भीष्मजी बोले- हे मार्कण्डेयजी! हे महाप्राज्ञ ! हे पितृभक्तोंमें श्रेष्ठ! हे मुनिश्रेष्ठ। इसके अनन्तर क्या हुआ, कृपया आप बताइये ? ॥ 1 ॥मार्कण्डेयजी बोले- [ तदुपरान्त उनका जन्म मानसरोवर के हंसोंके रूपमें हुआ।] वे मानसरोवरमें विचरण करनेवाले सातों पक्षी धर्मयोगमें तत्पर हो पवन तथा जलका आहार करते हुए अपना शरीर सुखाने लगे। इधर, नीपदेशका वह राजा [उन पक्षियोंकी योगचर्याको देखकर योगधर्मकी प्राप्तिकी अभिलाषा करता हुआ] अन्तःपुरकी स्त्रियोंके साथ नन्दनवनमें इन्द्रके समान क्रीड़ाकर भार्यासहित अपने नगरको चला गया ॥ 2-3 ॥
उसका अनूह (अणुह) नामक परम धर्मात्मा पुत्र था, उस पुत्रको राज्यपर स्थापित करके उसने वनकी ओर प्रस्थान किया और जहाँ वे सहचारी हंस पक्षी थे, वहींपर वह महातपस्वी निराहार रहकर वायुभक्षण करते हुए तप करने लगा ॥ 4-5 ॥
उससे विभाजित होनेके कारण वह वन योगसिद्धि प्रदायक वैभ्राज नामसे विशेष प्रसिद्ध हुआ ॥ 6 ॥
वहीं पर योगधर्ममें तत्पर उन चारों पक्षियोंने तथा योगसे भ्रष्ट शेष तीन पक्षियोंने अपने शरीरका त्याग किया, पुनः वे काम्पिल्य नामक नगर में ब्रह्मदत्त आदि नामवाले सात निष्पाप महात्मा हुए ॥ 78 ॥
इनमें चारको तो अपने पूर्वजन्मकी स्मृति बनी रही, किंतु [शेष ] तीन पूर्वजन्मकी स्मृतिके नष्ट हो जानेसे मोहमें पड़ गये थे उनमें स्वतन्त्र नामक चक्रवाक महातेजस्वी अणुहके पुत्र ब्रह्मदत्त नामसे विख्यात हुआ ॥ 9 ॥ छिद्रदर्शी और सुनेत्र पूर्वजन्ममें उसके साथ रहने के कारण उसी नगरमें वेद-वेदांगपारगामी [ पंचाल तथा पुण्डरीक नामवाले] श्रोत्रियपुत्र हुए। पंचाल बस्वृच अर्थात् ऋग्वेदी था और आचार्यत्व करता था। पुण्डरीक दो वेदोंका ज्ञाता होनेसे छन्दोगान करनेवाला और अध्वर्यु हुआ ॥ 10-11 ॥
इधर राजाने अपने पुत्र ब्रह्मदत्तको पापरहित देखकर उसका राज्याभिषेक करके परम गति प्राप्त की पंचाल और पुण्डरीकके भी पिताने अपने दोनों पुत्रोंको राजाके मन्त्रिपदपर अभिषिक्तकर वनमें जाकर परम गति प्राप्त की हे भारत! ब्रह्मदत्तकी सन्नति नामक भार्या थी, वह अपने पतिमें अनन्यभावसे रमण करती थी । ll 12 - 14 ॥हे राजन्! सहचारी (चारों) चक्रवाक उसी काम्पिल्य नगरमें किसी दरिद्र श्रोत्रियके पुत्रोंके रूपमें उत्पन्न हुए। धृतिमान् सुमहात्मा, तत्त्वदर्शी और निरुत्सुक उनके नाम थे। ये सभी चारों वेदाध्ययनसम्पन्न और सांसारिक दोषोंके ज्ञाता थे । ll 15-16 ॥
एक समय इन योगनिरत सिद्ध पुरुषोंने परस्पर विचार किया और [ अपना कल्याण करनेके लिये ] वे शिवजीके चरणकमलोंमें प्रणामकर प्रस्थान करने लगे। उस समय [पिताके द्वारा रोके जानेपर ] उन सभी ब्राह्मणोंने अपने पितासे कहा- हम आपकी आजीविकाकी व्यवस्था किये जा रहे हैं, जिससे आपका निर्वाह हो जायगा ॥ 17-18 ॥
