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वैशाख,कार्तिक और माघ मास माहातम्य (मास माहातम्य)

Kartik,Vaishakh and Magh Mahatamya (Maas Mahatamya)

कथा 17 - Katha 17

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वैशाखमासके माहात्म्य-श्रवणसे एक सर्पका उद्धार और वैशाख धर्मके पालन तथा रामनाम-जपसे व्याधका वाल्मीकि होना

श्रुतदेव कहते हैं- तदनन्तर व्याधसहित शंख मुनिने विस्मित होकर पूछा- 'तुम कौन हो ? और तुम्हें यह दशा कैसे प्राप्त हुई थी ?"
सर्पने कहा -पूर्वजन्ममें मैं प्रयागका एक ब्राह्मण था । मेरे पिताका नाम कुशीद मुनि और मेरा नाम रोचन था मैं धनाढ्य, अनेक पुत्रोंका पिता और सदैव अभिमानसे दूषित था। बैठे-बैठे बहुत बकवाद किया करता था। बैठना, सोना, नींद लेना, मैथुन करना, जुआ खेलना, लोगोंकी बातें करना और सूद लेना, यही मेरे व्यापार थे। मैं लोकनिन्दासे डरकर नाममात्रके शुभ कर्म करता था; सो भी दम्भके साथ। उन कर्मोंमें मेरी श्रद्धा नहीं थी। इ प्रकार मुझ दुष्ट और दुर्बुद्धिके कितने ही वर्ष बीत गये। तदनन्तर इसी वैशाखमासमें जयन्त नामक ब्राह्मण प्रयागक्षेत्रमें निवास करनेवाले पुण्यात्मा द्विजोंको वैशाखमासके धर्म सुनाने लगे। स्त्री, पुरुष, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र-सहस्रों श्रोता प्रातः काल स्नान करके अविनाशी भगवान् विष्णुकी पूजाके पश्चात् प्रतिदिन जयन्तकी कही हुई कथा सुनते थे। वे सभी पवित्र एवं मौन होकर उस भगवत्कथामें अनुरक्त रहते थे। एक दिन मैं भी कौतूहलवश देखनेकी इच्छासे श्रोताओंकी उस मण्डलीमें जा बैठा। मेरे मस्तकपर पगड़ी बँधी थी। इसलिये मैंने नमस्कारतक नहीं किया और संसारी वार्तालाप में अनुरक्त हो कथामें विघ्न डालने लगा। कभी मैं कपड़े फैलाता, कभी किसीकी निन्दा करता और कभी जोरसे हँस पड़ता था। जबतक कथा समाप्त हुई, तबतक मैंने इसी प्रकार समय बिताया। तत्पश्चात् दूसरे दिन सन्निपात रोगसे मेरी मृत्यु हो गयी। मैं तपाये हुए शीशेके जलसे भरे हुए हलाहल नरकमें डाल दिया गया और चौदह मन्वन्तरोंतक वहाँ यातना भोगता रहा। उसके बाद चौरासी लाख योनियोंमें क्रमश: जन्म लेता और मरता हुआ मैं इस समय क्रूर तमोगुणी सर्प होकर इस वृक्षके खोखलेमें निवास करता था। मुने! सौभाग्यवश आपके मुखारविन्दसे निकली हुई अमृतमयी कथाको मैंने अपने दोनों नेत्रोंसे सुना, जिससे तत्काल मेरे सारे पाप नष्ट हो गये। मुनिश्रेष्ठ ! मैं नहीं जानता कि आप किस जन्मके मेरे बन्धु हैं; क्योंकि मैंने कभी किसीका उपकार नहीं किया है तो भी मुझपर आपकी कृपा हुई । जिनका चित्त समान है, जो सब प्राणियोंपर दया करनेवाले साधुपुरुष हैं, उनमें परोपकारकी स्वाभाविक प्रवृत्ति होती है। उनकी कभी किसीके प्रति विपरीत बुद्धि नहीं होती। आज आप मुझपर कृपा कीजिये, जिससे मेरी बुद्धि धर्ममें लगे। देवाधिदेव भगवान् विष्णुकी मुझे कभी विस्मृति न हो और साधु चरित्रवाले महापुरुषोंका सदा ही संग प्राप्त हो । जो लोग मदसे अंधे हो रहे हों, उनके लिये एकमात्र दरिद्रता ही उत्तम अंजन है। इस प्रकार नाना भाँति से स्तुति करके रोचनने बार-बार शंखको प्रणाम किया और हाथ जोड़कर चुपचाप उनके आगे खड़ा हो गया।

