श्रुतदेवजी कहते हैं- राजन् ! पम्पाके तटपर कोई शंख नामसे प्रसिद्ध परम यशस्वी ब्राह्मण थे, जो बृहस्पतिके सिंह राशिमें स्थित होनेपर कल्याणमयी गोदावरी नदीमें स्नान करनेके लिये गये। मार्गमें परम पवित्र भीमरथीको पार करनेके बाद दुर्गम, जलशून्य एवं भयंकर निर्जन वनमें धूपसे विकल हो गये थे। वैशाखका महीना था और दोपहरका समय। वे किसी वृक्षके नीचे जा बैठे। इसी समय कोई दुराचारी व्याध हाथमें धनुष धारण किये वहाँ आया । ब्राह्मणके दर्शनसे उसकी बुद्धि पवित्र हो गयी और वह इस प्रकार बोला- 'मुने! मैं अत्यन्त दुर्बुद्धि एवं पापी हूँ। मेरे ऊपर आपने बड़ी कृपा की है; क्योंकि साधु-महात्मा स्वभावसे ही दयालु होते हैं। कहाँ मैं नीच कुलमें उत्पन्न हुआ व्याध और कहाँ मेरी ऐसी पवित्र बुद्धि- मैं इसे केवल आपका ही उत्तम अनुग्रह मानता हूँ। साधुबाबा! मैं आपका शिष्य हूँ, कृपापात्र हूँ। साधुपुरुषोंका समागम होनेपर मनुष्य फिर कभी दुःखको नहीं प्राप्त होता; अतः आप मुझे अपने पापनाशक वचनोंद्वारा ऐसा उपदेश दीजिये, जिससे संसार-बन्धनसे छूटनेकी इच्छा रखनेवाले मनुष्य अनायास ही भवसागरसे पार हो जाते हैं। साधु-पुरुषोंका चित्त सबके प्रति समान होता है। वे सब प्राणियोंके प्रति दयालु होते हैं। उनकी दृष्टिमें न कोई नीच है, न ऊँच; न अपना है, न पराया। मनुष्य सन्तप्त होकर जब-जब गुरुजनोंसे उपाय पूछता है, तब-तब वे उसे संसार-बन्धनसे छुड़ाने वाले ज्ञानका उपदेश करते हैं। जैसे गंगाजी मनुष्योंके पापका नाश करनेवाली हैं, उसी प्रकार
मूढ़ जनोंका उद्धार करना साधुपुरुषोंका स्वभाव ही माना गया है।' व्याधके ये वचन सुनकर शंखने कहा- 'व्याध ! यदि तुम कल्याण चाहते हो तो वैशाखमासमें भगवान् विष्णुको प्रसन्न और संसारसमुद्रसे पार करनेवाले जो दिव्य धर्म बताये गये हैं, उनका पालन करो।' मुनिश्रेष्ठ शंख प्याससे बहुत कष्ट पा रहे थे। दोपहरके समय उन्होंने सुन्दर सरोवरमें स्नान किया और युगल वस्त्र धारण करके मध्याह्नकालकी उपासना पूरी की। फिर देव-पूजा करनेके पश्चात् व्याधके लाये हुए श्रमहारी एवं स्वादिष्ट कैथका फल खाया। जब वे खा-पीकर सुखपूर्वक विराजमान हुए, उस समय व्याधने हाथ जोड़कर कहा-'मुने! किस कर्मसे मेरा तमोमय व्याधकुलमें जन्म हुआ और किससे ऐसी सद्बुद्धि तथा महात्माकी संगति प्राप्त हुई? प्रभो! यदि आप ठीक समझें तो मैंने जो कुछ पूछा है, वह तथा अन्य जानने योग्य बातें भी मुझसे कहिये।' शंख बोले- पूर्वजन्ममें तुम वेदोंके पारंगत विद्वान् ब्राह्मण थे। शाकल्य नगरमें तुम्हारा जन्म हुआ था। तुम्हारा गोत्र श्रीवत्स और नाम स्तम्भ था। उस समय तुम बड़े तेजस्वी समझे जाते थे; किंतु आगे चलकर किसी वेश्यामें तुम्हारी आसक्ति हो गयी। उसके संग-दोषसे तुमने नित्यकर्मोंको त्याग दिया और शूद्रकी भाँति घर आकर रहने लगे। यद्यपि तुम सदाचारशून्य, दुष्ट तथा धर्म-कर्मोंके त्यागी थे, तो भी उस समय तुम्हारी ब्राह्मणी पत्नी कान्तिमतीने वेश्यासहित तुम्हारी सेवा की। वह सदा तुम्हारा प्रिय करनेमें लगी रहती थी। वह तुम दोनोंके पैर धोती, दोनोंकी आज्ञाका पालन करती और दोनोंसे नीचे आसनपर सोती थी। इस प्रकार वेश्यासहित पतिकी सेवा करती हुई उस दुःखिनी ब्राह्मणीका इस भूतलपर बहुत समय बीत गया। एक दिन उसके पतिने मूलीसहित उड़द खाया और तिलमिश्रित निष्पाव भक्षण किया। उस अपथ्य भोजनसे उसका मुँह-पेट चलने लगा और उसे बड़ा भयंकर भगन्दर रोग हो गया। वह उस रोगसे दिन-रात जलने लगा। जबतक घरमें धन रहा, तबतक वेश्या भी वहाँ टिकी रही। उसका सारा धन लेकर पीछे उसने उसका घर छोड़ दिया। वेश्या तो क्रूर और निर्दयी होती ही है। उसे छोड़कर दूसरेके पास चली गयी !