आप मन्त्रियोंसहित निष्पाप ब्रह्मदत्त राजाके पास जाकर महान् अर्थपूर्ण इस श्लोकको सुना देना ॥ 19 ॥
इस श्लोकसे हर्षित हुआ राजा अनेक ग्राम तथा नाना प्रकारकी भोग सामग्री देगा। इस प्रकार कहकर वे अपने पिताकी पूजा कर और योगधर्म प्राप्तकर परमशान्तिका अनुभव करने लगे। उन चारोंके पिता भी अपने महात्मा पुत्रोंके द्वारा कहे गये श्लोकका अध्ययनकर कृतकृत्य हो गये ॥ 20-21 ॥
उसने राजाके पास जाकर मन्त्रियोंकी उपस्थितिमें उस श्लोकको सुनाया- 'जो दशार्ण देशमें सात व्याध हुए, कालंजरपर्वतपर सात हरिण हुए, शरद्वीपमें सात चक्रवाक और पुनः मानसरोवरमें सात हंस हुए; वे ही कुरुक्षेत्रमें वेदवेत्ता ब्राह्मण हुए हैं। चार तो अपना रास्ता पार कर चुके, अब तीन शेष तुमलोग क्यों इस जगत्के दुर्गम मार्ग भटक रहे हो ?' इतना सुनते ही राजा ब्रह्मदत्त उसी क्षण मोहित हो गया । ll 22-24 ॥
हे भारत ! उसीके साथ उसके सचिव पांचाल और पुण्डरीक भी मोहित हो गये। फिर वे मानसरोवरका स्मरण करते ही योगको प्राप्त हो गये। उसके अनन्तर ब्रह्मदत्तने उस ब्राह्मणको बहुत सा रथ, भोगसामग्री एवं धन दिया और अपने विष्वक्सेन नामक शत्रुहन्ता पुत्रको राज्यपर अभिषिक्तकर स्वयं पत्नीसमेत वन चला गया और योगबलसे श्रेष्ठ गतिको प्राप्त किया ॥ 25-27 ॥धर्मात्मा पुण्डरीक भी सर्वश्रेष्ठ सांख्ययोगको प्राप्तकर योगका आश्रय ले उसके साधनसे विशुद्ध और सिद्ध हो गया। इसी प्रकार महातपस्वी पांचाल (पंचाल ) - ने भी [वैदिकोंमें प्रसिद्ध] क्रमपाठ तथा शिक्षा [वेदांगविशेष अथवा योगशास्त्रीय ग्रन्थ]- का प्रणयनकर उत्तम कीर्ति तथा योगाचार्यगति (मोक्ष) प्राप्त की ।। 28-29 ॥
जिन शूरोंको मुक्तिकी इच्छा हो, वे भगवान् सदाशिवके चरणकमलोंका ध्यानकर अपना पाप नष्ट करें। हे महामुने! शरीर, मन तथा वाणीसे किये गये पापके नाशके लिये श्रद्धा एवं भक्तिसे समन्वित हो इस आख्यानका भलीभाँति पाठ करना चाहिये ॥ 30-31 ॥ शिवनामका पुनः पुनः कीर्तन करनेसे व्यक्ति सभी पापोंसे मुक्त हो जाता है। उन देवदेव शिवके नामोंका उच्चारण होते ही पाप उसी प्रकार विलीन हो जाता है, जैसे पानी भरते ही मिट्टीका कच्चा घड़ा विनष्ट हो जाता है ॥ 321/2 ॥
इतना ही नहीं, हे महामुने! संचित [ अथवा किये गये] पापके नाशके लिये भी निरन्तर शिवनामका जप अवश्य करना चाहिये। श्रद्धालुजनोंको अपने मनोभिलषितकी सिद्धिहेतु भी शिवनामका जप करना आवश्यक है। जो मनुष्य पुष्टिके लिये इस अध्यायको पढ़ता और सुनता है, वह सब पापोंसे छूटकर मोक्षको प्राप्त करता है, इसमें सन्देह नहीं । ll 33-35॥