तब शंखने कहा- ब्रह्मन् ! तुमने वैशाखमास और भगवान् विष्णुका माहात्म्य सुना है, इससे उसी क्षण तुम्हारा सारा बन्धन नष्ट हो गया। द्विजश्रेष्ठ ! परिहास, भय, क्रोध, द्वेष, कामना अथवा स्नेहसे भी एक बार भगवान् विष्णुके पापहारी नामका उच्चारण करके बड़े भारी पापी भी रोग-शोकरहित वैकुण्ठधाममें चले जाते हैं। फिर जो श्रद्धासे युक्त हो क्रोध और इन्द्रियोंको जीतकर सबके प्रति दयाभाव रखते हुए भगवान्की कथा सुनते हैं, वे उनके लोकमें जाते हैं, इस विषयमें तो कहना ही क्या है * । कितने ही मनुष्य केवल भक्तिके बलसे एकमात्र भगवान्की कथा

वार्तामें तत्पर हो अन्य सब धर्मोंका त्याग कर देनेपर भी भगवान् विष्णुके परमपदको पा लेते हैं। भक्तिसे अथवा द्वेष आदिसे भी जो कोई भगवान्‌की भक्ति करते हैं, वे भी प्राणहारिणी पूतनाकी भाँति परमपदको प्राप्त होते । सदा महात्मा पुरुषोंका संग और उन्हींके विषयमें वार्तालाप करना चाहिये। रचना शिथिल होनेपर भी जिसके प्रत्येक श्लोकमें भगवान्‌के सुयशसूचक नाम हैं, वही वाणी जनसमुदायकी पापराशिका नाश करनेवाली होती है; क्योंकि साधुपुरुष उसीको सुनते, गाते और कहते हैं। जो भगवान् किसीसे कष्टसाध्य सेवा नहीं चाहते, आसन आदि विशेष उपकरणोंकी इच्छा नहीं रखते तथा सुन्दर रूप और जवानी नहीं चाहते, अपितु एक बार भी स्मरण कर लेनेपर अपना परम प्रकाशमय वैकुण्ठधाम दे डालते हैं, उन दयालु भगवान्‌को छोड़कर मनुष्य किसकी शरणमें जाय। उन्हीं रोग-शोकसे रहित, चित्तद्वारा चिन्तन करनेयोग्य, अव्यक्त, दयानिधान, भक्तवत्सल भगवान् नारायणकी शरणमें जाओ। महामते ! वैशाखमासमें कहे हुए इन सब धर्मोंका पालन करो, उससे प्रसन्न होकर भगवान् जगन्नाथ तुम्हारा कल्याण करेंगे।

