नारदजी कहते हैं—एक समय विदेहराज जनकके घर दोपहरके समय श्रुतदेव नामसे विख्यात एक श्रेष्ठ मुनि पधारे, जो वेदोंके ज्ञाता थे। उन्हें देखकर राजा बड़े उल्लासके साथ उठकर खड़े हो गये और मधुपर्क आदि सामग्रियोंसे उनकी विधिपूर्वक पूजा करके राजाने उनके चरणोदकको अपने मस्तकपर धारण किया। इस प्रकार स्वागत-सत्कारके पश्चात् जब वे आसनपर विराजमान हुए, तब विदेहराजके प्रश्नके अनुसार वैशाखमासके माहात्म्यका वर्णन करते हुए वे इस प्रकार बोले ।
श्रुतदेवने कहा- राजन्! जो लोग वैशाखमासमें धूपसे सन्तप्त होनेवाले महात्मा पुरुषोंके ऊपर छाता लगाते हैं, उन्हें अनन्त पुण्यकी प्राप्ति होती है। इस विषयमें एक प्राचीन इतिहासका उदाहरण दिया करते हैं। पहले वंगदेशमें हेमकान्त नामसे विख्यात एक राजा हो गये हैं। वे कुशकेतुके पुत्र परम बुद्धिमान् और शस्त्रधारियोंमें श्रेष्ठ थे। एक दिन वे शिकार खेलनेमें आसक्त होकर एक गहन वनमें जा घुसे। वहाँ अनेक प्रकारके मृग और वराह आदि जन्तुओंको मारकर जब वे बहुत थक गये, तब दोपहरके समय मुनियोंके आश्रमपर आये। उस समय आश्रमपर उत्तम व्रतका पालन करनेवाले शतर्चि नामवाले ऋषि समाधि लगाये बैठे थे, जिन्हें बाहरके कार्योंका कुछ भी भान नहीं होता था। उन्हें निश्चल बैठे देख राजाको बड़ा क्रोध हुआ और उन्होंने उन महात्माओंको मार डालनेका निश्चय किया। तब उन ऋषियोंके दस हजार शिष्योंने राजाको मना करते हुए कहा- 'ओ खोटी बुद्धिवाले नरेश! हमारे गुरुलोग इस समय समाधिमें स्थित हैं, बाहर कहाँ क्या हो रहा है-इसको ये नहीं जानते। इसलिये इनपर तुम्हें क्रोध नहीं करना चाहिये।'
तब राजाने क्रोधसे विह्वल होकर शिष्योंसे कहा -द्विजकुमारो ! मैं मार्ग थका-माँदा यहाँ आया हूँ। अतः तुम्हीं लोग मेरा आतिथ्य करो। राजाके ऐसा कहनेपर वे शिष्य बोले- 'हम लोग भिक्षा माँगकर खानेवाले हैं। गुरुजनोंने हमें किसीके आतिथ्यके लिये आज्ञा नहीं दी है। हम सर्वथा गुरुके अधीन हैं। अतः तुम्हारा आतिथ्य कैसे कर सकते हैं।' शिष्योंका यह कोरा उत्तर पाकर राजाने उन्हें मारनेके लिये धनुष उठाया और इस प्रकार कहा 'मैंने हिंसक जीवों और लुटेरोंके भय आदिसे जिनकी अनेकों बार रक्षा की है, जो मेरे दिये हुए दानोंपर ही पलते हैं, वे आज मुझे ही सिखलाने चले हैं। ये मुझे नहीं जानते, ये सभी कृतघ्न और बड़े अभिमानी हैं। इन आततायियोंको मार डालनेपर भी मुझे कोई दोष नहीं लगेगा।' ऐसा कहकर वे कुपित हो धनुषसे बाण छोड़ने लगे। बेचारे शिष्य आश्रम छोड़कर भयसे भाग चले। भागनेपर भी हेमकान्तने उनका पीछा किया और तीन सौ शिष्योंको मार गिराया। शिष्योंके भाग जानेपर आश्रमपर जो कुछ सामग्री थी, उसे राजाके पापात्मा सैनिकोंने लूट लिया। राजाके अनुमोदनसे ही उन्होंने वहाँ इच्छानुसार भोजन किया। तत्पश्चात् दिन बीतते बीतते राजा सेनाके साथ अपनी पुरीमें आ गये। राजा कुशकेतुने जब अपने पुत्रका यह अन्यायपूर्ण कार्य सुना, तब उसे राज्य करनेके अयोग्य जानकर उसकी निन्दा करते हुए उसे देशनिकाला दे दिया। पिताके त्याग देनेपर हेमकान्त घने वनमें चला गया। वहाँ उसने बहुत वर्षोंतक निवास किया। ब्रह्महत्या उसका सदा पीछा करती रहती थी, इसलिये वह कहीं भी स्थिरतापूर्वक रह नहीं पाता था। इस प्रकार उस दुष्टात्माके अट्ठाईस वर्ष व्यतीत हो गये। एक दिन वैशाखमासमें जब दोपहरका समय हो रहा था, महामुनित्रित तीर्थयात्राके प्रसंगसे उस वनमें आये। वे धूपसे अत्यन्त संतप्त और तृषासे बहुत पीड़ित थे, इसलिये किसी वृक्षहीन प्रदेशमें