तब वह ब्राह्मण रोगसे व्याकुलचित्त हो रोता हुआ अपनी स्त्रीसे बोला-'देवि! मैं वेश्याके प्रति आसक्त और अत्यन्त निष्ठुर मनुष्य हूँ, मेरी रक्षा करो। सुन्दरी! तुम परम पवित्र हो, मैंने तुम्हारा कुछ भी उपकार नहीं किया। कल्याणि ! जो पापी एवं निन्दित मनुष्य अपनी विनीत पत्नीका आदर नहीं करता, वह पन्द्रह जन्मोंतक नपुंसक होता है। महाभागे ! दिन-रात साधुपुरुष उसकी निन्दा करते हैं। तुम साध्वी और पतिव्रता हो, मैं तुम्हारा अनादर करके पापयोनिमें गिरूँगा। तुम्हारा अनादर करनेसे जो तुम्हारे मनमें क्रोध हुआ होगा, उससे मैं दग्ध हो चुका हूँ।'
इस प्रकार अनुतापयुक्त वचन कहते हुए पतिसे वह पतिव्रता हाथ जोड़कर बोली- 'प्राणनाथ! आप मेरे प्रति किये हुए व्यवहारको लेकर दुःख न मानें, लज्जाका अनुभव न करें। मेरा आपके ऊपर तनिक भी क्रोध नहीं है, जिससे आप अपनेको दग्ध हुआ बतलाते हैं। पूर्वजन्ममें किये हुए पाप ही इस जन्ममें दुःखरूप होकर आते हैं। जो उन दुःखोंको धैर्यपूर्वक सहन करती है, वही स्त्री साध्वी मानी जाती है और वही पुरुष श्रेष्ठ समझा जाता है।' वह उत्तम वर्णवाली स्त्री अपने पिता और भाइयोंसे धन माँगकर लायी और उसीसे पतिका पालन करने लगी। उसने अपने स्वामीको साक्षात् क्षीरसागरनिवासी विष्णु ही माना। वह दिन-रात पतिके मल-मूत्र साफ करती और उसके शरीरमें पड़े हुए कष्टदायक कीड़ोंको धीरे-धीरे नखसे खींचकर निकालती थी। ब्राह्मणी न रातमें सोती थी, न दिनमें अपने स्वामीके दुःखसे सन्तप्त होकर वह दुःखिनी सदा इस प्रकार प्रार्थना किया करती थी—'प्रसिद्ध देवता और पितर मेरे स्वामीकी रक्षा करें, इन्हें रोगहीन एवं निष्पाप कर दें। मैं पतिके आरोग्यके लिये चण्डिकादेवीको भैंसका दही और उत्तम अन्न चढ़ाऊँगी, महात्मा गणेशजीकी प्रसन्नताके लिये मोदक बनवाऊँगी, दस शनिवारोंको उपवास करूंगी तथा मीठा और भी नहीं खाऊँगी। मेरे पति रोगहीन होकर सौ वर्ष जीवें।'
इस प्रकार वह देवी प्रतिदिन देवताओंसे प्रार्थना करती थी। उन्हीं दिनों कोई देवल नामक महात्मा यहाँ आये। वैशाखमासमें धूपसे पीड़ित हो सायंकालके समय उस ब्राह्मणके घरमें उन्होंने पदार्पण किया। ब्राह्मणीने महात्माके चरण धोकर उस जलको मस्तकपर चढ़ाया और धूपसे कष्ट पाये हुए महात्माको पीनेके लिये शर्बत दिया। प्रातःकाल सूर्योदय होनेपर मुनि जैसे आये थे, वैसे चले गये। तदनन्तर थोड़े ही समयमें उस ब्राह्मणको सन्निपात हो गया। ब्राह्मणी सोंठ, मिर्च और पीपल लेकर जब उसके मुँह में डालने लगी, तब उसने पत्नीको अंगुली काट ली। उसके दोनों दाँत सहसा सट गये और ब्राह्मणीकी अंगुलीका वह कोमल खण्ड उसके मुँहमें ही रह गया। अँगुली काटकर उस वेश्याका ही चिन्तन करता हुआ वह ब्राह्मण मर गया। तब उसकी पत्नी कान्तिमतीने कंगन बेचकर बहुत-सा इन्धन खरीदा और चिता बनाकर वह साध्वी पतिके साथ उसमें जा बैठी। उसने पतिके रोगी शरीरका गाढ़ आलिंगन करके उसके साथ अपने-आपको भी चितामें जला दिया। शरीर त्यागकर वह सहसा भगवान् विष्णुके धाममें चली गयी। उसने वैशाखमासमें जो देवल मुनिको शर्बत पिलाया और उनके चरणोदकको शीशपर चढ़ाया था, इससे उसको योगिगम्य परमपदकी प्राप्ति हुई। तुमने अन्तकालमें वेश्याका चिन्तन करते हुए शरीर त्याग किया था, इसलिये इस घोर व्याधके शरीरमें आये हो और हिंसामें आसक्त हो सबको उद्वेगमें डाला करते हो। तुमने वैशाखमासमें मुनिको शर्बत देनेके लिये ब्राह्मणीको अनुमति दी थी, उसी पुण्यसे आज व्याध होनेपर भी तुम्हें सब सुखोंके एकमात्र साधन धर्मविषयक प्रश्न पूछनेके लिये उत्तम बुद्धि प्राप्त हुई है। तुमने जो सब पापोंको हरनेवाले मुनिके चरणोदकको सिरपर धारण किया था, उसीका यह फल है कि वनमें तुम्हें मेरा संग मिला है।