ऐसा कहकर शंख मुनि व्याधकी ओर देखकर चुप हो रहे। तब उस दिव्य पुरुषने पुनः इस प्रकार कहा-'मुने! मैं धन्य हूँ, आप जैसे दयालु महात्माने मुझपर अनुग्रह किया है। मेरी कुत्सित योनि दूर हो गयी और अब मैं परमगतिको प्राप्त हो रहा हूँ, यह मेरे लिये सौभाग्यकी बात है।' यों कहकर दिव्य पुरुषने शंख मुनिकी परिक्रमा की तथा उनकी आज्ञा लेकर वह दिव्यलोकको चला गया। तदनन्तर सन्ध्या हो गयी। व्याधने शंखको अपनी सेवा सन्तुष्ट किया और उन्होंने सायंकालकी सन्ध्योपासना करके शेष रात्रि व्यतीत की। भगवान्‌के लीलावतारोंकी कथा-वार्ताद्वारा रात व्यतीत करके शंख मुनि ब्राह्ममुहूर्तमें उठे और दोनों पैर धोकर मौनभावसे तारक ब्रह्मका ध्यान करने लगे। तत्पश्चात् शौचादि क्रियासे निवृत्त होकर वैशाखमासमें सूर्योदयसे पहले स्नान किया और सन्ध्या-तर्पण आदि सब कर्म समाप्त करके उन्होंने हर्षयुक्त हृदयसे व्याधको बुलाया। बुलाकर उसे 'राम' इस दो अक्षरवाले नामका उपदेश दिया, जो वेदसे भी अधिक शुभकारक है। उपदेश देकर इस प्रकार कहा—' भगवान् विष्णुका एक-एक नाम भी सम्पूर्ण वेदोंसे अधिक महत्त्वशाली माना गया है। ऐसे अनन्त नामोंसे अधिक हैं भगवान् विष्णुका सहस्रनाम। उस सहस्रनामके समान राम-नाम माना गया है * । इसलिये व्याध ! तुम निरन्तर राम-नामका जप करो और मृत्युपर्यन्त मेरे बताये हुए धर्मोका पालन करते रहो। इस धर्मके प्रभावसे तुम्हारा वल्मीकिमें दूसरा जन्म होगा और तुम इस पृथ्वीपर वाल्मीकि ऋषिके नामसे प्रसिद्ध होओगे।'

व्याधको ऐसा आदेश देकर मुनिवर शंखने दक्षिण दिशाको प्रस्थान किया। व्याधने भी शंख मुनिकी परिक्रमा करके बार बार उनके चरणोंमें प्रणाम किया और जबतक वे दिखायी दिये, तबतक उन्हींकी ओर देखता रहा। फिर उसने अति योग्य वैशाखोक्त धर्मोंका पालन किया। जंगली कैथ, कटहल, जामुन और आम आदिके फलोंसे राह चलनेवाले थके-माँदे पथिकोंको वह भोजन कराता था। जूता, चन्दन, छाता, पंखा आदिके द्वारा तथा बालूके बिछावन और छाया आदिकी व्यवस्थासे पथिकोंके परिश्रम और पसीनेका निवारण करता था । प्रातःकाल स्नान करके दिन-रात राम-नामका जप करता था। इस प्रकार धर्मानुष्ठान करके वह दूसरे जन्ममें वल्मीकका पुत्र हुआ। उस समय वह महायशस्वी वाल्मीकिके नामसे विख्यात हुआ। उन्हीं वाल्मीकिजीने अपनी मनोहर प्रबन्ध-रचनाद्वारा संसारमें दिव्य राम-कथाको प्रकाशित किया, जो समस्त कर्म-बन्धनोंका उच्छेद करनेवाली है।

मिथिलापते! देखो, वैशाखका माहात्म्य कैसा ऐश्वर्य प्रदान करनेवाला है, जिससे एक व्याध भी परम दुर्लभ ऋषिभावको प्राप्त हो गया। यह रोमांचकारी उपाख्यान सब पापोंका नाश करनेवाला है। जो इसे सुनता और सुनाता है, वह पुनः माताके स्तनका दूध पीनेवाला नहीं होता।

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वैशाख,कार्तिक और माघ मास माहातम्य
Index


