप्रियम् ॥
जो ध्यान करने और स्वप्नमें दीख जानेपर भी पापियोंके पाप हर लेते हैं तथा चरणोंमें पड़े हुए शरणागत भक्त जिन्हें अत्यन्त प्रिय हैं, उन वामनरूपधारी भगवान् श्रीविष्णुको नमस्कार करता हूँ ।
जगत्यस्मिन्निरालम्बे ह्यजमक्षरमव्ययम् ।
हस्तावलम्बनं स्तोत्रं विष्णुं वन्दे सनातनम् ॥
जो अजन्मा, अक्षर और अविनाशी हैं तथा इस अवलम्बशून्य संसारमें हाथका सहारा देनेवाले हैं, स्तोत्रोंद्वारा जिनकी स्तुति की जाती है, उन सनातन श्रीविष्णुको मैं प्रणाम करता हूँ ।
सर्वेश्वरेश्वर विभो परमात्मन्नधोक्षज
हृषीकेश हृषीकेश हृषीकेश नमोऽस्तु ते ॥
हे ! हे ईश्वर ! हे व्यापक परमात्मन्! हे अधोक्षज ! हे इन्द्रियोंका शासन करनेवाले अन्तर्यामी हृषीकेश! आपको बारम्बार नमस्कार है।
नृसिंहानन्त गोविन्द भूतभावन केशव ।
दुरुक्तं दुष्कृतं ध्यातं शमयाशु जनार्दन ॥
हे नृसिंह! हे अनन्त ! हे गोविन्द ! हे भूतभावन ! हे केशव ! हे जनार्दन ! मेरे दुर्वचन, दुष्कर्म और दुश्चिन्तनको शीघ्र नष्ट कीजिये।
यन्मया चिन्तितं दुष्टं स्वचित्तवशवर्तिना ।
आकर्णय महाबाहो तच्छमं नय केशव ॥
महाबाहो ! मेरी प्रार्थना सुनिये -अपने चित्तके वशमें होकर मैंने जो कुछ बुरा चिन्तन किया हो, उसको शान्त कर दीजिये ।
ब्रह्मण्यदेव गोविन्द परमार्थपरायण ।
जगन्नाथ जगद्धातः पापं शमय मेऽच्युत ॥
ब्राह्मणोंका हित साधन करनेवाले देवता गोविन्द ! परमार्थमें तत्पर रहनेवाले जगन्नाथ! जगत्को धारण करनेवाले अच्युत ! मेरे पापोंका नाश कीजिये ।
यच्चापराह्णे सायाने मध्याहने च तथा निशि कायेन मनसा वाचा कृतं पापमजानता ॥
जानता च हृषीकेश पुण्डरीकाक्ष माधव । नामत्रयोच्चारणतः सर्वं यातु मम क्षयम् ॥
मैंने पूर्वाह्ण, सायाह्न, मध्याह्न तथा रात्रिके समय शरीर, मन और वाणीके द्वारा, जानकर या अनजानमें जो कुछ पाप किया हो, वह सब 'हृषीकेश, पुण्डरीकाक्ष और माधव' - इन तीन नामोंके उच्चारणसे नष्ट हो जाय।
शारीरं मे हृषीकेश पुण्डरीकाक्ष मानसम् ।
पापं प्रशममायातु वाक्कृतं मम माधव ॥
हृषीकेश ! आपके नामोच्चारणसे मेरा शारीरिक पाप नष्ट हो जाय, पुण्डरीकाक्ष ! आपके स्मरणसे मेरा मानस पाप शान्त हो जाय तथा माधव ! आपके नाम कीर्तनसे मेरे वाचिक पापका नाश हो जाय।
यद् भुञ्जानः पिबंस्तिष्ठन् स्वपञ्जाग्रद् यदा स्थितः ।
अकार्षं पापमर्थार्थं कायेन मनसा गिरा ॥
महदल्पं च यत्पापं दुर्योनिनरकावहम् ।
तत्सर्वं विलयं यातु वासुदेवस्य कीर्तनात् ॥
मैंने खाते, पीते, खड़े होते, सोते, जागते तथा ठहरते समय मन, वाणी और शरीरसे, स्वार्थ या धनके लिये जो कुत्सित योनियों और नरकोंकी प्राप्ति करानेवाला महान् या थोड़ा पाप किया है, वह सब भगवान् वासुदेवका नामोच्चारण करनेसे नष्ट हो जाय ।
परं ब्रह्म परं धाम पवित्रं परमं च यत् ।
अस्मिन् सङ्कीर्तिते विष्णौ यत् पापं तत् प्रणश्यतु ॥
जिसे परब्रह्म, परम धाम और परम पवित्र कहते हैं, वह तत्त्व भगवान् विष्णु ही हैं; इन श्रीविष्णुभगवान्का कीर्तन करनेसे मेरे जो भी पाप हों, वे नष्ट हो जायँ ।यत्प्राप्य न निवर्तन्ते गन्धस्पर्शविवर्जितम् ।
सूरयस्तत्पदं विष्णोस्तत्सर्वं मे भवत्वलम् ॥
जो गन्ध और स्पर्शसे रहित है, ज्ञानी पुरुष जिसे पाकर पुनः इस संसारमें नहीं लौटते, वह श्रीविष्णुका ही परम पद है। वह सब मुझे पूर्णरूपसे प्राप्त हो जाय ।
पापप्रशमनं स्तोत्रं यः पठेच्छृणुयान्नरः ।
शारीरैर्मानसैर्वाचा कृतैः पापैः प्रमुच्यते ॥
मुक्तः पापग्रहादिभ्यो याति विष्णोः परं पदम् ।
तस्मात्सर्वप्रयत्नेन स्तोत्रं सर्वाघनाशनम् ॥
प्रायश्चित्तमघौघानां पठितव्यं नरोत्तमैः ।
यह ‘पाप-प्रशमन' नामक स्तोत्र है। जो मनुष्य इसे पढ़ता और सुनता है, वह शरीर, मन और वाणीद्वारा किये हुए पापोंसे मुक्त हो जाता है। इतना ही नहीं, वह पापग्रह आदिके भयसे भी होकर विष्णुके परम पदको प्राप्त होता है। यह स्तोत्र सब "पापोंका नाशक तथा पापराशिका प्रायश्चित्त है; इसलिये श्रेष्ठ मनुष्योंको पूर्ण प्रयत्न करके इस स्तोत्रका पाठ करना चाहिये।
राजन्! इस स्तोत्रके श्रवणमात्रसे पूर्वजन्म तथा इस जन्मके किये हुए पाप भी तत्काल नष्ट हो जाते हैं। यह स्तोत्र पापरूपी वृक्षके लिये कुठार और पापमय ईंधनके लिये दावानल है । पापराशिरूपी अन्धकार-समूहका नाश करनेके लिये यह स्तोत्र सूर्यके समान है। मैंने सम्पूर्ण जगत्पर अनुग्रह करनेके लिये इसे तुम्हारे सामने प्रकाशित किया है। इसके पुण्यमय माहात्म्यका वर्णन करनेमें स्वयं श्रीहरि भी समर्थ नहीं हैं।