मूच्छित होकर गिर पड़े। दैवयोगसे हेमकान्त उधर आ निकला; उसने मुनिको प्याससे पीड़ित, मूच्छित और थका-माँदा देख उनपर बड़ी दया की। उसने पलाशके पत्तोंसे छत्र बनाकर उनके ऊपर आती हुई धूपका निवारण किया। वह स्वयं मुनिके मस्तकपर छाता लगाये खड़ा हुआ और तूंबीमें रखा हुआ जल मुँह में डाला। इस उपचारसे मुनिको चेत हो आया और उन्होंने क्षत्रियके दिये हुए पत्तेके छातेको लेकर अपनी व्याकुलता दूर की। उनकी इन्द्रियों में कुछ शक्ति आयी और वे धीरे-धीरे किसी गाँवमें पहुँच गये। उस पुण्यके प्रभावसे हेमकान्तकी तीन सौ ब्रह्महत्याएँ नष्ट हो गयीं। इसी समय यमराजके दूत हेमकान्तको लेनेके लिये वनमें आये। उन्होंने उसके प्राण लेनेके लिये संग्रहणी रोग पैदा किया। उस समय प्राण छूटनेकी पीड़ासे छटपटाते हुए हेमकान्तने तीन अत्यन्त भयंकर यमदूतोंको देखा, जिनके बाल ऊपरकी ओर उठे हुए थे। उस समय अपने कर्मोंको याद करके वह चुप हो गया। छत्र- दानके प्रभावसे उसको भगवान् विष्णुका स्मरण हुआ। उसके स्मरण करनेपर भगवान् महाविष्णुने विष्वक्सेनसे कहा
'तुम शीघ्र जाओ, यमदूतोंको रोको, हेमकान्तकी रक्षा करो। अब वह निष्पाप एवं मेरा भक्त हो गया है। उसे नगरमें ले जाकर उसके पिताको सौंप दो। साथ ही मेरे कहनेसे कुशकेतुको यह समझाओ कि तुम्हारे पुत्रने अपराधी होनेपर भी वैशाखमासमें छत्र- दान करके एक मुनिकी रक्षा की है। अतः वह पापरहित हो गया है। इस पुण्यके प्रभावसे वह मन और इन्द्रियोंको अपने वशमें रखनेवाला दीर्घायु, शूरता और उदारता आदि गुणोंसे युक्त तथा तुम्हारे समान गुणवान् हो गया है। इसलिये अपने इस महाबली पुत्रकों तुम राज्यका भार सँभालनेके लिये नियुक्त करो। भगवान् विष्णुने तुम्हें ऐसी ही आज्ञा दी है। इस प्रकार राजाको आदेश देकर हेमकान्तको उनके अधीन करके यहाँ लौट आओ।' भगवान् विष्णुका यह आदेश पाकर महाबली विष्वक्सेनने हेमकान्तके पास आकर यमदूतोंको रोका और अपने कल्याणमय हाथोंसे उसके सब अंगोंमें स्पर्श किया। भगवद्भक्तके स्पर्शसे हेमकान्तकी सारी व्याधि क्षणभरमें दूर हो गयी। तदनन्तर विष्वक्सेन उसके साथ राजाकी पुरीमें गये। उन्हें देखकर महाराज कुशकेतुने आश्चर्ययुक्त हो भक्तिपूर्वक मस्तक झुकाकर पृथ्वीपर साष्टांग प्रणाम किया और भगवान्के पार्षदका अपने घरमें प्रवेश कराया। वहाँ नाना प्रकारके स्तोत्रोंसे उनकी स्तुति तथा वैभवोंसे उनका पूजन किया। तत्पश्चात् महाबली विष्वक्सेनने अत्यन्त प्रसन्न होकर राजाको हेमकान्तके विषयमें भगवान् विष्णुने जो सन्देश दिया था, वह सब कह सुनाया। उसे सुनकर कुशकेतुने पुत्रको राज्यपर बिठा दिया और स्वयं विष्वक्सेनकी आज्ञा लेकर उन्होंने पत्नीसहित वनको प्रस्थान किया। तदनन्तर महामना विष्वक्सेन हेमकान्तसे पूछकर और उसकी प्रशंसा करके श्वेतद्वीपमें भगवान् विष्णुके समीप चले गये। तबसे राजा हेमकान्त वैशाखमासमें बताये हुए भगवान्की प्रसन्नताको बढ़ानेवाले शुभ धर्मोंका प्रतिवर्ष पालन करने लगे। वे ब्राह्मणभक्त, धर्मनिष्ठ, शान्त, जितेन्द्रिय, सब प्राणियोंके प्रति दयालु और सम्पूर्ण यज्ञोंकी दीक्षामें स्थित रहकर सब प्रकारकी सम्पदाओंसे सम्पन्न हो गये। उन्होंने पुत्र पौत्र आदिके साथ समस्त भोगोंका उपभोग करके भगवान् विष्णुका लोक प्राप्त किया । वैशाख सुखसे साध्य, अतिशय पुण्य प्रदान करनेवाला है। पापरूपी इन्धनको अग्निकी भाँति जलानेवाला, परम सुलभ तथा धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष-चारों पुरुषार्थोंको देनेवाला है।