  1. [कथा 1]भगवद्भक्तिके लक्षण तथा वैशाख स्नानकी महिमा
  2. [कथा 2]वैशाख माहात्म्य
  3. [कथा 3]वैशाख स्नानसे पाँच प्रेतोंका उद्धार तथा 'पाप-प्रशमन' नामक स्तोत्रका वर्णन
  4. [कथा 4]वैशाखमासमें स्नान, तर्पण और श्रीमाधव पूजनकी विधि एवं महिमा
  5. [कथा 5]यम- ब्राह्मण-संवाद - नरक तथा स्वर्गमें ले जानेवाले कर्मोंका वर्णन
  6. [कथा 6]तुलसीदल और अश्वत्थकी महिमा तथा वैशाख माहात्म्यके सम्बन्धमें तीन प्रेतोंके उद्धारकी कथा
  7. [कथा 7]वैशाख माहात्म्यके प्रसंगमें राजा महीरथकी कथा और यम- ब्राह्मण-संवादका उपसंहार
  8. [कथा 8]वैशाखमासकी श्रेष्ठता; उसमें जल, व्यजन, छत्र, पादुका और अन्न आदि दानोंकी महिमा
  9. [कथा 9]वैशाखमासमें विविध वस्तुओंके दानका महत्त्व तथा वैशाखस्नानके नियम
  10. [कथा 10]वैशाखमासमें छत्रदानसे हेमकान्तका उद्धार
  11. [कथा 11]महर्षि वसिष्ठके उपदेशसे राजा कीर्तिमान्‌का अपने राज्यमें वैशाखमासके धर्मका पालन कराना और यमराजका ब्रह्माजीसे राजाके लिये शिकायत करना
  12. [कथा 12]ब्रह्माजीका यमराजको समझाना और भगवान् विष्णुका उन्हें वैशाखमासमें भाग दिलाना
  13. [कथा 13]भगवत्कथाके श्रवण और कीर्तनका महत्त्व तथा वैशाखमासके धर्मोके अनुष्ठानसे राजा पुरुयशाका संकटसे उद्धार
  14. [कथा 14]राजा पुरुयशाको भगवान्‌का दर्शन, उनके द्वारा भगवत्स्तुति और भगवान्‌के वरदानसे राजाकी सायुज्य मुक्ति
  15. [कथा 15]शंख-व्याध-संवाद, व्याधके पूर्वजन्मका वृत्तान्त
  16. [कथा 16]भगवान् विष्णुके स्वरूपका विवेचन, प्राणकी श्रेष्ठता, जीवोंके
  17. [कथा 17]वैशाखमासके माहात्म्य-श्रवणसे एक सर्पका उद्धार और वैशाख धर्मके पालन तथा रामनाम-जपसे व्याधका वाल्मीकि होना
  18. [कथा 18]धर्मवर्णकी कथा, कलिकी अवस्थाका वर्णन, धर्मवर्ण और पितरोंका संवाद एवं वैशाखकी अमावास्याकी श्रेष्ठता
  19. [कथा 19]वैशाखकी अक्षय तृतीया और द्वादशीकी महत्ता, द्वादशीके पुण्यदानसे एक कुतियाका उद्धार
  20. [कथा 20]वैशाखमासकी अन्तिम तीन तिथियोंकी महत्ता तथा ग्रन्थका उपसंहार
  21. [कथा 21]कार्तिकमासकी श्रेष्ठता तथा उसमें करनेयोग्य स्नान, दान, भगवत्पूजन आदि धर्माका महत्त्व
  22. [कथा 22]विभिन्न देवताओंके संतोषके लिये कार्तिकस्नानकी विधि तथा स्नानके लिये श्रेष्ठ तीर्थोंका वर्णन
  23. [कथा 23]कार्तिकव्रत करनेवाले मनुष्यके लिये पालनीय नियम
  24. [कथा 24]कार्तिकव्रतसे एक पतित ब्राह्मणीका उद्धार तथा दीपदान एवं आकाशदीपकी महिमा
  25. [कथा 25]कार्तिकमें तुलसी-वृक्षके आरोपण और पूजन आदिकी महिमा
  26. [कथा 26]त्रयोदशीसे लेकर दीपावलीतकके उत्सवकृत्यका वर्णन
  27. [कथा 27]कार्तिक शुक्ला प्रतिपदा और यमद्वितीयाके कृत्य तथा बहिनके घरमें भोजनका महत्त्व
  28. [कथा 28]आँवलेके वृक्षकी उत्पत्ति और उसका माहात्म्य सूतजी कहते हैं-कार्तिकके शुक्लपक्षकी चतुर्दशीको आँवलेका
  29. [कथा 29]गुणवतीका कार्तिकव्रतके पुण्यसे सत्यभामाके रूपमें अवतार तथा भगवान्‌के द्वारा शंखासुरका वध और वेदोंका उद्धार
  30. [कथा 30]कार्तिकव्रतके पुण्यदानसे एक राक्षसीका उद्धार
  31. [कथा 31]भक्तिके प्रभावसे विष्णुदास और राजा चोलका भगवान्‌के पार्षद होना
  32. [कथा 32]जय-विजयका चरित्र
  33. [कथा 33]सांसर्गिक पुण्यसे धनेश्वरका उद्धार, दूसरोंके पुण्य और पापकी आंशिक प्राप्तिके कारण तथा मासोपवास- व्रतकी संक्षिप्त विधि
  34. [कथा 34]तुलसीविवाह और भीष्मपंचक-व्रतकी विधि एवं महिमा
  35. [कथा 35]एकादशीको भगवान्‌के जगानेकी विधि, कार्तिकव्रतका उद्यापन और अन्तिम तीन तिथियोंकी महिमाके साथ ग्रन्थका उपसंहार
  36. [कथा 36]कार्तिक-व्रतका माहात्म्य – गुणवतीको कार्तिक व्रतके पुण्यसे भगवान्‌की प्राप्ति
  37. [कथा 37]कार्तिककी श्रेष्ठताके प्रसंगमें शंखासुरके वध, वेदोंके उद्धार तथा 'तीर्थराज' के उत्कर्षकी कथा
  38. [कथा 38]कार्तिकमासमें स्नान और पूजनकी विधि
  39. [कथा 39]कार्तिक- व्रतके नियम और उद्यापनकी विधि
  40. [कथा 40]कार्तिक-व्रतके पुण्य-दानसे एक राक्षसीका उद्धार
  41. [कथा 41]कार्तिक माहात्म्यके प्रसंगमें राजा चोल और विष्णुदासकी कथा
  42. [कथा 42]पुण्यात्माओंके संसर्गसे पुण्यकी प्राप्तिके प्रसंगमें धनेश्वर ब्राह्मणकी कथा
  43. [कथा 43]अशक्तावस्थामें कार्तिक-व्रतके निर्वाहका उपाय
  44. [कथा 44]कार्तिकमासका माहात्म्य और उसमें पालन करनेयोग्य नियम
  45. [कथा 45]शूकरक्षेत्रका माहात्म्य तथा मासोपवास-व्रतकी विधि का वर्णन
  46. [कथा 46]शालग्रामशिलाके पूजनका माहात्म्य
  47. [कथा 47]भगवत्पूजन, दीपदान, यमतर्पण, दीपावली गोवर्धनपूजा और यमद्वितीयाके दिन करनेयोग्य कृत्योंका वर्णन
  48. [कथा 48]प्रबोधिनी एकादशी और उसके जागरणका महत्त्व तथा भीष्मपंचक व्रतकी विधि एवं महिमा
  49. [कथा 49]माघ माहात्म्य
  50. [कथा 50]मृगशृंग मुनिका भगवान्से वरदान प्राप्त करके अपने घर लौटना
  51. [कथा 51]मृगशृंग मुनिके द्वारा माघके पुण्यसे एक हाथीका उद्धार तथा मरी हुई कन्याओंका जीवित होना
  52. [कथा 52]यमलोकसे लौटी हुई कन्याओंके द्वारा वहाँकी अनुभूत बातोंका वर्णन
  53. [कथा 53]महात्मा पुष्करके द्वारा नरकमें पड़े हुए जीवोंका उद्धार
  54. [कथा 54]माघस्नानके लिये मुख्य-मुख्य तीर्थ और नियम
  55. [कथा 55]माघमासके स्नानसे सुव्रतको दिव्यलोककी प्राप्ति